Thursday, November 12, 2020

कभी तो दिन हो उजागर कभी तो रात खुले

कभी तो दिन हो उजागर कभी तो रात खुले
ख़ुदाया! हम पे कभी तो ये कायनात खुले

बिछड़ गया तो ये जाना वो साथ था ही नहीं
कि तर्क होके हमारे ताअ'ल्लुक़ात खुले

(तर्क = त्याग)

तू चुप रहे भी तो मैं सुन सकूँ तिरी आवाज़
मैं कुछ कहूँ न कहूँ तुझ पे मेरी बात खुले

सबक़ तो देती चली जा रही थी हर ठोकर
प-खुलते- खुलते ही इस दिल पे तजरबात खुले

किनारे लग भी गई कश्ती-ए-ह़यात, मगर
मैं मुंतज़िर ही रहा मक़सद-ए-ह़यात खुले

(कश्ती-ए-ह़यात = जीवन की नाव), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (मक़सद-ए-ह़यात = जीवन का अर्थ)

- राजेश रेड्डी

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