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Thursday, November 19, 2020

इसके ज़्यादा उसके कम

इसके ज़्यादा उसके कम
सबके अपने अपने ग़म।

ज़ख़्म उसी ने बख़्शे हैं
जिसको बख़्शा था मरहम।

जो लिक्खा है वो होगा
पन्ना पहनो या नीलम।

हाय, तबस्सुम चेहरे पर
फूल पे हो जैसे शबनम।

(तबस्सुम =  मुस्कराहट), (शबनम = ओस)

साँसों तक का झगड़ा फिर
कैसी ख़ुशियाँ, क्या मातम।

सुब्ह तलक जो जलना था
रक्खी अपनी लौ मद्धम।

आँखें कितनी पागल हैं
अक्सर बरसीं बे-मौसम।

इक मौसम में बारिश के
यादों के कितने मौसम।

ख़्वाहिश अब तक ज़िंदा है
जिस्म पड़ा है पर बेदम।

- विकास वाहिद

Wednesday, September 23, 2020

नज़र जमी है तारों पर

नज़र जमी है तारों पर
चलना है अंगारों पर

ज़ख़्म दिए सब फूलों ने
तोहमत आई ख़ारों पर

(तोहमत=इल्ज़ाम), (ख़ार=काँटा)

घर, घरवालों ने लूटा
शक है पहरेदारों पर

गुम-सुम पँछी बैठे हैं
सब बिजली के तारों पर

सुर्ख़ लहू के फूल खिले
ज़ंग लगी तलवारों पर

"शाहिद" जितना ख़ून बहा
रंग चढ़ा अख़बारों पर

- शाहिद मीर


Friday, July 31, 2020

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं
लोग समझने लगते हैं हम गूँगे-बहरे हैं

होरी को क्या पता नहीं, उसकी बदहाली से
काले ग्रेनाइट पर कितने हर्फ़ सुनहरे हैं

धड़क नहीं पाता दिल मेरा तेरी धड़कन पर
मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारों के इतने पहरे हैं

पढ़-लिख कर मंत्री हो पाये, बिना पढ़े राजा
जाने कब से राजनीति के यही ककहरे हैं

निष्ठा को हर रोज़ परीक्षा देनी होती है
अविश्वास के घाव दिलों में इतने गहरे हैं

मैं रोया तो नहीं नम हुई हैं फिर भी आंखें
और किसी के आँसू इन पलकों पर ठहरे हैं

बौनो की आबादी में है कद पर पाबन्दी
उड़ने लायक सभी परिन्दो के पर कतरे हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, May 7, 2020

ज़ख्म खाकर मुस्कुराऊँ शर्त है सय्याद की
थक चुका हूँ मैं ये नज़राना अदा करते हुए

ऐ मेरे आज़ाद भाई बन गया हूँ मैं ग़ुलाम
तेरी आज़ादी का जुर्माना अदा करते हुए

-इक़बाल अशहर

(सय्याद = शिकारी)

Thursday, April 16, 2020

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ

(ब-ज़ाहिर = प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से)

अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
ज़ख़्म यादों से धोना चाहता हूँ

वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ

कभी अपने ही दिल की रहगुज़र में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ

नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।

गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।

भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ

नये हों रास्ते मंज़िल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।

'अमित' अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Wednesday, March 25, 2020

रफ़्तार करो कम, के बचेंगे तो मिलेंगे।

रफ़्तार करो कम, के बचेंगे तो मिलेंगे
गुलशन ना रहेगा तो, कहाँ फूल खिलेंगे।

वीरानगी में रह के, ख़ुद से भी मिलेंगे
रह जायें सलामत तो, गुल ख़ुशियों के खिलेंगे।

