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Thursday, November 19, 2020

इसके ज़्यादा उसके कम

इसके ज़्यादा उसके कम
सबके अपने अपने ग़म।

ज़ख़्म उसी ने बख़्शे हैं
जिसको बख़्शा था मरहम।

जो लिक्खा है वो होगा
पन्ना पहनो या नीलम।

हाय, तबस्सुम चेहरे पर
फूल पे हो जैसे शबनम।

(तबस्सुम =  मुस्कराहट), (शबनम = ओस)

साँसों तक का झगड़ा फिर
कैसी ख़ुशियाँ, क्या मातम।

सुब्ह तलक जो जलना था
रक्खी अपनी लौ मद्धम।

आँखें कितनी पागल हैं
अक्सर बरसीं बे-मौसम।

इक मौसम में बारिश के
यादों के कितने मौसम।

ख़्वाहिश अब तक ज़िंदा है
जिस्म पड़ा है पर बेदम।

- विकास वाहिद

Friday, July 31, 2020

एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं
जिस तरह सीप के सीने गुहर होता है
जिस तरह रात के रानी की महक होती है
जिस तरह साँझ की वंशी का असर होता है

जिस तरह उठता है आकाश में इक इंद्रधनुष
जैसे पीपल के तले कोई दिया जलता है
जैसे मंदिर में कहीं दूर घंटियाँ बजतीं
जिस तरह भोर के पोखर में कमल खिलता है

जिस तरह खुलता हो सन्दूक पुराना कोई
जिस तरह उसमें से ख़त कोई पुराना निकले
जैसे खुल जाय कोई चैट की खिड़की फिर से
ख़ुद-बख़ुद जैसे कोई मुँह से तराना निकले

जैसे खँडहर में बची रह गयी बुनियादें हैं
एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Wednesday, April 22, 2020

कितना सुख है निज अर्पन में

जाने कितने जन्मों का
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।

खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा
कर जाने कब सिंधु समायी ।

सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।

मिलने की बेला जब आयी
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।

पतझर में बेमौसम बारिश
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।

थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था,
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे
भावों का अहसास तरल था ।

है आनंद पराजय में अब
कितना सुख है निज अर्पन में ।।

-मानोशी 

Saturday, December 7, 2019

पलकों पे बरसात सम्हाले बैठे हैं

पलकों पे बरसात सम्हाले बैठे हैं
हम अपने जज़्बात सम्हाले बैठे हैं।

ख़्वाबों में तेरे आने की ख़्वाहिश में
मुद्दत से इक रात सम्हाले बैठे हैं।

और हमें क्या काम बचा है फ़ुरक़त में
क़ुर्बत के लम्हात सम्हाले बैठे हैं।

(फ़ुरक़त = विरह), (क़ुर्बत = नज़दीकी)

हमको डर है बस तेरी रुसवाई का
इस ख़ातिर हर बात सम्हाले बैठे हैं।

(रुसवाई = बदनामी)

शहरों में ले आया हमको रिज़्क़ मगर
भीतर हम देहात सम्हाले बैठे हैं।

(रिज़्क़ = आजीविका)

बच्चों के उजले मुस्तक़बिल की ख़ातिर
हम मुश्किल हालात सम्हाले बैठे हैं।

(मुस्तक़बिल = भविष्य)

हमने तो बस एक ख़ुशी ही मांगी थी
अब ग़म की इफ़रात सम्हाले बैठे हैं।

(इफ़रात = अधिकता, प्रचुरता)

वादे, धोखे, आंसू,आहें और जफ़ा
तेरी सब सौग़ात सम्हाले बैठे हैं।

(जफ़ा =अत्याचार, अन्याय)

 - विकास वाहिद २/१२/२०१९

Saturday, August 24, 2019

सिलसिला मेरे सफ़र का कभी टूटा ही नहीं

सिलसिला मेरे सफ़र का कभी टूटा ही नहीं
मैं किसी मोड़ पे दम लेने को ठहरा ही नहीं

ख़ुश्क होंटों के तसव्वुर से लरज़ने वालों
तुम ने तपता हुआ सहरा कभी देखा ही नहीं

(तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद), (सहरा = रेगिस्तान)

