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Sunday, January 3, 2021

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है
ये जो मिरा वजूद है जाने कहाँ का है

क़िस्सा ये मुख़्तसर सफ़र-ए-रायगाँ का है 
हैं कश्तियाँ यक़ीं की समुंदर गुमाँ का है

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त), (सफ़र-ए-रायगाँ = व्यर्थ का सफ़र), (गुमाँ = गुमान, घमण्ड, अहँकार)

मौजूद हर जगह है ब-ज़ाहिर कहीं नहीं
हर सिम्त इक निशान किसी बेनिशाँ का है

धुंधले से कुछ नज़ारे उभरते हैं ख़्वाब में
खुलता नहीं है कौन-सा मंज़र कहाँ का है

दीवार-ओ-दर पे सब्ज़ा है और दिल है ज़र्द-ज़र्द
ये मौसम-ए-बहार ही मौसम ख़ज़ाँ का है

(सब्ज़ा = घास), (ख़ज़ाँ = पतझड़)

ह़ैराँ हूंँअपने लब पे तबस्सुम को देखकर
किरदार ये तो और किसी दास्ताँ का है

(तबस्सुम = मुस्कराहट)

दम तोड़ती ज़मीं का है ये आख़िरी बयान
होठों पे उसके नाम किसी आसमाँ का है

जाते हैं जिसमें लोग इबादत के वास्ते
सुनते हैं वो मकान किसी ला-मकाँ का है

(ला-मकाँ = ईश्वर, ख़ुदा)

आँसू को मेरे देखके बोली ये बेबसी
ये लफ़्ज़ तो ह़ुज़ूर हमारी ज़ुबाँ का है

- राजेश रेड्डी

Friday, May 8, 2020

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना
जो लिखना कभी तो मुहब्बत पे लिखना।

है ग़ाफ़िल बहुत ही यतीमों से दुनिया
लिखो तुम तो उनकी अज़ीयत पे लिखना।

(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (अज़ीयत = पीड़ा, अत्याचार, व्यथा, यातना, कष्ट, तक़लीफ़)

चले जब हवा नफ़रतों की वतन में
ज़रूरी बहुत है मुहब्बत पे लिखना।

हसीनों पे लिखना अगर हो ज़रूरी
तो सूरत नहीं उनकी सीरत पे लिखना।

अगर बात निकले लिखो अपने घर पे
इबादत बराबर है जन्नत पे लिखना।

सितम कौन समझा है इसके कभी भी
है मुश्किल ज़माने की फितरत पे लिखना।

अगर मुझपे लिखना पड़े बाद मेरे
तो चाहत पे लिखना अक़ीदत पे लिखना।

(अक़ीदत = श्रद्धा, आस्था, विश्वास)

-विकास वाहिद

Monday, October 24, 2016

ऐलान उसका देखिये, के वो मज़े में है
या तो कोई फ़क़ीर है, या फिर नशे में है
-पवन दीक्षित

Thursday, April 7, 2016

मैं कौन हूँ

पूछो अपने से -
मैं कौन हूँ  -
शरीर ?
न-न, यह नहीं हो सकता ।
अनवरत रूप से परिवर्तित हो रहा है यह ।
पिछले वर्ष जो मेरा शरीर था वह इस वर्ष नहीं है ।
जब बालक था मैं
तब मेरा शरीर वह नहीं था,
जो अब है ।
मेरा शरीर लगातार परिवर्तित हो रहा है
यह मेरा आंतरिक स्वभाव नहीं है ।
 
क्या मैं अपना मन हूँ ?
नहीं, मेरा आंतरिक स्वभाव मन नहीं हो सकता ।
क्योंकि यह भी लगातार बदल रहा है ।
एक क्षण यह रुष्ट हो जाता है,
दूसरे क्षण तुष्ट हो जाता है ।
मनःस्थितियाँ प्रति क्षण बदलती रहती हैं ।
मन भी मेरा वास्तविक स्वाभाव नहीं हो सकता ।

क्या मैं हिन्दू हूँ ? या मुसलमान ? या ईसाई ?
नहीं ये तो अधूरा परिचय देते हैं मेरा ।
इनको मेरे आंतरिक स्वभाव से कोई लेना-देना नहीं ।   

सतत् अपने से यह प्रश्न पूछो -
कौन हूँ मैं ?
मैं साक्षी हूँ ।
वैश्व-दृश्य प्रपंचों का साक्षी ।
मैं सत्ता हूँ -
अपरिवर्तनीय सत्ता ।
मैं चेतना हूँ ।
शुद्ध चेतना हूँ ।
मैं अविनाशी हूँ ।
मेरा स्वभाव है - 'होना' ।
मैं 'हूँ' ।

-नामालूम

Friday, May 8, 2015

दैर में हरम में गुज़रेगी
उम्र तेरे ही ग़म में गुज़रेगी
-फ़ानी बदायूनी

(दैर = मंदिर), (हरम = मस्जिद)

Thursday, December 19, 2013

देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैंने कैसे पार किया आसानी से

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से

हर कमरे से धूप हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है मनमानी से

अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से

दिल पागल है रोज़ पशीमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से

अपना फ़र्ज़ निभाना एक इबादत है
आलम, हम ने सीखा इक जापानी से
-आलम खुर्शीद

Saturday, April 6, 2013

नफ़स नफ़स है मुहब्बत किसी को क्या मालूम,
हयात ख़ुद है इबादत किसी को क्या मालूम ।
-कैफ़ भोपाली

(नफ़स नफ़स = साँस-साँस), (हयात = जीवन), (इबादत = ईश्वर की उपासना, पूजा)

Sunday, March 3, 2013

मेरे ख़ुदा मैं अपने ख़यालों को क्या करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों को क्या करूँ

चलना ही है मुझे मेरी मंज़िल है मीलों दूर
मुश्किल ये है कि पाँवों के छालों को क्या करूँ

दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्जिद को क्या करूँ मैं शिवालों को क्या करूँ

मैं जानता हूँ सोचना अब एक जुर्म है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों को क्या करूँ

जब दोस्तों की दोस्ती है सामने मेरे
दुनिया में दुश्मनी की मिसालों को क्या करूँ
-राजेश रेड्डी

Wednesday, February 27, 2013

कब तक यूँ बहारों में, पतझड़ का चलन होगा,
कलियों की चिता होगी, फूलों का हवन होगा ।

हर धर्म की रामायण युग-युग से ये कहती है,
सोने का हिरण लोगे, सीता का हरण होगा ।

जब प्यार किसी दिल का पूजा में बदल जाए,
हर साँस दुआ होगी हर शब्द भजन होगा ।

ग़म गम के अंधेरों से, मायूस हो न जाना,
हर रात की मुट्ठी में, सूरज का रतन होगा ।

-उदयभानु हंस




Tuesday, September 25, 2012

ठिकाना क़ब्र है तेरा , इबादत कुछ तो कर ग़ाफ़िल,
दस्तूर है के खाली हाथ किसी के घर नहीं जाते !
-शायर: नामालूम