अब वक़्त आ गया है, कायनात का सोचो
ये रूठ गयी गर, तो ये मौके न मिलेंगे।

जो हो रहा है समझो, क्यों हो रहा है ये
क़ुदरत के बदन को, और कितना ही छीलेंगे।

मौका है अभी देख लो, फिर देर न हो जाए
जो कुदरत को दिए ज़ख़्म, वो हम कैसे सिलेंगे।

है कोई तो जिसने, जहाँ हिला के रख दिया
लगता था कि हमारे बिन, पत्ते न हिलेंगे।

झांको दिलों के अंदर, क्या करना है सोचो
ख़ाक़ में वरना हम, सभी जाके मिलेंगे।

-नामालूम

https://www.youtube.com/watch?v=mmoBj2Fc1tM


Monday, November 25, 2019

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है
जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है

सबूत है मेरे घर में धुएं के ये धब्बे
कभी यहाँ पे उजालों ने ख़ुदकुशी की है

ना लड़खडायाँ कभी और कभी ना बहका हूँ 
मुझे पिलाने में  फिर तुमने क्यूँ कमी की है

कभी भी वक़्त ने उनको नहीं मुआफ़ किया
जिन्होंने दुखियों के अश्कों से दिल्लगी की है

(अश्कों = आँसुओं)

किसी के ज़ख़्म को मरहम दिया है गर तूने
समझ ले तूने ख़ुदा की ही बंदगी की है

-गोपालदास नीरज

Monday, July 22, 2019

दर्द आराम बना ज़ख़्म  सीना आया
कितनी मुश्किल से हमें चैन से जीना आया
-शकील आज़मी

Wednesday, June 5, 2019

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
फ़िशार-ए-जाँ का समुंदर वो पार कर भी गया

(मरहला-ए-दर्द = दर्द का पड़ाव/ ठिकाना/ मंज़िल), (फ़िशार-ए-जाँ = जीवन की चिंता)

ख़जिल बहुत हूँ कि आवारगी भी ढब से न की
मैं दर-ब-दर तो गया लेकिन अपने घर भी गया

(ख़जिल = असमंजस में, शर्मिंदा)

ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया

गुज़रते वक़्त की सूरत हुआ न बेगाना
अगर किसी ने पुकारा तो मैं ठहर भी गया

-साबिर ज़फ़र

Friday, May 31, 2019

अक्स थे आवाज़ थी लेकिन कोई चेहरा न था

अक्स थे आवाज़ थी लेकिन कोई चेहरा न था
नाचते गाते क़दम थे और कोई पहरा न था

हादसों की मार से टूटे मगर ज़िंदा रहे
ज़िंदगी जो ज़ख़्म भी तू ने दिया गहरा न था

ख़्वाब की मानिंद गुज़रीं कैसी कैसी सूरतें
दिल के वीराने में कोई अक्स भी ठहरा न था

आग की बारिश हुई मंज़र झुलस कर रह गए
शाम के साए में कोई गूँजता लहरा न था

-खलील तनवीर

Wednesday, May 29, 2019

मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है

मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है
कि मेरे दोस्त का दुश्मन, मिरी अमान में है

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठा), (अमान = सुरक्षा, पनाह, निर्भरता, हिफ़ाज़त)

तुम्हारा नाम लिया था कभी, मुहब्बत से
मिठास उसकी अभी तक, मिरी ज़बान में है

तुम आ के लौट गए, फिर भी हो यहीँ मौजूद
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू, मिरे मकान में है

है जिस्म सख़्त मगर दिल बहुत ही नाज़ुक है
कि जैसे आईना महफ़ूज़ इक चट्टान में है

तुझे जो ज़ख़्म दे तू उस को फूल दे 'दाना'
यही उसूल-ए-वफ़ा तेरे ख़ानदान में है

-अब्बास दाना

Thursday, March 14, 2019

ये बारे ग़म उठा कर देखते हैं

ये बारे ग़म उठा कर देखते हैं
तुम्हें भी आज़मा कर देखते हैं।

(बारे ग़म = ग़म का बोझ)

बड़ा है ज़ोम इस पागल हवा को
दिये हम भी जला कर देखते हैं।

(ज़ोम = घमंड)