अब तो हर बात पे हँसने की तरह हँसता हूँ
ऐसा लगता है मिरा दिल कभी टूटा ही नहीं

मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं

(सहरा = रेगिस्तान)

ऐसी वीरानी थी दर पे कि सभी काँप गए
और किसी ने पस-ए-दीवार तो देखा ही नहीं

(पस-ए-दीवार = दीवार के पीछे)

मुझ से मिलती ही नहीं है कभी मिलने की तरह
ज़िंदगी से मिरा जैसे कोई रिश्ता ही नहीं

-सुल्तान अख़्तर

Thursday, July 4, 2019

बरसीं वहीं वहीं पे समंदर थे जिस जगह
ऊपर से हुक्म था तो घटाएँ भी क्या करें
-"सबा" अफ़ग़ानी

Wednesday, June 12, 2019

किसी शादी की महफ़िल में अचानक हो गई बारिश
धुले चेहरे, घुला मेकअप, हुआ उनका शबाब आधा
-ख़ुर्शीद अहमद

Friday, May 31, 2019

अक्स थे आवाज़ थी लेकिन कोई चेहरा न था

अक्स थे आवाज़ थी लेकिन कोई चेहरा न था
नाचते गाते क़दम थे और कोई पहरा न था

हादसों की मार से टूटे मगर ज़िंदा रहे
ज़िंदगी जो ज़ख़्म भी तू ने दिया गहरा न था

ख़्वाब की मानिंद गुज़रीं कैसी कैसी सूरतें
दिल के वीराने में कोई अक्स भी ठहरा न था

आग की बारिश हुई मंज़र झुलस कर रह गए
शाम के साए में कोई गूँजता लहरा न था

-खलील तनवीर

Wednesday, May 1, 2019

कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है

कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है

आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है

छुप के रोता हूँ तिरी याद में दुनिया भर से
कब मिरी आँख से बरसात नहीं होती है

हाल-ए-दिल पूछने वाले तिरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है

जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कि कैसे हो 'शकील'
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है

-शकील बदायुनी







Friday, April 26, 2019

कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली

कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली
कल तेरी जब बात से फिर बात निकली।

जुर्म तुझको याद करने का किया फिर
करवटें बदलीं कई तब रात निकली।

आज़मा के देख ली दुनिया भी हमने
ना कोई सौग़ात ना ख़ैरात निकली।

रंग निकला है शराफ़त का ही पहले
आदमी की अस्ल फिर औक़ात निकली।

जिस्म भीगा पर न भीगी रूह अब तक
इस बरस भी राएगां बरसात निकली।

(राएगां = व्यर्थ)

- विकास वाहिद
२५/४/१९

Thursday, January 24, 2019

रदीफ़ "और बस" पर चंद मुख़्तलिफ़ शोअरा के अशआर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ


मैं ने उसी से हाथ मिलाया था और बस 
वो शख़्स जो अज़ल से पराया था और बस

(अज़ल = सृष्टि के आरम्भ, अनादिकाल)

लम्बा सफ़र था आबला-पाई थी धूप थी
मैं था तुम्हारी याद का साया था और बस

(आबला-पाई = छाले भरे पैर)

-अरशद महमूद "अरशद"

मिलना न मिलना एक बहाना है और बस
तुम सच हो बाक़ी जो है फ़साना है और बस

सोए हुए तो जाग ही जाएँगे एक दिन
जो जागते हैं उन को जगाना है और बस

-सलीम "कौसर"

इतनी सी इस जहाँ की हक़ीक़त है और बस 
गुफ़्तार ज़ेर-ए-लब है समाअत है और बस

(गुफ़्तार = बातचीत), (ज़ेर-ए-लब = होंठों ही होंठों में), (समाअत = सुनना, सुनवाई)

इतने से जुर्म पर तो न मुझ को तबाह रख
थोड़ी सी मुझ में तेरी शबाहत है और बस

(शबाहत = एकरूपता, समता)

-हुसैन "सहर"

