Sunday, January 17, 2016

रात दिन में वक़्त ये ढलता रहा

रात दिन में वक़्त ये ढलता रहा
ज़िंदगी का कारवां चलता रहा

भोर का सपना दिखा कर चल दिए
आदमी बस आँख ही मलता रहा

द्रौपदी की लाज लुटने से अधिक
भीष्म का ही मौन बस खलता रहा

कीमतें जब झूंठ की बढ़ने लगीं
सच बिचारा हाथ ही मलता रहा

आज बेटे बेटियाँ सब मस्त हैं
बाप लेकिन बर्फ सा गलता रहा

आँधियों ने साजिशें तो कीं मगर
इक दिया बेख़ौफ़ सा जलता रहा

ईद की खुशियाँ फ़क़त दो रोज़ की
पर मुहर्रम उम्र भर चलता रहा

ज़ख़्म अब किस को दिखाएँ 'आरसी'
जिसने देखे बस नमक मलता रहा

-आर० सी० शर्मा “ आरसी “

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