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Sunday, January 3, 2021

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है
ये जो मिरा वजूद है जाने कहाँ का है

क़िस्सा ये मुख़्तसर सफ़र-ए-रायगाँ का है 
हैं कश्तियाँ यक़ीं की समुंदर गुमाँ का है

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त), (सफ़र-ए-रायगाँ = व्यर्थ का सफ़र), (गुमाँ = गुमान, घमण्ड, अहँकार)

मौजूद हर जगह है ब-ज़ाहिर कहीं नहीं
हर सिम्त इक निशान किसी बेनिशाँ का है

धुंधले से कुछ नज़ारे उभरते हैं ख़्वाब में
खुलता नहीं है कौन-सा मंज़र कहाँ का है

दीवार-ओ-दर पे सब्ज़ा है और दिल है ज़र्द-ज़र्द
ये मौसम-ए-बहार ही मौसम ख़ज़ाँ का है

(सब्ज़ा = घास), (ख़ज़ाँ = पतझड़)

ह़ैराँ हूंँअपने लब पे तबस्सुम को देखकर
किरदार ये तो और किसी दास्ताँ का है

(तबस्सुम = मुस्कराहट)

दम तोड़ती ज़मीं का है ये आख़िरी बयान
होठों पे उसके नाम किसी आसमाँ का है

जाते हैं जिसमें लोग इबादत के वास्ते
सुनते हैं वो मकान किसी ला-मकाँ का है

(ला-मकाँ = ईश्वर, ख़ुदा)

आँसू को मेरे देखके बोली ये बेबसी
ये लफ़्ज़ तो ह़ुज़ूर हमारी ज़ुबाँ का है

- राजेश रेड्डी

Monday, May 11, 2020

आये ज़ुबाँ पे राज़-ए-मोहब्बत मुहाल है

आये ज़ुबाँ पे राज़-ए-मोहब्बत मुहाल है
तुमसे मुझे अजीज़ तुम्हारा ख़याल है

दिल था तेरे ख़्याल से पहले चमन चमन
अब भी रविश रविश है मगर पायमाल है

(रविश = बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग, गति, रंग-ढंग), (पायमाल = कुचला हुआ, दुर्दशाग्रस्त)

कम्बख़्त इस जूनून-ए-मोहब्बत को क्या करूँ
मेरा ख़याल है न तुम्हारा ख़याल है

-जिगर मुरादाबादी 

Thursday, May 7, 2020

वो जो ख़्वाब थे मेरे ज़हन में, न मैं कह सका न मैं लिख सका
के ज़बाँ मिली तो कटी हुई के कलम मिला तो बिका हुआ
-इक़बाल अशहर 

Sunday, October 20, 2019

खुलते-खुलते रह गई मेरी ज़ुबाँ
इक तमाशा होते-होते रह गया
- राजेश रेड्डी

Thursday, July 25, 2019

कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है
ग़रीब दिल पे अजब हसरतों का साया है
-अख़्तर सईद ख़ान

Wednesday, June 19, 2019

The nation talks in उर्दू, the people fight in उर्दू

The nation talks in उर्दू, the people fight in उर्दू
dear readers that is why, I write in उर्दू

ना हो जब heart in the chest फिर, tongue in the mouth क्यूँ?
to beautify this line, throw some light in उर्दू

there will be greater attraction in the style
कहें बर्राक़ के बदले जो, Snow White in उर्दू

(बर्राक़ = उज्ज्वल, श्वेत)

poetry की निशस्तें cultural show ही सही लेकिन
please ऐ साहिबान-ए-दिल, मुझे invite in उर्दू

(निशस्तें = सभाएँ, बैठकें, session)

there should be यक़ीनन, no मिलावट in the literature
therefore I never call, शब ko night in उर्दू

मेरी नज़्मों का इक volume है published उर्दू में
therefore I would like, a copy right in उर्दू

"फ़िगार" in this ग़ज़ल तेरी ज़बाँ उर्दू हो or English
मगर you have tied, क़ाफ़िआ क्या tight in उर्दू

-Dilavar "फ़िगार"



