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Friday, July 31, 2020

एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं
जिस तरह सीप के सीने गुहर होता है
जिस तरह रात के रानी की महक होती है
जिस तरह साँझ की वंशी का असर होता है

जिस तरह उठता है आकाश में इक इंद्रधनुष
जैसे पीपल के तले कोई दिया जलता है
जैसे मंदिर में कहीं दूर घंटियाँ बजतीं
जिस तरह भोर के पोखर में कमल खिलता है

जिस तरह खुलता हो सन्दूक पुराना कोई
जिस तरह उसमें से ख़त कोई पुराना निकले
जैसे खुल जाय कोई चैट की खिड़की फिर से
ख़ुद-बख़ुद जैसे कोई मुँह से तराना निकले

जैसे खँडहर में बची रह गयी बुनियादें हैं
एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 23, 2020

कब महकती है भला रात की रानी दिन में
शहर सोया तो तेरी याद की खुशबु जागी
-परवीन शाकिर 

Thursday, June 27, 2019

'बद्र' जब आगही से मिलता है

'बद्र' जब आगही से मिलता है
इक दिया रौशनी से मिलता है

(आगही  = ज्ञान, जानकारी, समझ-बूझ, चेतना, सूचना)

चाँद तारे शफ़क़ धनक खुशबू
सिलसिला ये उसी से मिलता है

(शफ़क़ = किरणे, सवेरे या शाम की लालिमा जो क्षितिज पर होती है), (धनुक = इन्द्रधनुष)

जितनी ज़ियादा है कम है उतनी ही
ये चलन आगही से मिलता है

(आगही  = ज्ञान, जानकारी, समझ-बूझ, चेतना, सूचना)

दुश्मनी पेड़ पर नहीं उगती
ये समर दोस्ती से मिलता है

(समर=फल)

यूँ तो मिलने को लोग मिलते हैं
दिल मगर कम किसी से मिलता है

'बद्र' आप और ख़याल भी उस का
साया कब रौशनी से मिलता है

-साबिर बद्र जाफ़री

Wednesday, May 29, 2019

मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है

मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है
कि मेरे दोस्त का दुश्मन, मिरी अमान में है

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठा), (अमान = सुरक्षा, पनाह, निर्भरता, हिफ़ाज़त)

तुम्हारा नाम लिया था कभी, मुहब्बत से
मिठास उसकी अभी तक, मिरी ज़बान में है

तुम आ के लौट गए, फिर भी हो यहीँ मौजूद
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू, मिरे मकान में है

है जिस्म सख़्त मगर दिल बहुत ही नाज़ुक है
कि जैसे आईना महफ़ूज़ इक चट्टान में है

तुझे जो ज़ख़्म दे तू उस को फूल दे 'दाना'
यही उसूल-ए-वफ़ा तेरे ख़ानदान में है

-अब्बास दाना

Wednesday, May 22, 2019

क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं

क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं

(क़ुर्बतें = नज़दीकियाँ, सामीप्य)

कौन सी आँखों में मेरे ख़्वाब रौशन हैं अभी
किस की नींदें हैं जो मेरे रतजगों में क़ैद हैं

शहर आबादी से ख़ाली हो गए ख़ुश्बू से फूल
और कितनी ख़्वाहिशें हैं जो दिलों में क़ैद हैं

पाँव में रिश्तों की ज़ंजीरें हैं दिल में ख़ौफ़ की
ऐसा लगता है कि हम अपने घरों में क़ैद हैं

ये ज़मीं यूँही सिकुड़ती जाएगी और एक दिन
फैल जाएँगे जो तूफ़ाँ साहिलों में क़ैद हैं

(साहिल = किनारा)

इस जज़ीरे पर अज़ल से ख़ाक उड़ती है हवा
मंज़िलों के भेद फिर भी रास्तों में क़ैद हैं

(जज़ीरा = द्वीप, टापू), (अज़ल = सृष्टि का आरम्भ, अनादिकाल)

कौन ये पाताल से उभरा किनारे पर 'सलीम'
सर-फिरी मौजें अभी तक दायरों में क़ैद हैं

-सलीम कौसर

Thursday, May 16, 2019

जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम

जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम
बेदार हो गए किसी ख़्वाब-ए-गिराँ से हम

(बेदार = जागृत, जागना), (ख़्वाब-ए-गिराँ =  बड़ा सपना)

ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ तिरी निकहतों की ख़ैर
दामन झटक के निकले तिरे गुल्सिताँ से हम

(ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ = नयी बहार के नाज़-नख़रे ), (निकहतों = ख़ुशबुओं)

पिंदार-ए-आशिक़ी की अमानत है आह-ए-सर्द
ये तीर आज छोड़ रहे हैं कमाँ से हम

(पिंदार-ए-आशिक़ी = प्रेम का अभिमान या समझ)

आओ ग़ुबार-ए-राह में ढूँढें शमीम-ए-नाज़
आओ ख़बर बहार की पूछें ख़िज़ाँ से हम

(ग़ुबार-ए-राह = रास्ते की धूल का तूफ़ान), (शमीम-ए-नाज़ = प्यार की खुशबू), (ख़िज़ाँ = पतझड़)

आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ' के साथ
कैसे ज़मीं की बात कहें आसमाँ से हम

-अहमद नदीम क़ासमी

Tuesday, April 9, 2019

तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे

तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे
हम तो वो हैं तिरे चेहरे से दिखाई देंगे

हम को महसूस किया जाए है ख़ुश्बू की तरह
हम कोई शोर नहीं हैं जो सुनाई देंगे

फ़ैसला लिक्खा हुआ रक्खा है पहले से ख़िलाफ़
आप क्या साहब अदालत में सफ़ाई देंगे

पिछली सफ़ में ही सही, हैं तो इसी महफ़िल में
आप देखेंगे तो हम क्यूँ न दिखाई देंगे

(सफ़ = पंक्ति)

-वसीम बरेलवी

Monday, February 4, 2019

रात को जब याद आए तेरी ख़ुशबू-ए-क़बा
तेरे क़िस्से छेड़ते हैं रात की रानी से हम
-अब्बास ताबिश

(ख़ुशबू-ए-क़बा = कपड़ों की ख़ुशबू)

Sunday, February 3, 2019

वो कौन हैं फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते

वो कौन हैं फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते
सुनते हैं जो ख़ुशबू से मोहब्बत नहीं करते

तुम हो कि अभी शहर में मसरूफ़ बहुत हो
हम हैं कि अभी ज़िक्र-ए-शहादत नहीं करते

क़ुरआन का मफ़्हूम उन्हें कौन बताए
आँखों से जो चेहरों की तिलावत नहीं करते

(मफ़्हूम = मतलब, समझ, अभिप्राय), (तिलावत = प्रार्थना, जप)

साहिल से सुना करते हैं लहरों की कहानी
ये ठहरे हुए लोग बग़ावत नहीं करते

(साहिल = किनारा)

हम भी तिरे बेटे हैं ज़रा देख हमें भी
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से शिकायत नहीं करते

इस मौसम-ए-जम्हूर में वो गुल भी खिले हैं
जो साहिब-ए-आलम की हिमायत नहीं करते

(मौसम-ए-जम्हूर = लोकतंत्र, प्रजातंत्र का मौसम), (हिमायत = पक्षपात, तरफ़दारी)

हम बंदा-ए-नाचीज़ गुनहगार हैं लेकिन
वो भी तो ज़रा बारिश-ए-रहमत नहीं करते

(बारिश-ए-रहमत = आशीर्वाद/ कृपा की बारिश)

चेहरे हैं कि सौ रंग में होते हैं नुमायाँ
आईने मगर कोई सियासत नहीं करते

शबनम को भरोसा है बहुत बर्ग-ए-अमाँ पर
'ख़ुर्शीद' भी दानिस्ता क़यामत नहीं करते

(बर्ग-ए-अमाँ = सुरक्षा/ हिफ़ाज़त/ पनाह की पत्ती), (दानिस्ता = जान बूझ कर)

-खुर्शीद अकबर

Friday, February 1, 2019

ज़र्द पत्तों की है चाहत, रंग धानी चाहिये

ज़र्द पत्तों की है चाहत, रंग धानी चाहिये
हर नये किरदार को ताज़ा कहानी चाहिये

कब तलक बैठा रहूँ मैं अपनी ख़ामोशी लिए
अब मेरी तन्हाई से आवाज़ आनी चाहिए

सब गुलों के दोस्त हैं या ख़ुशबुओं के पहरेदार
किसको कांटो की यहाँ पर बागबानी चाहिए

तेरी यादों के सिवा कुछ भी नहीं इस ज़हन में
बेवजह ज़िंदा रखे वो शय भुलानी चाहिए

सोने चांदी की हों या फिर हों मुहब्बत की 'मलंग'
पाँव जो जकड़े वो ज़ंजीरें छुड़ानी चाहिए

- सुधीर बल्लेवार 'मलंग'

Wednesday, January 16, 2019

तुझ से ज़र्रा ज़र्रा रौशन
तेरी ख़ुशबू गुलशन गुलशन
-ख़ालिद मुबश्शिर

Saturday, November 12, 2016

बेक़रारी सी बेक़रारी है

बेक़रारी सी बेक़रारी है
वस्ल है और फ़िराक तारी है

जो गुज़ारी न जा सकी हमसे
हमने वो ज़िन्दगी गुज़ारी है

उस से कहियो के दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इन्तेज़ारी है

एक महक सम्त-ए-जाँ से आई थी
मैं ये समझा तेरी सवारी है

हादसों का हिसाब है अपना
वरना हर आन सबकी बारी है

बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मेरी नींद भी तुम्हारी है

निगेहबाँ क्या हुए के लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है

ख़ुश रहे तू के ज़िन्दगी अपनी
उम्र भर की उम्मीदवारी है

आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है

हिज्र हो या विसाल हो, कुछ हो
हम हैं और उसकी यादगारी है

-जॉन एलिया


Tuesday, November 8, 2016

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
और इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फ़ुरक़त हो

(फ़ुरक़त = जुदाई)

