दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई
जो दिल पे असर करती ऐसी हो फुग़ाँ कोई
(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन), (सोज़-ए-निहाँ = अंदर की आग)
इक रोज़ मुक़र्रर है जाने के लिए सबका
सुनते हैं सितारों से आगे है जहाँ कोई
क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा पे टालो हो मुलाक़ातें
ले जाये क़ज़ा किस दिन जाने है कहाँ कोई
(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा), (क़ज़ा = मौत)
ढूंढें भी कहाँ तुम को, किस ठौर ठिकाना है
छोड़े हैं कहाँ तुमने क़दमों के निशाँ कोई
करते हो यक़ीं इतना हर बात पे क्यूँ सबकी
मुकरे न कहे से जो ऐसी है ज़ुबां कोई
उस बज़्म-ए-सुख़न में क्यूँ कहते हो ग़ज़ल अय दिल
है दाद नहीं मिलती अपनों से जहाँ कोई
मत पूछ मेरा मज़हब सज्दे में ही रहता हूँ
नाक़ूस बजे चाहे होती हो अज़ाँ कोई
(नाक़ूस = शंख जो फूंक कर बजाया जाता है)
-स्मृति रॉय
जो दिल पे असर करती ऐसी हो फुग़ाँ कोई
(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन), (सोज़-ए-निहाँ = अंदर की आग)
इक रोज़ मुक़र्रर है जाने के लिए सबका
सुनते हैं सितारों से आगे है जहाँ कोई
क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा पे टालो हो मुलाक़ातें
ले जाये क़ज़ा किस दिन जाने है कहाँ कोई
(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा), (क़ज़ा = मौत)
ढूंढें भी कहाँ तुम को, किस ठौर ठिकाना है
छोड़े हैं कहाँ तुमने क़दमों के निशाँ कोई
करते हो यक़ीं इतना हर बात पे क्यूँ सबकी
मुकरे न कहे से जो ऐसी है ज़ुबां कोई
उस बज़्म-ए-सुख़न में क्यूँ कहते हो ग़ज़ल अय दिल
है दाद नहीं मिलती अपनों से जहाँ कोई
मत पूछ मेरा मज़हब सज्दे में ही रहता हूँ
नाक़ूस बजे चाहे होती हो अज़ाँ कोई
(नाक़ूस = शंख जो फूंक कर बजाया जाता है)
-स्मृति रॉय
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