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Wednesday, April 1, 2020

इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम हाए चलो हो

इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम हाए चलो हो
रोज़ एक ग़ज़ल हम से कहलवाए चलो हो

रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो

दीवाना-ए-गुल क़ैदी-ए-ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाट से गुलशन की हवा खाए चलो हो

(दीवाना-ए-गुल = फूलों का दीवाना)

मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो

ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मिरे प्यारे
ज़ुल्फ़ों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाए चलो हो

वो शोख़ सितमगर तो सितम ढाए चले है
तुम हो कि 'कलीम' अपनी ग़ज़ल गाए चलो हो

-कलीम आजिज़

Tuesday, June 11, 2019

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग
सूखे हुए दरख़्त से फल चाहते हैं लोग

(मुस्तफ़ा = पवित्र, निर्मल), (अमल = काम), (दरख़्त = पेड़ वृक्ष)

काफ़ी है जिन के वास्ते छोटा सा इक मकाँ
पूछे कोई तो शीश-महल चाहते हैं लोग

साए की माँगते हैं रिदा आफ़्ताब से
पत्थर से आइने का बदल चाहते हैं लोग

(रिदा = ओढ़ने की चादर), (आफ़्ताब = सूरज)

कब तक किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का तज़्किरा
कुछ अपनी उलझनों का भी हल चाहते हैं लोग

(ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ = बिखरी हुई ज़ुल्फें), (तज़्किरा = संवाद, बात-चीत)

बार-ए-ग़म-ए-हयात से शाने हुए हैं शल
उकता के ज़िंदगी से अजल चाहते हैं लोग

(बार-ए-ग़म-ए-हयात = ज़िन्दगी के दुखों का बोझ , (शाने = कंधे), (शल = सुन्न,  बेसुध, संवेदनाशून्य), (अजल  = मृत्यु)

रखते नहीं निगाह तक़ाज़ों पे वक़्त के
तालाब के बग़ैर कँवल चाहते हैं लोग

जिस को भी देखिए है वही दुश्मन-ए-सुकूँ
क्या दौर है कि जंग-ओ-जदल चाहते हैं लोग

(जंग-ओ-जदल = लड़ाई-झगड़ा)

दरकार है नजात ग़म-ए-रोज़गार से
मिर्रीख़ चाहते हैं न ज़ुहल चाहते हैं लोग

(नजात = छुटकारा), (मिर्रीख़ = मंगल ग्रह), (ज़ुहल = शनि ग्रह)

'एजाज़' अपने अहद का मैं तर्जुमान हूँ
मैं जानता हूँ जैसी ग़ज़ल चाहते हैं लोग

(अहद = समय, वक़्त, युग), (तर्जुमान  = दुभाषिया, व्याख्याता, व्याख्याकार)

-एजाज़ रहमानी

Tuesday, January 22, 2019

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए
तेरे दीवाने कम रह गए

(अहल-दैर-ओ-हरम  = मंदिर और मस्जिद वाले लोग)

मिट गए मंज़िलों के निशाँ
सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम रह गए

(नक़्श-ए-क़दम = पैरों के निशान, पदचिन्ह)

हम ने हर शय सँवारी मगर
उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म रह गए

बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
नाज़ उठाने को हम रह गए

रिंद जन्नत में जा भी चुके
वाइ'ज़-ए-मोहतरम रह गए

(रिंद = शराबी), (वाइज़ = धर्मोपदेशक)

देख कर तेरी तस्वीर को
आइना बन के हम रह गए

ऐ 'फ़ना' तेरी तक़दीर में
सारी दुनिया के ग़म रह गए

-फ़ना निज़ामी कानपुरी

Saturday, October 15, 2016

बिखरी हुई वो ज़ुल्फ़ इशारों में कह गई
मैं भी शरीक हूँ तिरे हाल-ए-तबाह में
-जलील मानिकपुरी

