Thursday, April 16, 2020

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ

(ब-ज़ाहिर = प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से)

अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
ज़ख़्म यादों से धोना चाहता हूँ

वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ

कभी अपने ही दिल की रहगुज़र में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ

नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।

गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।

भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ

नये हों रास्ते मंज़िल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।

'अमित' अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

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