Wednesday, November 30, 2016

जो थके थके से थे हौसले वो शबाब बन के मचल गए

जो ग़म-ए-हबीब से दूर थे वो ख़ुद अपनी आग में जल गए
जो ग़म-ए-हबीब को पा गए वो ग़मों से हँस के निकल गए

(ग़म-ए-हबीब = दोस्त/ प्रियतम का दुःख)

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जो थके थके से थे हौसले वो शबाब बन के मचल गए
वो नज़र नज़र से गले मिले तो बुझे चराग़ भी जल गए

ये शिकस्त-ए-दीद की करवटें भी बड़ी लतीफ़-ओ-जमील थीं
मैं नज़र झुका के तड़प गया वो नज़र बचा के निकल गए

(शिकस्त-ए-दीद = आँखों से दूर होना, दृष्टिलोप, नज़र की हार), (लतीफ़-ओ-जमील = सुखद/ शुद्ध/ आनंददायक और ख़ूबसूरत/ आकर्षक)

न ख़िज़ाँ में है कोई तीरगी न बहार में कोई रौशनी
ये नज़र नज़र के चराग़ हैं कहीं बुझ गए कहीं जल गए

(ख़िज़ाँ = पतझड़), (तीरगी = अन्धकार, अँधेरा)

जो सँभल सँभल के बहक गए वो फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-राह थे
वो मक़ाम-ए-इश्क़ को पा गए जो बहक बहक के सँभल गए

(फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-राह = रास्ते के छोटे छोटे धोखे)

जो खिले हुए हैं रविश रविश वो हज़ार हुस्न-ए-चमन सही
मगर उन गुलों का जवाब क्या जो क़दम क़दम पे कुचल गए

(रविश = बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग)

न है 'शाइर' अब ग़म-ए-नौ-ब-नौ न वो दाग़-ए-दिल न वो आरज़ू
जिन्हें ए'तिमाद-ए-बहार है वही फूल रंग बदल गए

(ग़म-ए-नौ-ब-नौ = दुःख के बाद नया दुःख), (ए'तिमाद-ए-बहार = बहार पर भरोसा/ विश्वास)

-शायर लखनवी




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