Monday, June 10, 2019

धुएँ से आसमाँ का रंग मैला होता जाता है
हरे जंगल बदलते जा रहे हैं कार-ख़ानों में

ज़बानों पर उलझते दोस्तों को कौन समझाए
मोहब्बत की ज़बाँ मुम्ताज़ है सारी ज़बानों में

(मुम्ताज़  = प्रतिष्ठित, मुख्य, विशिष्ट, खास)

-अहमद मुश्ताक़

Wednesday, May 29, 2019

मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है

मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है
कि मेरे दोस्त का दुश्मन, मिरी अमान में है

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठा), (अमान = सुरक्षा, पनाह, निर्भरता, हिफ़ाज़त)

तुम्हारा नाम लिया था कभी, मुहब्बत से
मिठास उसकी अभी तक, मिरी ज़बान में है

तुम आ के लौट गए, फिर भी हो यहीँ मौजूद
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू, मिरे मकान में है

है जिस्म सख़्त मगर दिल बहुत ही नाज़ुक है
कि जैसे आईना महफ़ूज़ इक चट्टान में है

तुझे जो ज़ख़्म दे तू उस को फूल दे 'दाना'
यही उसूल-ए-वफ़ा तेरे ख़ानदान में है

-अब्बास दाना

Sunday, April 21, 2019

रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो

रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो
रस्ता है धूप का कोई दीवार ले चलो

(रख़्त-ए-सफ़र = यात्रा का सामान)

ताक़त नहीं ज़बाँ में तो लिख ही लो दिल की बात
कोई तो साथ सूरत-ए-इज़हार ले चलो

(सूरत-ए-इज़हार = अभिव्यक्ति का रास्ता/ मार्ग)

देखूँ तो वो बदल के भला कैसा हो गया
मुझ को भी उस के सामने इस बार ले चलो

कब तक नदी की तह में उतारोगे कश्तियाँ
अब के तो हाथ में कोई पतवार ले चलो

पड़ती हैं दिल पे ग़म की अगर सिलवटें तो क्या
चेहरे पे तो ख़ुशी के कुछ आसार ले चलो

जितने भँवर कहोगे पहन लूँगा जिस्म पर
इक बार तो नदी के मुझे पार ले चलो

कुछ भी नहीं अगर तो हथेली पे जाँ सही
तोहफ़ा कोई तो उस के लिए यार ले चलो

-अदीम हाशमी

Monday, January 28, 2019

यूँ रह जहान में कि पस-ए-मर्ग ऐ 'सबा'
रह जाए ज़िक्र-ए-ख़ैर हर इक की ज़बान पर
-नामालूम

(पस-ए-मर्ग = मृत्यु के बाद), (ज़िक्र-ए-ख़ैर = स्मरणोत्सव, स्मारक समारोह)

Friday, January 18, 2019

ज़बान चलने लगी, लब-कुशाई करने लगे
नसीब बिगड़ा तो, गूंगे बुराई करने लगे

हमारे क़द के बराबर न आ सके जो लोग
हमारे पाँव के नीचे खुदाई करने लगे

-विजय तिवारी

(लब-कुशाई = होंठ खुलना)

Wednesday, July 25, 2018

निकले अगर तो पहुँचे इक पल में ला-मकाँ तक

निकले अगर तो पहुँचे इक पल में ला-मकाँ तक
कुछ बात है कि नाला आता नहीं ज़ुबाँ तक

जब शहर ए दोस्ताँ ही समझे नहीं ज़ुबाँ तक
फाड़ें गला हम अपना बे फ़ायदा कहाँ तक

आख़िर को नीम जां का क़िस्सा तमाम शुद है
मुज़दा ये ले के जाओ तुम मेरे मेहरबाँ तक

दिल अपना खिल न पाया बाद अज़ ख़िज़ां भी क्यूंकर
वैसे बहार आई तो होगी गुलसिताँ तक

आ तो गए हैं याँ तकजाएँ किधर को यारब
नक़्श ए क़दम का हम कुछ पाते नहीं निशाँ तक

पूछे जो नाम उनकाबाबरतो क्या कहें हम
ऐसा छुपा है दिल में आता नहीं ज़ुबाँ तक

-बाबर इमाम

Friday, August 4, 2017

जो दिल पे असर करती ऐसी हो फ़ुग़ाँ कोई

जो दिल पे असर करती ऐसी हो फ़ुग़ाँ कोई
वो दर्द कहाँ ढूंढे है दर्द कहाँ कोई

(फ़ुग़ाँ = आर्तनाद, दुहाई)