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो

किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो

-जाॅन एलिया

Saturday, November 5, 2016

झील का बस एक कतरा ले गया

झील का बस एक कतरा ले गया
क्या हुआ जो चैन दिल का ले गया

मुझसे जल्दी हारकर मेरा हरीफ़
जीतने का लुत्फ़ सारा ले गया

(हरीफ़ = प्रतिद्वन्दी)

एक उड़ती सी नज़र डाली थी बस
वो न जाने मुझसे क्या -क्या ले गया

देखते ही रह गये तूफान सब
खुशबुओं का लुत्फ़ झोंका ले गया

-हस्तीमल 'हस्ती'

Wednesday, June 29, 2016

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम
बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम

होने को रुशनास नयी उलझनों से हम
मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम

(रुशनास = परिचित)

बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम
अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो
वाकिफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम

जिनके परों पे सुबह की ख़ुशबू के रंग हैं
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम

कुछ तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों
तंग आ गए हैं रोज़ की, नज़दीकियों से हम

गुज़रें हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो
परदें हटाएँ, देखें उन्हें खिड़कियों से हम

जब भी कहा के - 'याद हमारी कहाँ उन्हें ?
पकड़े गए हैं ठीक तभी, हिचकियों से हम

-आलोक श्रीवास्तव

Friday, March 11, 2016

माना कि बाग़ की कोई हलचल नहीं हूँ मैं

माना कि बाग़ की कोई हलचल नहीं हूँ मैं
ज़ाहिर हर इक गुल में हूँ ओझल नहीं हूँ मैं

ख़ुशबू ही मैं भी बाँटता रहता हूँ हर घड़ी
है फ़र्क बस ये नाम से संदल नहीं हूँ मैं

ग़र शौक की है बात तो फिर और कुछ पहन
छिल जाएगा ये जिस्म कि मखमल नहीं हूँ मैं

झंकार हूँ मैं रूह से महसूस कीजिये
छूकर मुझे न देखिये पायल नहीं हूँ मैं

उसके खिलाये गुल थे उसी पे लुटा दिए
पागल मुझे न जानिये पागल नहीं हूँ मैं

'हस्ती' मुगालते में हैं ये सारे शहसवार
अपनी ख़ुदी के रथ पे हूँ पैदल नहीं हूँ मैं

-हस्तीमल 'हस्ती'

Saturday, January 23, 2016

याद

दश्त-ए-तन्हाई में, ऐ जान-ए-जहां, लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साये,
तेरे होंठों के सराब,
दश्त-ऐ-तन्हाई में,
दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक़ तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

(दश्त-ए-तन्हाई = एकांत का जंगल), (लरज़ाँ = काँपता हुआ, थरथराता हुआ)
(सराब = मृगतृष्णा), (ख़स-ओ-ख़ाक़ = सूखी घास और धूल), (समन = चमेली का फूल)

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से
तेरी सांस की आंच
अपनी ख़ुश्बू में सुलगती हुई
मद्धम मद्धम
दूर उफ़क़ पार चमकती हुई
क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

(क़ुर्बत = सामिप्य, नज़दीकीपन), (उफ़क़ = क्षितिज), (शबनम = ओस)

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहां रक्खा है
दिल के रुख़सार पे
इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है
गरचे है अभी सुबह-ए-फ़िराक
ढल गया हिज्र का दिन

आ भी गयी वस्ल कि रात

(रुख़सार = कपोल, गाल), (गरचे = यद्यपि), (सुबह-ए-फ़िराक = जुदाई की सुबह), (हिज्र = जुदाई, बिछोह), (वस्ल = मिलन)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Meesha Shafi

Iqbal Bano


Tina Sani

Friday, January 8, 2016

ज़िन्दगी होम कर दी गुलों के लिये
और तरसते रहे खुशबुओं के लिए

(गुलों = फूलों)

सबको अपने लिये रौशनी चाहिये
कोई जलता नहीं दूसरों के लिये

-हस्तीमल 'हस्ती'

Thursday, December 17, 2015

जो भी टूटा है वो टूटा है सँवरने के लिए

जो भी टूटा है वो टूटा है सँवरने के लिए
कौन रोता है तेरी याद में मरने के लिए

आँख नम होती है जब भी मैं समझ लेता हूँ
कोई खुशबू सी है तैयार बिखरने के लिए

तोड़ना चाहो जो वादे तो सबब मत ढूंढो
बेजुबानी भी बहुत होगी मुकरने के लिए

(सबब = कारण)

अबके पानी के बरसने का सबब तू जाने
रंग बरसे हैं तेरी मांग ही भरने के लिए

ज़िद पे आ जाऊँ तो खुद को भी डुबो देता हूँ
हौसला चाहिए दरिया में उतरने के लिए

तंग हाथों भी बहुत खर्च किया है खुद को
मेरी आदत है बहुत हद से गुजरने के लिए

‪-अस्तित्व अंकुर‬

Sunday, November 15, 2015

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ

मैंने सिर्फ उसूलों के बारे में सोचा भर था
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूँ

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ

मुझमें शायद थोड़ा सा आकाश कहीं पर होगा
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ

इसकी क़ीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूँ

खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूँ

-अशोक रावत