Wednesday, February 24, 2016

दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है

दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है
सहमा-सहमा-सा अब मेरा घर लगता है

साज़िश होती रहती है दीवार-ओ-दर में
घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है

झुक कर चलने की आदत पड़ जाए शायद
सर जो उठाऊँ दरवाज़े में सर लगता है

क्यों हर बार निशाना मैं ही बन जाता हूँ
क्यों हर पत्थर मेरे ही सर पर लगता है

ज़िक्र करूँ क्या उस की ज़ुल्म ओ तशद्दुद का मैं
फूल भी जिसके हाथों में पत्थर लगता है

(तशद्दुद = सख़्ती, अत्याचार)

लौट के आया हूँ मैं तपते सहराओं से
शबनम का क़तरा मुझको सागर लगता है

(सहराओं = रेगिस्तानों), (शबनम = ओस)

ठीक नहीं है इतना अच्छा बन जाना भी
जिस को देखूँ वो मुझ से बेहतर लगता है

इक मुद्दत पर 'आलम' बाग़ में आया हूँ मैं
बदला-बदला-सा हर इक मंज़र लगता है

- आलम खुर्शीद

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