ख़ामोश ही रह कर मैं कह डालूंगा अफ़साना
हालात बयां कर दे ऐसी है ज़ुबाँ कोई

अब तक जो गुज़ारी है किस तरह भुलाऊं मैं
मेरी ये कहानी है किरदार रवां कोई

चुपचाप ही मर जाऊँ या दिल की सदा कह दूँ
इस दिल की सदा सुन ले ऐसा है यहाँ कोई

'अरमान' सुलगते दिन सुलगी हैं सभी रातें
मिल जाए क़रार-ए-दिल ऐसा हो समाँ कोई

-अश्वनी त्यागी 'अरमान'

Wednesday, January 25, 2017

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई
जो दिल पे असर करती ऐसी हो फुग़ाँ कोई

(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन), (सोज़-ए-निहाँ = अंदर की आग)

इक रोज़ मुक़र्रर है जाने के लिए सबका
सुनते हैं सितारों से आगे है जहाँ कोई

क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा पे टालो हो मुलाक़ातें
ले जाये क़ज़ा किस दिन जाने है कहाँ कोई

(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा), (क़ज़ा = मौत)

ढूंढें भी कहाँ तुम को, किस ठौर ठिकाना है
छोड़े हैं कहाँ तुमने क़दमों के निशाँ कोई

करते हो यक़ीं इतना हर बात पे क्यूँ सबकी
मुकरे न कहे से जो ऐसी है ज़ुबां कोई

उस बज़्म-ए-सुख़न में क्यूँ कहते हो ग़ज़ल अय दिल
है दाद नहीं मिलती अपनों से जहाँ कोई

मत पूछ मेरा मज़हब सज्दे में ही रहता हूँ
नाक़ूस बजे चाहे होती हो अज़ाँ कोई

(नाक़ूस = शंख जो फूंक कर बजाया जाता है)

-स्मृति रॉय

Tuesday, May 31, 2016

तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया

तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया
तेरी गली की तरफ़ कोई रास्ता न गया

तेरे ख़याल ने पहना शफ़क का पैराहन
मेरी निगाह से रंगों का सिलसिला न गया

(शफ़क = सुबह या शाम को आसमान की लाली), (पैराहन = वस्त्र)

बड़ा अजीब है अफ़साना-ए-मुहब्बत भी
ज़बाँ से क्या ये निगाहों से भी कहा न गया

उभर रहे हैं फ़ज़ाओं में सुब्ह के आसार
ये और बात मेरे दिल का डूबना न गया

खुले दरीचों से आया न एक झोंका भी
घुटन बढ़ी तो हवाओं से दोस्ताना गया

किसी के हिज्र से आगे बढ़ी न उम्र मेरी
वो रात बीत गई 'नक्श़' रतजगा न गया

(हिज्र = जुदाई, बिछोह)

-नक़्श लायलपुरी

Monday, May 30, 2016

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है

तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है

देख के आहनगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन

(आहनगर = लोहार), (तुंद = तेज़, भीषण), (आहन = लोहा)

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने
फैला हर इक ज़न्जीर का दामन

(क़ुफ़्लों = तालों), (दहाने = मुँह, छेद)

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Tina Sani



Shabana Azmi 



Fariha Pervez


Wednesday, February 24, 2016

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे
अब रंग ही वो शेर-ओ-अदब के नहीं रहे

(सेह्र = जादू), (आरिज़-ओ-लब = गाल और होंट)

बाक़ी नहीं है हिज्र के नग़मों में वो कसक
वो ज़मज़मे भी वस्ल की शब के नहीं रहे

(हिज्र = जुदाई, वियोग), (ज़मज़मे = गीत), (वस्ल = मिलन), (शब = रात)

वहशत में कोई ख़ाक उड़ाये भी क्यूँ भला
जब मसअले ही तर्क-ओ-तलब के नहीं रहे

(तर्क-ओ-तलब = त्याग और माँग/ इच्छा)

