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Wednesday, April 22, 2020

कितना सुख है निज अर्पन में

जाने कितने जन्मों का
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।

खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा
कर जाने कब सिंधु समायी ।

सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।

मिलने की बेला जब आयी
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।

पतझर में बेमौसम बारिश
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।

थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था,
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे
भावों का अहसास तरल था ।

है आनंद पराजय में अब
कितना सुख है निज अर्पन में ।।

-मानोशी 

Thursday, January 23, 2020

सब मिला इस राह में

सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।

चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो

धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।

जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।

मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।

काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,

शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।

-मानोशी

Saturday, January 30, 2016

पागल मन यूँ ही उदास है

पागल मन यूँ ही उदास है,
कितना सुन्दर आसपास है।

काले बादल के पीछे से
झाँक रही इक किरण सुनहरी,
सारे दिन की असह जलन के
बाद गरजती झमझम बदरी,
बरखा की बूंदाबांदी जब
चेहरे पर छींटे बिखराती,
भरी दुपहरी शीश नवा कर
धीरे से संध्या बन जाती,

छोटी-छोटी खुशियों में ही
पलता जीवन का उजास है ।

मन की गलियों शोर मचे जब
उच्चारण बस ओंकार का,
मंदिर में जब साथ झुकें सर,
होता विगलन अहंकार का,
काली मावस भी सज जाती
दीपो के गहनों से दुल्हन,
सुख-दुःख के छोटे पल मिलकर
बन जाता इक पूरा जीवन

जब मिल जाते एक साथ स्वर
मिलती जय तब अनायास है।

बादल का इक छोटा टुकड़ा
कठिन डगर में छाँव बिछा दे,
निर्जन राहो में जब सहसा
कोई आकर हाथ बढ़ा दे,
बिना कहे ही मीत समझ ले
अर्थ हृदय में छुपे भाव का,
हृदयो का बंधन ऐसा हो
जाड़े में जलते अलाव सा,
अपने ही अन्दर सुख होता,
दुःख इच्छाओं का लिबास है।

पागल मन यूं ही उदास है..

-मानोशी

Friday, March 6, 2015

मैं जब शाख़ पर घर बसाने की बात करती हूँ
पसंद नहीं आती
उसे मेरी वह बात,
जब आकाश में फैले
धूप को बाँधने के स्वप्न देखती हूँ,
तो बादलों का भय दिखा जाता है वह,
उड़ने की ख़्वाहिश से पहले ही
वह चुन-चुन कर मेरे पंख गिनता है,
धरती पर भी दौड़ने को मापता है पग-पग,
और फिर जब मैं भागती हूँ,
तो पीछे से आवाज़ देता है,
मगर मैं नहीं सुनती
और अकेले जूझती हूँ,
पहनती हूँ दोष,
ओढ़ती हूँ गालियाँ,
और फिर भी सर ऊँचा कर
खुद को पहचानने की कोशिश करती हूँ
क्या वही हूँ मैं?
चट्टान, पत्थर, दीवार ...
अब कुछ असर नहीं करता...
मगर मैंने तय किये हैं रास्ते
पाई है मंज़िल
जहाँ मैं उड़ सकती हूँ,
शाख़ पर घर बसाया है मैंने
और धूप मेरी मुट्ठी में है

-मानोशी

Thursday, May 1, 2014

कुछ इक फ़ासले मैं मिटाता नहीं हूँ

मैं खुद हाथ आगे बढ़ाता नहीं हूँ
बढ़ा लूँ कदम, तो हटाता नहीं हूँ

वो चाँद आसमां में ही चमका करे पर
कुछ इक फ़ासले मैं मिटाता नहीं हूँ

मेरी ज़िंदगी में भी दो-चार ग़म हैं
ये बात और है मैं दिखाता नहीं हूँ

यूँ मैं याद रखता हूँ हरदम ख़ुदा को
बस अपने लिये हाथ उठाता नहीं हूँ

न मांगो ऐ 'दोस्त' अब जो बस में नहीं है
मैं क़िस्मत बदल दूँ, विधाता नहीं हूँ
-मानोशी

Sunday, May 5, 2013

महक रही है ज़िंदगी अभी भी जिसकी खुशबू से,
वो कौन था ऐ 'दोस्त' जो क़रीब से गुज़र गया।
-मानोशी

आशना हो कर कभी नाआशना हो जायेगा

आशना हो कर कभी नाआशना हो जायेगा
क्या ख़बर थी एक दिन वो बेवफ़ा हो जायेगा

[(आशना = मित्र, दोस्त), (नाआशना = अजनबी)]

