दस्त-ए-ख़िरद से पर्दा-कुशाई न हो सकी
हुस्न-ए-अज़ल की जलवा-नुमाई न हो सकी
(दस्त-ए-ख़िरद = अक्ल/ बुद्धि की पहुँच), (पर्दा-कुशाई = पर्दा उठना), (हुस्न-ए-अज़ल = सृष्टि के आरम्भ की सुंदरता), (जलवा-नुमाई = शोभा, प्रदर्शन)
रंग-ए-बहार दे न सके ख़ार-ज़ार को
दस्त-ए-जुनूँ में आबला-साई न हो सकी
(ख़ार-ज़ार = काँटों भरी झाड़ियाँ), (दस्त-ए-जुनूँ = जूनून/ पागलपन की अवस्था), (आबला-साई = छाले/ फफोले बनना)
ऐ दिल तुझे इजाज़त-ए-फ़रियाद है मगर
रुसवाई है अगर शनवाई न हो सकी
(रुसवाई = बदनामी), (शनवा = सुनने वाला, श्रोता), (शनवाई = सुनवाई)
मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
मुश्किल ये है के दिल की सफ़ाई न हो सकी
फ़िक्र-ए-मआश-ओ-इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
इन मुश्किलों से अहद-बरआई न हो सकी
(फ़िक्र-ए-मआश = आजीविका/ कमाई की चिंता), (इश्क़-ए-बुताँ = महबूब से प्रेम), (याद-ए-रफ़्तगाँ = गुज़री हुई यादें), (अहद-बरआई = वादा निभाना)
ग़ाफ़िल न तुझ से ऐ ग़म-ए-उक़्बा थे हम मगर
दाम-ए-ग़म-ए-जहाँ से रिहाई न हो सकी
(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (ग़म-ए-उक़्बा = परलोक/ यमलोक का दुःख/ चिंता), (दाम-ए-ग़म-ए-जहाँ = दुनिया के दुखों का जाल, दुनियादारी की चिंता)
मुन्किर हज़ार बार ख़ुदा से हुआ बशर
इक बार भी बशर से ख़ुदाई न हो सकी
(मुन्किर = असहमत, विरोधी,इस शेर में इसका मतलब 'नास्तिक' है ), (बशर = इंसान)
ख़ुद ज़िंदगी बुराई नहीं है तो और क्या
'महरूम' जब किसी से भलाई न हो सकी
-तिलोक चंद 'महरूम'
हुस्न-ए-अज़ल की जलवा-नुमाई न हो सकी
(दस्त-ए-ख़िरद = अक्ल/ बुद्धि की पहुँच), (पर्दा-कुशाई = पर्दा उठना), (हुस्न-ए-अज़ल = सृष्टि के आरम्भ की सुंदरता), (जलवा-नुमाई = शोभा, प्रदर्शन)
रंग-ए-बहार दे न सके ख़ार-ज़ार को
दस्त-ए-जुनूँ में आबला-साई न हो सकी
(ख़ार-ज़ार = काँटों भरी झाड़ियाँ), (दस्त-ए-जुनूँ = जूनून/ पागलपन की अवस्था), (आबला-साई = छाले/ फफोले बनना)
ऐ दिल तुझे इजाज़त-ए-फ़रियाद है मगर
रुसवाई है अगर शनवाई न हो सकी
(रुसवाई = बदनामी), (शनवा = सुनने वाला, श्रोता), (शनवाई = सुनवाई)
मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
मुश्किल ये है के दिल की सफ़ाई न हो सकी
फ़िक्र-ए-मआश-ओ-इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
इन मुश्किलों से अहद-बरआई न हो सकी
(फ़िक्र-ए-मआश = आजीविका/ कमाई की चिंता), (इश्क़-ए-बुताँ = महबूब से प्रेम), (याद-ए-रफ़्तगाँ = गुज़री हुई यादें), (अहद-बरआई = वादा निभाना)
ग़ाफ़िल न तुझ से ऐ ग़म-ए-उक़्बा थे हम मगर
दाम-ए-ग़म-ए-जहाँ से रिहाई न हो सकी
(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (ग़म-ए-उक़्बा = परलोक/ यमलोक का दुःख/ चिंता), (दाम-ए-ग़म-ए-जहाँ = दुनिया के दुखों का जाल, दुनियादारी की चिंता)
मुन्किर हज़ार बार ख़ुदा से हुआ बशर
इक बार भी बशर से ख़ुदाई न हो सकी
(मुन्किर = असहमत, विरोधी,इस शेर में इसका मतलब 'नास्तिक' है ), (बशर = इंसान)
ख़ुद ज़िंदगी बुराई नहीं है तो और क्या
'महरूम' जब किसी से भलाई न हो सकी
-तिलोक चंद 'महरूम'
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