है मुमकिन ज़िन्दगी आए समझ अब
दोबारा सर खपा कर देखते हैं।

हमारे ज़ख़्म का क्या हाल है वो
गले हमको लगा कर देखते हैं।

यकीं दुनिया पे फिर होने लगा है
चलो फ़िर चोट खा कर देखते हैं।

पिघलती ही नहीं अश्क़ों से दुनिया
ज़रा सा मुस्कुरा कर देखते हैं।

मुख़ालिफ़ इश्क़ के तुम हो जो "वाहिद"
तुम्हारी नस दबा कर देखते हैं।

(मुख़ालिफ़ = विरोधी)

-विकास"वाहिद"
१४/०३/१९

Wednesday, February 20, 2019

बदन को ज़ख़्म करें ख़ाक को लबादा करें

बदन को ज़ख़्म करें ख़ाक को लबादा करें
जुनूँ की भूली हुई रस्म का इआदा करें

(इआदा = दोहराना, पुनरावृत्ति)

तमाम अगले ज़मानों को ये इजाज़त है
हमारे अहद-ए-गुज़िश्ता से इस्तिफ़ादा करें

(अहद-ए-गुज़िश्ता = बीती हुई उम्र, भूतकाल), (इस्तिफ़ादा = लाभ उठायें)

उन्हें अगर मिरी वहशत को आज़माना है
ज़मीं को सख़्त करें दश्त को कुशादा करें

(दश्त = जंगल), (कुशादा = खुला हुआ, फैला हुआ)

चलो लहू भी चराग़ों की नज़्र कर देंगे
ये शर्त है कि वो फिर रौशनी ज़ियादा करें

सुना है सच्ची हो नीयत तो राह खुलती है
चलो सफ़र न करें कम से कम इरादा करें

-मंज़ूर हाशमी

Friday, August 4, 2017

ख़्वाब देखो, कोई ख़्वाहिश तो करो

ख़्वाब देखो, कोई ख़्वाहिश तो करो
जीना आसान है, कोशिश तो करो

आज भी प्यार है दुनिया में बहुत
जोड़कर हाथ गुज़ारिश तो करो

जंग ये जीती भी जा सकती है
ज़िंदगी से कोई साज़िश तो करो

सब्ज़-ओ-गुल हैं इसी ख़ाक तले
बनके बादल कभी बारिश तो करो

लोग मरहम भी लगायेंगे 'शकील'
पहले ज़ख़्मों की नुमाइश तो करो

-शकील आज़मी

Thursday, April 13, 2017

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

(सहरा = रेगिस्तान, जंगल, बयाबान, वीराना, विस्तार)

तेरे पहलू से जो उठ्ठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख़्स को पाऊँगा जिधर जाऊँगा

अब तिरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

(साया-ए-अब्र = बादल की परछाई)

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वर्ना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मिरा मेआर कि मैं
ज़ख़्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

(चारासाज़ों = चिकित्सकों), (मेआर = मानदंड)

अब तो ख़ुर्शीद को गुज़रे हुए सदियाँ गुज़रीं
अब उसे ढूँढने मैं ता-ब-सहर जाऊँगा

(ख़ुर्शीद = सूरज), (ता-ब-सहर = सुबह तक)

ज़िंदगी शम्अ' की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
बुझ तो जाऊँगा मगर सुब्ह तो कर जाऊँगा

-अहमद नदीम क़ासमी

Tuesday, November 15, 2016

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए
तिरा वजूद है लाज़िम मिरी ग़ज़ल के लिए

कहाँ से ढूँढ के लाऊँ चराग़ सा वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कँवल कँवल के लिए

ये कैसा तजुर्बा मुझको हुआ है आज की रात
बचा के धड़कने रख ली हैं मैंने कल के लिए

किसी किसी के नसीबों में इश्क़ लिख्खा है
हर इक दिमाग़ भला कब है इस ख़लल के लिए

हुई न जुरअत-ए-गुफ़्तार तो सबब ये था
मिले न लफ़्ज़ तिरे हुस्न-ए-बे-बदल के लिए

(जुरअत-ए-गुफ़्तार = बात करने की हिम्मत), (सबब = कारण), ( हुस्न-ए-बे-बदल = अद्वितीय सौन्दर्य)