मैंने अश्क़ों को जो अपने रोक कर रक्खा, मुझे
डर था इनके साथ तेरा ग़म जुदा हो जायेगा

क्या है तेरा क्या है मेरा गिन रहा है रात-दिन
आदमी इस कश्मकश में ही फ़ना हो जायेगा

मैं अकेला हूँ जो सारी दुनिया को है फ़िक्र, पर
तारों के संग चल पड़ा तो क़ाफ़िला हो जायेगा
.
मुझको कोई ख़ौफ़ रुसवाई का यूँ तो है नहीं
लोग समझाते हैं मुझको तू बुरा हो जायेगा

मैं समंदर सा पिये बैठा हूँ सारा दर्द जो
एक दिन गर फट पड़ा तो जाने क्या हो जायेगा

पत्थरों में 'दोस्त' किसको ढूँढता है हर पहर
प्यार से जिससे मिलेगा वो ख़ुदा हो जायेगा
-मानोशी
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा

बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ
ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा
-मानोशी


लोग मुझको कहें ख़राब तो क्या
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या

है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या

उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या

मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ
कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या

ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या

मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या

आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब
'दोस्त' मरकर मिला सवाब तो क्या
-मानोशी
कहने को तो वो मुझे अपनी निशानी दे गया
मुझ से लेकर मुझको ही मेरी कहानी दे गया

जिसको अपना मान कर रोएँ कोई पहलू नहीं
कहने को सारा जहां दामन ज़ुबानी दे गया

अब उसी के वास्ते घर में कोई कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया

आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ुदा के नाम का क़िस्सा बयानी दे गया

हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया

उस के जाने पर भला रोएँ कभी क्यों जो मुझे
ज़िंदगी भर के लिए यादें सुहानी दे गया

याद है कल ’दोस्त’ हम तो हँसते-हँसते सोये थे
कौन आकर ख़्वाब में आँखों में पानी दे गया
-मानोशी

तेरा मेरा रिश्ता क्या है
फिर इस दर्द का मुद्दा क्या है

हर इक बात में ज़िक्रे-यार अब
तर्के-तआल्लुक़ है, या क्या है

(तर्के-तआल्लुक़ = टूटा रिश्ता)

उम्र लगी तआरुफ़ होने में
खु़द से मिल कर रोता क्या है

(तआरुफ़ = पहचान होना, परिचय)

एक नशेमन तिनका तिनका
तेरा क्या और मेरा क्या है

(नशेमन- आशियाना)

अपनी-अपनी राहें हैं अब
झूठा क्या और सच्चा क्या है
-मानोशी
कौन किसे कब रोक सका है।

दर्प पतन का प्रथम घोष है,
गिरने से पहले का इंगित,
भाग्य ने जिस जगह बिठाया
छिन जायेगा सब कुछ संचित,
दो क्षण के इस जीवन में क्या
द्वेष-द्वंद को सींच रहे हो,
जिसने ठान लिया होगा फिर
कौन उसे तब टोक सका है।

बड़े नाम हो, तुच्छ काम से
मान तुम्हारा कम होता है,
गुरु-महिमा की बातें झूठी
सच पर भी अब भ्रम होता है,
बाधा बन कर तन सकते हो
चाहो ज्वाला बन सकते हो
लेकिन याद रखो पत्थर को
कौन आग में झोंक सका है।

कौन किसे कब रोक सका है।
-मानोशी

Tuesday, April 16, 2013

कोई साथ नहीं देता है।

झूठा जग है, तुम सच्चे हो,
बिना डरे दिल की कहते हो,
अंतिम विजय सत्य की होती
यही मान सब कुछ सहते हो,
मगर, बावरे! समझ सको तो
एकल को कब संग मिला है?
बेबस हाथी के गिरने पर जंगल हाथ नहीं देता है।

तुम चाहे तो प्रेम कहो
पर दुनिया पाप-पुण्य आंकेगी,
जन्मसिद्ध अधिकार समझ कर
सुख-दुख, पल-पल में झांकेगी,
जब मांगा था साथ सभी का
तब कोई भी साथ नहीं था,
अब देखो एकांत मनाने जग-उन्माथ नहीं देता है।

जीवन कोई खेल नहीं है
कर्म-भाग्य का मिला जुला पथ,
जो तुमने ठाना है दिल में
डटे रहो जब माथ ली शपथ,
चाहे कोई संग न आये
अपना मन बस रहे साक्षी,
दुर्बल हो तो उसे शरण भी
जग का नाथ नहीं देता है।

कोई साथ नहीं देता है।

-मानोशी