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Friday, July 31, 2020

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं
लोग समझने लगते हैं हम गूँगे-बहरे हैं

होरी को क्या पता नहीं, उसकी बदहाली से
काले ग्रेनाइट पर कितने हर्फ़ सुनहरे हैं

धड़क नहीं पाता दिल मेरा तेरी धड़कन पर
मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारों के इतने पहरे हैं

पढ़-लिख कर मंत्री हो पाये, बिना पढ़े राजा
जाने कब से राजनीति के यही ककहरे हैं

निष्ठा को हर रोज़ परीक्षा देनी होती है
अविश्वास के घाव दिलों में इतने गहरे हैं

मैं रोया तो नहीं नम हुई हैं फिर भी आंखें
और किसी के आँसू इन पलकों पर ठहरे हैं

बौनो की आबादी में है कद पर पाबन्दी
उड़ने लायक सभी परिन्दो के पर कतरे हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'
एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं
जिस तरह सीप के सीने गुहर होता है
जिस तरह रात के रानी की महक होती है
जिस तरह साँझ की वंशी का असर होता है

जिस तरह उठता है आकाश में इक इंद्रधनुष
जैसे पीपल के तले कोई दिया जलता है
जैसे मंदिर में कहीं दूर घंटियाँ बजतीं
जिस तरह भोर के पोखर में कमल खिलता है

जिस तरह खुलता हो सन्दूक पुराना कोई
जिस तरह उसमें से ख़त कोई पुराना निकले
जैसे खुल जाय कोई चैट की खिड़की फिर से
ख़ुद-बख़ुद जैसे कोई मुँह से तराना निकले

जैसे खँडहर में बची रह गयी बुनियादें हैं
एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Wednesday, April 22, 2020

आओ साथी जी लेते हैं

आओ साथी जी लेते हैं
विष हो या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं

सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, April 20, 2020

अहम की ओढ़ कर चादर

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर

अहम अहमों से टकराते
बिखरते चूर होते हैं
मगर फिर भी अहम के हाथ
हम मजबूर होते हैं
अहम का एक टुकड़ा भी
नया आकार लेता है
ये शोणित बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर .....

विनय शीलो में भी अपनी
विनय का अहम होता है
वो अन्तिम साँस तक अपनी
वहम का अहम ढोता है
अहम ने देश बाँटॆ हैं
अहम फ़िरकों का पोषक है
अहम इंसान के ज़ज़्बात का भी
मौन शोषक है
अहम पर ठेस लग जाये
कसक रहती है जीवन भर
अहम की ओढ़ करे चादर ...

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'




Sunday, April 19, 2020

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
ज़ीस्त की दुश्वारियाँ बढ़ती गईं।

(ज़ीस्त = जीवन), (दुश्वारियाँ = कठिनाइयाँ)

पेशकदमी वो करे, मैं क्यों बढ़ूँ,
इस अहम में दूरियाँ बढ़ती गईं।

(पेशकदमी = पहल)

आप भी तो ख़ुश नहीं, मैं भी उदास
किसलिये फिर तल्ख़ियाँ बढ़ती गईं।

(तल्ख़ियाँ = कटुतायें)

भूख ले आई शहर में गाँव को,
झुग्गियों पर झुग्गियाँ बढ़ती गईं।

मुस्कराहट सभ्यता का इक फ़रेब,
दिन-ब-दिन ऐय्यारियाँ बढ़ती गईं।

(ऐय्यारियाँ = छल, चाल)

आग से महफ़ूज़ रह पायेगा कौन,
यूँ ही गर चिंगारियाँ बढ़ती गईं।

अम्न के संवाद के साये तले
जंग की तैय्यारियाँ बढ़ती गईं।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्स-ओ-क़मर नहीं रखते।

 (शम्स-ओ-क़मर = सूरज और चन्द्रमा)

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराह-ए-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

(बराह-ए-रास्त = सीधे - सीधे)

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये माल-ओ-ज़र नहीं रखते।

(माल-ओ-ज़र = धन-संपत्ति)

दिल में आये जो उसे कर गु़जरते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

(शाने = कन्धे)

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूस-ओ-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीन-ए-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

(पैहम = लगातार),  (मकीन-ए-दिल = दिल का निवासी)

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।

(दियार = इलाका)

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 16, 2020

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है।
कुछ भूलें ऐसी जिनकी चर्चा बेमानी लगती है।

कुछ भू्लों के लिये शर्म भी आई हमको कभी-कभी,
कुछ भूलों की पृष्ठभूमि बिल्कुल शैतानी लगती है।

कुछ भूलों की विभीषिका से जीवन है अब तक संतप्त,
कुछ भूलों की सृष्टि विधाता की मनमानी लगती है।

कुछ भूलें चुपके से आकर चली गईं तब पता चला,
कुछ भूलों की आहट भी जानी पहचानी लगती है।

कुछ भूलों में आकर्षण था, कुछ भूलें कौतूहल थीं,
कुछ भूलों की दुनियाँ तो अब भी रुमानी लगती है।

कुछ भूलों का पछतावा है, कुछ में मेरा दोष नहीं,
कुछ भूलें क्यों हुईं, आज यह अकथ कहानी लगती है।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ

(ब-ज़ाहिर = प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से)

अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
ज़ख़्म यादों से धोना चाहता हूँ

वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ

कभी अपने ही दिल की रहगुज़र में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ

नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।

गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।

भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ

नये हों रास्ते मंज़िल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।

'अमित' अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'
अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुँह खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

(रक़्क़ासा = नर्तकी)

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

(जम्हू री निज़ाम= गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

उसका मकतब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

(मकतब = पाठशाला, स्कूल)

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Wednesday, April 15, 2020

दिल मुसाफ़िर ही रहा सू-ए-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

(सू-ए-सफ़र = यात्रा की ओर), (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल, विचार, याद),

कितने ख़्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कू-ए-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

(कू-ए-माज़ी = अतीत की गली)

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

(लफ़्जे-शीरीं = मीठे शब्द), (पोशीदा = छिपा हुआ)

नाम हमने जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

(शज़र = पेड़, वृक्ष)

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

(तक़रीर = वार्तालाप, बातचीत, भाषण, वक्तव्य, बयान, वाद-विवाद, हुज्जत)

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक़ आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

(सुख़नवर = कवि, शायर)

फूलों की ज़िन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आज़माइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

(जम्हूरियत = गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये 'अमित'
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’ 

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?
दर्द इसका लिबास है क्या है?

फिर हवा ज़हर पी के आई क्या,
सारा आलम उदास है, क्या है?

एक सच के हज़ार चेहरे हैं,
अपना-अपना क़यास है, क्या है

(क़यास = अन्दाज़ा)

जबकि दिल ही मुकाम है रब का,
इक जमीं फिर भी ख़ास है, क्या है

राम-ओ-रहमान की हिफ़ाज़त में,
आदमी! बदहवास है, क्या है?

सुधर तो सकती है दुनियाँ, लेकिन
हाल, माज़ी का दास है, क्या है?

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)

मिटा रहा है ज़माना इसे जाने कब से,
इक बला है कि प्यास है, क्या है?

गौर करता हूँ तो आती है हँसी,
ये जो सब आस पास है क्या है?

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'