Monday, December 29, 2014

वो के हर अहद-ए-मुहब्बत से मुकरता जाए

वो के हर अहद-ए-मुहब्बत से  मुकरता जाए
दिल वो ज़ालिम के उसी शख़्स पे मरता जाये

(अहद-ए-मुहब्बत = प्यार में किये हुए वादे)

मेरे पहलू में वो आया भी तो ख़ुश्बू की तरह
मैं उसे जितना समेटूँ वो बिखरता जाये

खुलते जायें जो तेरे बंद-ए-कबा ज़ुल्फ़ के साथ
रंग-ए-पैराहन-ए-शब और निखरता जाये

(बंद-ए-कबा = कुर्ते, कमीज़ या चोली की गाँठ), (रंग-ए-पैराहन-ए-शब = रात के वस्त्रों का रंग)

इश्क़ की नर्म-निगाही से हिना हों रुख़सार
हुस्न वो हुस्न जो देखे से निखरता जाये

(रुख़सार = कपोल, गाल), (हिना हों रुख़सार = गालों पर लाली छा जाना)

क्यूँ न हम उसको दिल-ओ-जान से चाहें 'तश्ना'
वो जो इक दुश्मन-ए-जाँ प्यार भी करता जाये

-आलम ताब तश्ना


Sunday, November 16, 2014

भुला दो रंज की बातों में क्या है

भुला दो रंज की बातों में क्या है
इधर देखो मेरी आँखों में क्या है

(रंज = मनमुटाव, शत्रुता)

बहुत तारीक़ दिन है फिर भी देखो
उजाला चाँदनी रातों में क्या है

(तारीक़ = अँधेरा)

नहीं पाती जिसे बेदार नज़रें
ख़ुदाया ये मेरे ख़्वाबों में क्या है

(बेदार = जागृत)

ये क्या ढूँढे चली जाती है दुनिया
तमाशा सा गली कूचों में क्या है

है वहशत सी ये हर चेहरे पे कैसी
न जाने सहमा सा नज़रों में क्या है

ये इक है ज़ान सा दरिया में क्यों है
ये कुछ सामान सा मौजों में क्या है

हैज़ान = आवेश, तेज़ी, वेग)

ज़रा सा बल है इक ज़ुल्फ़ों का उसकी
वगरना ज़ोर ज़ंजीरों में क्या है

है ख़मयाज़े सुरूर-ए-आरज़ू के
निशात-ओ-ग़म कहो नामों में क्या है

(ख़मयाज़े = बुरे काम के परिणाम), (सुरूर-ए-आरज़ू = इच्छा/ अभिलाषा का नशा), (निशात-ओ-ग़म = सुख और दुःख)

तुम्हारी देर-आमेज़ी भी देखी
तक़ल्लुफ़ लखनऊ वालों में क्या है

(देर-आमेज़ी = विलम्ब से मिलना)

-शान-उल-हक़ हक़्की


                                                                रेशमा/ Reshma 


Thursday, October 23, 2014

मौज़ू-ए-सुखन

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात
और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी,
और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हाथ

(गुल हुई जाती है = बुझ रही है), (अफ़सुर्दा = उदास), (चश्म-ए-महताब = चन्द्रमा की आँख),
(मुश्ताक = उत्सुक, अभिलाषी), (मस = छूना, स्पर्श)


उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

(रुख़सार = कपोल, गाल), (पैराहन = लिबास), (मौहूम = भ्रामक, कल्पित), (आवेज़ा = कान का झुमका)


आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी
वो ही ख़्वाबिदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर
रंग-ए-रुख़सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर

(हुस्न-ए-दिलारा = मनमोहक सौंदर्य), (ख़्वाबिदा = स्वप्निल), (रंग-ए-रुख़सार = गालों का रंग), (गाज़ा = मुँह पर मलने वाला सुगन्धित रोगन), (संदली = चन्दन जैसा), (हिना = मेंहदी), (तहरीर = लेख, लिखावट)


