Friday, March 11, 2016

माना कि बाग़ की कोई हलचल नहीं हूँ मैं

माना कि बाग़ की कोई हलचल नहीं हूँ मैं
ज़ाहिर हर इक गुल में हूँ ओझल नहीं हूँ मैं

ख़ुशबू ही मैं भी बाँटता रहता हूँ हर घड़ी
है फ़र्क बस ये नाम से संदल नहीं हूँ मैं

ग़र शौक की है बात तो फिर और कुछ पहन
छिल जाएगा ये जिस्म कि मखमल नहीं हूँ मैं

झंकार हूँ मैं रूह से महसूस कीजिये
छूकर मुझे न देखिये पायल नहीं हूँ मैं

उसके खिलाये गुल थे उसी पे लुटा दिए
पागल मुझे न जानिये पागल नहीं हूँ मैं

'हस्ती' मुगालते में हैं ये सारे शहसवार
अपनी ख़ुदी के रथ पे हूँ पैदल नहीं हूँ मैं

-हस्तीमल 'हस्ती'

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