अब के ये बात ज़ेहन में ठानी है और बस 
हम ने तो अपनी जान बचानी है और बस

नुक़सान तो हमारा है कच्चे गिरेंगे हम
तुम ने तो एक शाख़ हिलानी है और बस

-अज़्बर "सफ़ीर"

बारिश थी और अब्र था दरिया था और बस 
जागी तो मेरे सामने सहरा था और बस

(अब्र =बादल), (सहरा = रेगिस्तान)

आया ही था ख़याल कि फिर धूप ढल गई
बादल तुम्हारी याद का बरसा था और बस

-सीमा "ग़ज़ल"

उम्र भर उस को रही इक सरगिरानी और बस 
वो तो कहिए थी हमारी सख़्त-जानी और बस

(सरगिरानी=चिंताओं और परेशानियों का बंडल)

-'अंजुम' उसमान


Courtesy Balvinder Singh Chhinna ji 

Thursday, January 17, 2019

अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की
-परवीन शाकिर

Saturday, December 22, 2018

मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें

आँखों में कोई चेहरा हो, हर गाम पे इक पहरा हो
जंगल से चले बस्ती में दुनिया को सँभलकर देखें

(गाम = कदम, पग)

सूरज की तपिश भी देखी, शोलों की कशिश भी देखी
अबके जो घटाएँ छाएँ बरसात में जलकर देखें

दो चार कदम हर रस्ता पहले की तरह लगता है
शायद कोई मंज़र बदले कुछ दूर तो चलकर देखें

अब वक़्त बचा है कितना जो और लड़ें दुनिया से
दुनिया की नसीहत पर भी थोड़ा-सा अमल कर देखें

-निदा फ़ाज़ली

Friday, December 21, 2018

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े

(संग-ए-लफ़्ज़ = शब्द का पत्थर), (गिरानी = भारीपन, बोझ), (शीशा = शराब की बोतल), (जू-ए-मआनी = अर्थों/ मतलबों/ Meanings की नदी)

प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

(दश्त = जंगल), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़
फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े

(रवानी  = बहाव, प्रवाह, धार)

होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े

'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े

(ख़ाना-ए-दिल = हृदय रुपी घर)

-इक़बाल साजिद

Monday, December 11, 2017

बात ज्यों कि त्यों खड़ी है क्या कहें, किससे कहें

बात ज्यों कि त्यों खड़ी है क्या कहें, किससे कहें
सबको बस अपनी पड़ी है, क्या कहें,किससे कहें

है तकाज़ा संतुलन का पर यहाँ तो हर जगह
आरज़ू कद से बड़ी है,क्या कहें, किससे कहें

अपशकुन आरंभ ही में हो गया है दोस्तों
बाकि पूरी इक लड़ी है क्या कहें, किससे कहें

प्यार का इक फूल था पर पास अपने अब फ़क़त
एक सूखी पंखुड़ी है, क्या कहें, किससे कहें

मुद्दतों से पक्ष दोनों मन से तो तैयार हैं
बस पहल पर ही अड़ी है, क्या कहें, किससे कहें

कूप तो पानी को तरसें और दरियाओं में रोज
मेघ कि लगती झड़ी है,क्या कहें, किससे कहें

- हस्तीमल हस्ती

Sunday, December 10, 2017

तू अगर अब्र है मैं अब्र में पानी की तरह
मैं तिरे साथ हूँ लफ़्ज़ों में मआनी की तरह
-नोमान इमाम

(अब्र = बादल)

Sunday, September 25, 2016

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता
टूटे भी जो तारा तो जमीं पर नहीं गिरता

गिरते हैं समंदर में बड़े शौक़ से दरिया
लेकिन किसी दरिया में समंदर नहीं गिरता

समझो वहां फलदार शजर कोई नहीं है
वह सेहन कि जिसमें कोई पत्थर नहीं गिरता

(शजर = पेड़)

इतना तो हुआ फ़ायदा बारिश की कमी का
इस शहर में अब कोई फिसल कर नहीं गिरता

इनआम के लालच में लिखे मद्ह किसी की
इतना तो कभी कोई सुख़नवर नहीं गिरता

(मद्ह = तारीफ़)