अपने अफ़कार की अश'आर की दुनिया है यही
जान-ए-मज़मूं है यही, शाहिद-ए-माना है यही

(अफ़कार = फ़िक्र का बहुवचन, चिंताएँ),  (अश'आर = शेर का बहुवचन), (जान-ए-मज़मूं = विषय की जान), (शाहिद-ए-माना = अर्थों की सुंदरता)


आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साए के तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद पे क्या गुज़री है

(सुर्ख़-ओ-सियह = सफ़ेद और काली), (ज़ीस्त = जीवन), (सफ़आराई = मोर्चाबंदी), (अजदाद = पुरखे)


इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
यह हसीं खेत फटा पड़ता है जोबन जिनका
किस लिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है

(फ़रावाँ - प्रचुर, बहुसंख्यक),  (मख़लूक़ = जनता), (फ़क़त = सिर्फ़)


यह हर इक सम्त, पुर-असरार कड़ी दीवारें
जल बुझे जिनमें हज़ारों की जवानी के चराग़
यह हर इक गाम पे उन ख़्वाबों की मक़्तल गाहें
जिनके परतौ से चराग़ाँ हैं हज़ारों के दिमाग़

(सम्त = ओर), (पुर-असरार = रहस्यपूर्ण), (गाम = पग), (मक़्तल गाहें = क़त्लगाहें, वध स्थल), (परतौ = प्रतिबिम्ब, अक्स), (चराग़ाँ = दीप्तिमान)


यह भी हैं, ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से ख़ुलते हुए होंठ
हाय उस जिस्म के कमबख़्त, दिलावेज़ ख़ुतूत !
आप ही कहिए, कहीं ऐसे भी अफ़्सूँ होंगे

(मज़मूँ = विषय), (दिलावेज़ ख़ुतूत = मनोहर/ हृदयाकर्षक रेखाएं (बनावट)), (अफ़्सूँ = जादू)



अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही
तब-ए-शायर का वतन इनके सिवा और नही

 (मौज़ू-ए-सुखन = काव्य का विषय), (तब-ए-शायर = शायर की प्रकृति)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


आबिदा परवीन/ Abida Parveen

Wednesday, July 16, 2014

सलाम उस पर अगर ऐसा कोई फनकार हो जाए
सियाही ख़ून बन जाए कलम तलवार हो जाए

ज़माने से कहो कुछ साएका-रफ्तार हो जाए
हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो जाए

ज़माने को तमन्ना है तेरा दीदार करने की
मुझे ये फ्रिक है मुझ को मेरा दीदार हो जाए

वो जुल्फें साँप हैं बे-शक अगर ज़ंजीर बन जाएँ
मोहब्बत ज़हर है बे-शक अगर आज़ार हो जाए

मोहब्बत से तुम्हें सरकार कहते हैं वगरना हम
निगाहें डाल दें जिस पर वही सरकार हो जाए
-कैफ़ भोपाली

Monday, March 3, 2014

हमने उनके सामने पहले तो खंजर रख दिया
फिर कलेजा रख दिया, दिल रख दिया, सर रख दिया

क़तरा-ए-खून-ए-जिगर सी, की तवज्जोह इश्क़ की
सामने मेहमान के जो था मयस्सर रख दिया

[(तवज्जोह = गौर करना, ध्यान देना), (मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)]

ज़िन्दगी में तो कभी दम भर न होते थे जुदा
कब्र में तन्हा मुझे यारों क्यूँकर रख दिया

देखिये अब ठोकरें खाती है किस किस की नागाह
रोज़ान-ए-दीवार में ज़ालिम ने पत्थर रख दिया

[(नागाह = सहसा, अचानक, एकाएक), (रोज़ान-ए-दीवार = दीवार का छेद)]

ज़ुल्फ़ खाली, हाथ खाली, किस जगह ढूँढें इसे
तुम ने दिल लेकर कहाँ, ऐ बंदापरवर, रख दिया ?

