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Saturday, June 15, 2019

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया
मैं इस क़दर उड़ा कि ख़लाओं में खो गया

(ख़लाओं = अँतरिक्षों)

कतरा रहे हैं आज के सुक़रात ज़हर से
इंसान मस्लहत की अदाओं में खो गया

(मस्लहत = समझदारी, हित, भलाई)

शायद मिरा ज़मीर किसी रोज़ जाग उठे
ये सोच के मैं अपनी सदाओं में खो गया

(सदाओं = आवाज़ों)

लहरा रहा है साँप सा साया ज़मीन पर
सूरज निकल के दूर घटाओं में खो गया

मोती समेट लाए समुंदर से अहल-ए-दिल
वो शख़्स बे-अमल था दुआओं में खो गया

(अहल-ए-दिल = दिल वाले), (बे-अमल = बिना कर्म के)

ठहरे हुए थे जिस के तले हम शिकस्ता-पा
वो साएबाँ भी तेज़ हवाओं में खो गया

(शिकस्ता-पा = मजबूर, असहाय, लाचार), (साएबाँ = शामियाना, मण्डप)

-कामिल बहज़ादी

Wednesday, June 29, 2016

मिरा ज़मीर बहुत है मुझे सज़ा के लिए
तू दोस्त है तो नसीहत न कर ख़ुदा के लिए
-शाज़ तमकनत

Sunday, December 1, 2013

माना कि हम छप ना पाए पुस्तक या अख़बारों में
लेकिन ये क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में |
हम वो पत्थर हैं जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों में,
शायद तुमको नज़र न आए इसीलिए मीनारों में |
-आर० सी० शर्मा "आरसी"

Saturday, November 9, 2013

जो दिल से दे दुआ तो भिखारी अमीर है
मोती न दे सके तो समंदर फ़क़ीर है
देता रहेगा सारे अंधेरों को रौशनी
जब तक तेरे वजूद में रौशन ज़मीर है
-शायर: नामालूम

Monday, May 27, 2013

अभी ज़मीर में थोड़ी-सी जान बाक़ी है
अभी हमारा कोई इम्तेहान बाक़ी है

हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ
मगर सुना है अभी वो मकान बाक़ी है

हमारी उनसे जो थी गुफ़्तगू, वो ख़त्म हुई
मगर सुकूत-सा कुछ दरमियान बाक़ी है

(सुकूत = मौन, चुप्पी, ख़ामोशी)

हमारे ज़ह्न की बस्ती में आग ऐसी लगी
कि जो था ख़ाक हुआ इक दुकान बाक़ी है

वो ज़ख़्म भर गया अर्सा हुआ मगर अबतक
ज़रा-सा दर्द, ज़रा-सा निशान बाक़ी है

ज़रा-सी बात जो फ़ैली तो दास्तान बनी
वो बात ख़त्म हुई दास्तान बाक़ी है

अब आया तीर चलाने का फ़न तो क्या आया
हमारे हाथ मे ख़ाली कमान बाक़ी है
-जावेद अख़्तर

Monday, May 13, 2013


इक चीज़ थी ज़मीर जो वापस न ला सका
लौटा तो है ज़रूर वो दुनिया ख़रीद कर
- क़मर इक़बाल

Thursday, March 14, 2013

बेच डाला हमने कल अपना ज़मीर,
ज़िन्दगी का आखरी ज़ेवर गया ।
-राजेश रेड्डी  

Thursday, September 27, 2012

चंद सिक्कों में बिकता है यहाँ इंसान का ज़मीर,
कौन कहता है मेरे मुल्क में महंगाई बहुत है

-शायर: नामालूम


Wednesday, September 26, 2012

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं

मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूं एतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कबसे गड़ा हूं मैं

 (एतराफ़ = इकरार करना, मानना)

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूं मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं

पहुँचा जो तेरे दर पे तो महसूस ये हुआ
लम्बी सी एक क़तार में जैसे खड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूं मैं

(ज़मीर = मन, विवेक)

-क़तील शिफाई

Tuesday, September 25, 2012

हम ईंट-ईंट को दौलत से लाल कर देते,
अगर ज़मीर की चिड़िया हलाल कर देते।
-मुनव्वर राना