ऐश-ओ-तरब की शर्त पे ज़िंदा हैं राबिते
रिश्ते कहीं भी दर्द-ओ-तअब के नहीं रहे

(ऐश-ओ-तरब = भोगविलास और आनंद), (राबिते = मेल-जोल, सम्बन्ध), (दर्द-ओ-तअब = दर्द और तकलीफ़)

ताबीर किस को ढूँढने आई है अब यहाँ
आँखों के सारे ख़्वाब तो कब के नहीं रहे

(ताबीर = स्वप्नकाल बताना, स्वप्न का फल)

ऐ शहरे-बदहवास ! मैं तन्हा नहीं उदास
अब चैन और क़रार तो सब के नहीं रहे

मेरी ज़बां तराश के 'आलम' वो खुश है यूँ
इम्कान् जैसे शोर-ओ-शग़ब के नहीं रहे

(इम्कान् = सम्भावना, सामर्थ्य), (शोर-ओ-शग़ब = कोलाहल, शोरगुल)

- आलम खुर्शीद

Monday, February 8, 2016

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां)

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

(अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

(बीनाई = आँखों की दृष्टि)

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता


-निदा फ़ाज़ली





Monday, December 21, 2015

रिश्तों के तक़द्दुस की तिजारत नहीं की है

रिश्तों के तक़द्दुस की तिजारत नहीं की है
हमने कभी चाहत में सियासत नहीं की है

(तक़द्दुस = पवित्रता, महत्ता), (तिजारत = व्यापार, सौदागरी), (सियासत = राजनीति, छल-फ़रेब, मक्कारी)

हमसे तो इसी बात पे नाराज़ हैं कुछ लोग
हमने कभी झूठों की हिमायत नहीं की है

वो फूल की अज़मत को भला खाक़ समझता
जिसने कभी बच्चों से मुहब्बत नहीं की है

(अज़मत = महानता)

जिस घर में बुजुर्गों को उठानी पडे ज़िल्लत
उस घर पे ख़ुदा ने कभी रहमत नहीं की है

(ज़िल्लत = तिरस्कार, अपमान, अनादर)

जो बात हक़ीक़त थी कही सामने उसके
हमने तो किसी शख़्स की ग़ीबत नहीं की है

(ग़ीबत = चुग़ली)

उन लोगों ने खुद अपनी ज़बां काट के रख दी
जिन लोगों ने हक़गोई की हिम्मत नहीं की है

(हक़गोई = सच्ची बात कहना, सत्यवादिता)

हम इश्क़ का दस्तूर समझते हैं हमेशा
ये सोच के इसमें कोई बीदात नहीं की है

(बीदात = नयी बातें)

इक पल में ये माहौल बदल सकता है लेकिन
हम लोगों ने खुल कर कभी हिम्मत नहीं की है

बेजा है 'वसीम' अपनों की हमसे ये शिकायत
हमने कभी दुश्मन से भी नफ़रत नहीं की है

-वसीम मलिक, सूरत

Sunday, December 20, 2015

चिराग़-ए-दिल बुझाना चाहता था

चिराग़-ए-दिल बुझाना चाहता था
वो मुझको भूल जाना चाहता था

मुझे वो छोड़ जाना चाहता था
मगर कोई बहाना चाहता था

सफ़ेदी आ गई बालों पे उसके
वो बाइज़्ज़त घराना चाहता था

उसे नफ़रत थी अपने आपसे भी
मगर उसको ज़माना चाहता था

तमन्ना दिल की जानिब बढ़ रही थी
परिन्दा आशियाना चाहता था

बहुत ज़ख्मी थे उसके होंठ लेकिन
वो बच्चा मुस्कुराना चाहता था

ज़बाँ ख़ामोश थी उसकी मगर वो
मुझे वापस बुलाना चाहता था

जहाँ पर कारख़ाने लग गए हैं
मैं एक बस्ती बसाना चाहता था

उधर क़िस्मत में वीरानी लिखी थी
इधर मैं घर बसाना चाहता था

वो सब कुछ याद रखना चाहता था
मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था
-मुनव्वर राना