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Friday, June 14, 2013

कहता हूँ महब्बत है ख़ुदा सोच समझकर
ये जुर्म अगर है तो बता सोच समझकर

कब की मुहब्बत ने ख़ता सोच समझकर
कब दी ज़माने ने सज़ा सोच समझकर

वो ख़्वाब जो ख़ुशबू की तरह हाथ न आए
उन ख़्वाबों को आंखो में बसा सोच समझकर

कल उम्र का हर लम्हा कही सांप न बन जाए
मांगा करो जीने की दुआ सोच समझकर

आवारा बना देंगे ये आवारा ख़यालात
इन ख़ाना बदोशों को बसा सोच समझकर

ये आग जमाने में तेरे घर से न फैले
दीवाने को महफ़िल से उठा सोच समझकर

भर दी जमाने ने बहुत तलख़ियां इसमें
'साग़र' की तरफ़ हाथ बढा सोच समझकर
-हनीफ़ साग़र

Sunday, June 9, 2013

ख़ुद अपने ज़र्फ का अन्दाज़ा कर लिया जाए
तुम्हारे नाम से इक जाम भर लिया जाए

ये सोचता हूं कि कुछ काम कर लिया जाए
मिले जो आईना तुझ-सा संवर लिया जाए

तुम्हारी याद जहां आते-आते थक जाए
तुम्ही बताओ कहा ऐसा घर लिया जाए

तुम्हारी राह के कांटे हो, गुल हो या पत्थर
ये मेरा काम है दामन को भर लिया जाए

हमारा दर्द न बाटो मगर गुज़ारिश है
हमारे दर्द को महसूस कर लिया जाए

ये बात अपनी तबीयत की बात होती है
किसी के बात का कितना असर लिया जाए

शऊरे-वक़्त अगर नापना हो ए `साग़र'
ख़ुद अपने आप को पैमाना कर लिया जाए
-हनीफ़ साग़र

बात बनती नहीं ऐसे हालात में
मैं भी जज़्बात में, तुम भी जज़्बात में

कैसे सहता है मिलके बिछडने का ग़म
उससे पूछेंगे अब के मुलाक़ात में

मुफ़लिसी और वादा किसी यार का
खोटा सिक्का मिले जैसे ख़ैरात में

जब भी होती है बारिश कही ख़ून की
भीगता हूं सदा मैं ही बरसात में

मुझको किस्मत ने इसके सिवा क्या दिया
कुछ लकीरें बढा दी मेरे हाथ में

ज़िक्र दुनिया का था, आपको क्या हुआ
आप गुम हो गए किन ख़यालात में

दिल में उठते हुए वसवसों के सिवा
कौन आता है `साग़र' सियह रात में
-हनीफ़ साग़र