कहते हैं बू-ए-वफ़ा आती है इन फूलों से आज
दिल जो हमने लाला-ओ-गुल में मिलाकर रख दिया

(लाला-ओ-गुल = ट्यूलिप और गुलाब)

-दाग़ देहलवी






Sunday, June 9, 2013

इस शहर-ए-खराबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे

इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे
ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे

ये हँसता हुआ चाँद ये पुरनूर सितारे
ताबिंदा-ओ-पाइन्दा हैं ज़र्रों के सहारे

[(पुरनूर = ज्योतिर्मय, प्रकाशमान), (ताबिंदा = प्रकाशमान, रोशन), (पाइन्दा = हमेशा रहने वाला, नित्य, अनश्वर, स्थाई, अचल), (ताबिंदा-ओ-पाइन्दा = हमेशा चमकने वाला)]

हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे
अरमां है कोई फूल हमें दिल से पुकारे

(गुंचा = कली)

हर सुबह मेरी सुबह पे रोती रही शबनम
हर रात मेरी रात पे हँसते रहे तारे

(शबनम = ओस)

कुछ और भी हैं काम हमें ए ग़म-ए-जानाँ
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे

-हबीब जालिब

Thursday, May 23, 2013

हमने ढूँढे भी तो ढूँढे हैं सहारे कैसे

हमने ढूँढे भी तो ढूँढे हैं सहारे कैसे
इन सराबों पे कोई उम्र गुज़ारे कैसे

(सराबों = मृगतृष्णा)

हाथ को हाथ नही सूझे, वो तारीकी थी
आ गए हाथ मे क्या जाने सितारे कैसे

(तारीकी = अंधकार)

हर तरफ़ शोर उसी नाम का है दुनिया में
कोई उसको जो पुकारे तो पुकारे कैसे

दिल बुझा जितने थे अरमान सभी ख़ाक हुए
राख मे फ़िर ये चमकते है शरारे कैसे

(शरारे = चिंगारी)

न तो दम लेती है तू और न हवा थमती है
ज़िन्दगी ज़ुल्फ़ तिरी कोई सँवारे कैसे
-जावेद अख़्तर

Monday, May 20, 2013

आगाज़ तो होता है, अंजाम नहीं होता,
जब मेरी कहानी में, वो नाम नहीं होता ।

(आगाज़ = आरम्भ)

जब ज़ुल्फ़ की कालिख में,गुम जाए कोई राही,
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता ।

हँस-हँस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकड़े,
हर शख़्स की क़िस्मत में ईनाम नहीं होता ।

बहते हुए आंसूं ने आँखों से कहा थमकर,
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता ।

दिन डूबे हैं या डूबी बरात लिए कश्ती,
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता।

-मीना कुमारी 'नाज़'

Friday, January 18, 2013

इतना भी करम उनका कोई कम तो नहीं है,
ग़म दे वो  पूछें हैं, कोई ग़म तो नहीं है।

नक्शा जो मुझे ख़ुल्द में दिखलाया गया था,
ए साहिबे-आलम, ये वो आलम तो नहीं है।

[(ख़ुल्द = स्वर्ग, बहिश्त), (आलम = दुनिया, संसार, अवस्था, दशा)]

हालात मेरे इन दिनों पेचीदा बहुत हैं,
ज़ुल्फ़ों में कहीं तेरी कोई ख़म तो नहीं है।

सीने से हटाता ही नहीं हाथ वो लड़का,
देखो तो सही दिल में वोही ग़म तो नहीं है।

चल मान लिया तेरा कोई दोष नहीं था,
हालांकी दलीलों में तेरी दम तो नहीं है।

-ताहिर फ़राज़

Thursday, November 15, 2012

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है!