सदा जिये ये मिरा शहर-ए-बे-मिसाल जहाँ
हज़ार झोंपड़े गिरते हैं इक महल के लिए

'क़तील' ज़ख़्म सहूँ और मुस्कुराता रहूँ
बने हैं दायरे क्या क्या मिरे अमल के लिए

(अमल = आचरण, कार्य)

-क़तील शिफ़ाई




Thursday, October 20, 2016

ढूँढता फिरता हूँ ख़ुद अपनी बसारत की हुदूद
खो गई हैं मिरी नज़रें मिरी बिनाई में

(बसारत = देखने की शक्ति, दृष्टि), (हुदूद = हदें), (बिनाई = आँखों की ज़्योति)

किस ने देखे हैं तिरी रूह के रिसते हुए ज़ख़्म
कौन उतरा है तिरे क़ल्ब की गहराई में
-रईस अमरोहवी

(क़ल्ब = मर्मस्थल, ह्रदय, दिल)

Thursday, October 6, 2016

तिशनगी जिसकी सराबों पे भरोसा न करे

तिशनगी जिसकी सराबों पे भरोसा न करे
घर में बैठा रहे सहराओं में जाया न करे

(तिशनगी = प्यास), (सराबों = मृगतृष्णाओं), (सहराओं = रेगिस्तानों)

यूँ मेरे माज़ी के ज़ख़्मों को कुरेदा न करे
भूल बैठा है तो फिर याद भी आया न करे

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)

दिल से जाना है ख़ुशी को तो चली ही जाये
रोज़ घर छोड़ के जाने का तमाशा न करे

ज़िन्दगी बख़्शेगी मर जाने के बेहतर मौक़े
उससे कहिए अभी मरने का इरादा न करे

खुल के हंसता भी नहीं टूट के रोता भी नहीं
दिल वो काहिल जो कोई काम भी पूरा न करे

चाह जीने की नहीं हौसला मरने का नहीं
हाल ऐसा भी ख़ुदा और किसी का न करे

इतनी सी बात पे वो रूठ गया है फिर से
मैंने बस इतना कहा था कि वो रूठा न करे

दिल को समझाये कोई चार ही दिन की तो है बात
रंज जीने का अब इतना भी ज़्यादा न करे

- राजेश रेड्डी

Wednesday, April 27, 2016

हर किसी को यहाँ मेहमाँ नहीं करते प्यारे

हर किसी को यहाँ मेहमाँ नहीं करते प्यारे
दिल की बस्ती को बियाबां नहीं करते प्यारे

भूल जाओ कि यहाँ कोई कभी रहता था
दीद-ओ-दिल को परेशाँ नहीं करते प्यारे

(दीदा-ओ-दिल = आँखें और दिल)

तुम से देखी नहीं जाती हैं छलकती आँखें
तुम किसी पर कोई एहसाँ नहीं करते प्यारे

कुछ तकल्लुफ़ भी ज़रूरी है ज़माने के लिए
खुद को सब के लिए आसाँ नहीं करते प्यारे

काम आते हैं अँधेरे में दिये भी अक्सर
हर जगह दिल को फ़रोज़ाँ नहीं करते प्यारे

(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन)

लोग हाथों में नमकदान लिए फिरते हैं
अपने ज़ख्मों को नुमायाँ नहीं करते प्यारे

ज़िन्दगी ख़्वाबे-मुसलसल का सफ़र है 'आलम'
खुद को ख्वाबों से गुरेज़ाँ नहीं करते प्यारे

(गुरेज़ाँ = भागना, बचकर निकलना)

-आलम खुर्शीद

Wednesday, February 24, 2016

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में

जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में

उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में

हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में

क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में

वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में

कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में

(चारागर = चिकित्सक)

हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता 'आलम'
किस को अच्छा लगता है मर जाने में

- आलम खुर्शीद