हैरां है कई रोज से ठहरा हुआ पानी
तालाब में अब क्यों कोई कंकर नही गिरता

इस बंदा-ए-खुद्दार पे नबियों का है साया
जो भूख में भी लुक्मा-ए-तर पर नहीं गिरता

(लुक्मा-ए-तर = अच्छा भोजन)

करना है जो सर म'अरका-ए-जीस्त तो सुन ले
बे-बाज़ू-ए-हैदर दर-ए-ख़ैबर नहीं गिरता

क़ायम है 'क़तील' अब यह मेरे सर के सुतूँ पर
भूचाल भी आए तो अब मेरा घर नहीं गिरता

(सुतूँ = खम्बा)

-क़तील शिफ़ाई

https://www.youtube.com/watch?v=bwAN7hh2VYY&feature=player_embedded

Saturday, July 2, 2016

मौसम की मनमानी है, आँखों आँखों पानी है

मौसम की मनमानी है
आँखों आँखों पानी है

साया साया लिख डालो
दुनिया धूप कहानी है

सब पर हँसते रहते हैं
फूलों की नादानी है

हाय ये दुनिया,हाय ये लोग
हाय,ये सब कुछ फ़ानी है

(फ़ानी = नश्वर, नष्ट हो जाने वाला)

साथ एक दरिया रख लेना
रस्ता रेगिस्तानी है

कितने सपने देख लिये
आँखों को हैरानी है

दिलवाले अब कम कम हैं
वैसे क़ौम पुरानी है

दुनिया क्या है मुझसे पूछ
मैंने दुनिया छानी है

बारिश,दरिया,सागर,ओस,
आँसू पहला पानी है

तुझको भूले बैंठे हैं
क्या ये कम क़ुर्बानी है

दरिया हमसे आँख मिला
देखें कितना पानी है

मौसम की मनमानी है
आँखों आँखों पानी है

-राहत इंदौरी

Saturday, January 30, 2016

पागल मन यूँ ही उदास है

पागल मन यूँ ही उदास है,
कितना सुन्दर आसपास है।

काले बादल के पीछे से
झाँक रही इक किरण सुनहरी,
सारे दिन की असह जलन के
बाद गरजती झमझम बदरी,
बरखा की बूंदाबांदी जब
चेहरे पर छींटे बिखराती,
भरी दुपहरी शीश नवा कर
धीरे से संध्या बन जाती,

छोटी-छोटी खुशियों में ही
पलता जीवन का उजास है ।

मन की गलियों शोर मचे जब
उच्चारण बस ओंकार का,
मंदिर में जब साथ झुकें सर,
होता विगलन अहंकार का,
काली मावस भी सज जाती
दीपो के गहनों से दुल्हन,
सुख-दुःख के छोटे पल मिलकर
बन जाता इक पूरा जीवन

जब मिल जाते एक साथ स्वर
मिलती जय तब अनायास है।

बादल का इक छोटा टुकड़ा
कठिन डगर में छाँव बिछा दे,
निर्जन राहो में जब सहसा
कोई आकर हाथ बढ़ा दे,
बिना कहे ही मीत समझ ले
अर्थ हृदय में छुपे भाव का,
हृदयो का बंधन ऐसा हो
जाड़े में जलते अलाव सा,
अपने ही अन्दर सुख होता,
दुःख इच्छाओं का लिबास है।

पागल मन यूं ही उदास है..

-मानोशी

Thursday, December 17, 2015

जान दे सकता है क्या साथ निभाने के लिए

जान दे सकता है क्या साथ निभाने के लिए
हौसला है तो बढ़ा हाथ मिलाने के लिए

ज़ख्मे-दिल इस लिए चेहरे पे सजा रखा है
कुछ तमाशा तो हो दुनिया को दिखाने के लिए

मैंने दीवार पे क्या लिख दिया खुद को इक दिन
बारिशें होने लगी मुझको मिटाने के लिए

इक झलक देख लें तुझको तो चले जाएंगें
कौन आया है यहां उम्र बिताने के लिए

फ़िल्म के परदे पे छपना कोई आसान नहीं
मरना पड़ता है यहाँ नाम कमाने के लिए

-शकील आज़मी