कि ज़िंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में,
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी।
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है,
तेरी नज़र की शुआयों में खो भी सकती थी।

 [(शादाब = हरी-भरी), (तीरगी = अंधेरा, अंधकार), (ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी), (शुआअ = सूर्य की किरण, रश्मि)]

अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-अलम रहकर,
तेरे जमाल की रानाइयों में खो रहता।
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीमबाज़ आंखें,
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता।

[(बेगाना-ऐ-अलम = दुखों से अपरिचित), (जमाल = सौंदर्य), (रानाई/ रअनाई = बनाव-श्रृंगार), (गुदाज़ = मृदुल, मांसल), (नीमबाज़ = अधखुली), (महव = निमग्न, तल्लीन)]

पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की,
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता।
हयात चीखती फिरती बरहना-सर और मैं,
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साए में छुप के जी लेता।

[(तल्खियां = कटुताएं), (हलावत = माधुर्य, रस), (हयात = जीवन), (बरहना-सर = नंगे सिर)]

मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है,
कि तू नहीं, तेरा ग़म ,तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं।

[(आलम = स्थिति), (जुस्तजू = तलाश, खोज), (आरज़ू = इच्छा)]

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले,
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से।
मुहीब साए मेरी सिम्त बढ़ते आते हैं,
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से।

[(मुहीब = भयानक), (सिम्त = ओर, तरफ), (हयात-ओ-मौत = जीवन और मृत्यु), (पुरहौल खारज़ारों से = भयावह कंटीले जंगलों से)]

न कोई जादा, न मंज़िल, न रौशनी का सुराग़,
भटक रही है ख़लाओं में ज़िंदगी मेरी।
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खो कर,
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूंही,
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है!

[(जादा = पगडंडी, मार्ग), (ख़लाओं में = शून्य में), (हमनफ़स = साथी, मित्र, सहचर)]


-साहिर लुधियानवी



Friday, October 12, 2012

इक दवात एक क़लम हो तो ग़ज़ल होती है
जब ये सामान बहम हो तो ग़ज़ल होती है


(बहम = एक जगह)

मुफ़लिसी, इश्क़, मरज़, भूख, बुढ़ापा, औलाद,
दिल को हर क़िस्म का ग़म हो तो ग़ज़ल होती है

(मुफ़लिसी = ग़रीबी)

पूँछ कुत्ते की जो टेढ़ी हो तो कुछ भी न बने
और तेरी ज़ुल्फ़ में ख़म हो तो ग़ज़ल होती है

सिर्फ़ ठर्रे' से तो क़तआत ही मुमकिन हैं 'फ़िराक़',
हाँ, अगर व्हिस्कि-ओ-रम हो तो ग़ज़ल होती है


-फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, September 27, 2012

वक़्त मिलने पे मैं तेरी ज़ुल्फ़ को सुलझा दुंगा,
आज उलझा हूँ वक़्त को सुलझाने में
-शायर: नामालूम
ये कहकर सितमगर ने जुल्फों को झटका,
बहुत दिनों से दुनिया परेशां नहीं है
-शायर: नामालूम
तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो
'जगजीत` की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो

हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो

होते हैं सफल लोग मुहब्बत में हज़ारों
ऐ काश कभी अपनी मुहब्बत भी सफल हो

उलझे ही चला जाता है उस ज़ुल्फ़ की मानिन्द
ऐ उक़दा-ए-दुशवारे मुहब्बत कभी हल हो

लौटी है नज़र आज तो मायूस हमारी
अल्लाह करे दीदार तुम्हारा हमें कल हो

मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज़ अचानक
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो

- राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’

Tuesday, September 25, 2012

तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साए में शाम कर लूँगा

तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साए में शाम कर लूँगा,
सफ़र एक उम्र का पल में तमाम कर लूँगा।

नज़र मिलाई तो पूछूंगा इश्क़ का अंजाम,
नज़र झुकाई तो खाली सलाम कर लूँगा।

जहान-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबारक हो,
रही शिकस्त तो वो अपने नाम कर लूँगा।

- कैफ़ी आज़मी