Showing posts with label जीवन. Show all posts
Showing posts with label जीवन. Show all posts

Wednesday, July 3, 2024

अपना आलम भी अजब आलम-ए-तन्हाई है
पहलू-ए-ज़ीस्त नहीं मौत की आग़ोश नहीं
-सत्यपाल "पैहम"

Saturday, January 9, 2021

जीवन चक्र

स्नेह मिला जो आपका, हुआ मैं भाव विभोर,
खुशियाँ  कत्थक  नाचतीं  मेरे चारों ओर ।

स्मृतियों में आबद्ध हैं चित्र वो शेष, विशेष,
एक नजर में घूँम लें, 'पूरन' भारत देश ।

खेलें, खायें प्रेम से मिलजुल सबके संग,
जीवन का परखा हुआ यही है  सुंदर ढंग ।

वक़्त फिसलता ही रहा ज्यों मुट्ठी में रेत,
समय बिता कर आ गए वापस अपने खेत ।

भवसागर  हम  खे  रहे  अपनी अपनी नाव,
ना जाने किस नाव पर लगे भँवर का दाँव ! 

किसको,कितना खेलना सब कुछ विधि के हाथ,
खेल खतम और चल दिये लेकर स्मृतियाँ साथ !

-पूरन भट्ट 




Thursday, November 12, 2020

कभी तो दिन हो उजागर कभी तो रात खुले

कभी तो दिन हो उजागर कभी तो रात खुले
ख़ुदाया! हम पे कभी तो ये कायनात खुले

बिछड़ गया तो ये जाना वो साथ था ही नहीं
कि तर्क होके हमारे ताअ'ल्लुक़ात खुले

(तर्क = त्याग)

तू चुप रहे भी तो मैं सुन सकूँ तिरी आवाज़
मैं कुछ कहूँ न कहूँ तुझ पे मेरी बात खुले

सबक़ तो देती चली जा रही थी हर ठोकर
प-खुलते- खुलते ही इस दिल पे तजरबात खुले

किनारे लग भी गई कश्ती-ए-ह़यात, मगर
मैं मुंतज़िर ही रहा मक़सद-ए-ह़यात खुले

(कश्ती-ए-ह़यात = जीवन की नाव), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (मक़सद-ए-ह़यात = जीवन का अर्थ)

- राजेश रेड्डी

Tuesday, April 28, 2020

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

(दरख़्शाँ = चमकता हुआ, चमकीला), (हयात = जीवन)

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

(ग़म-ए-दहर =दुनिया के दुःख), (आलम = जगत, संसार, दुनिया, अवस्था, दशा, हालत), (सबात = स्थिरता, स्थायित्व, मज़बूती)

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

(निगूँ  = नीचे होना, झुकना), (वस्ल = मिलन)

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

(तारीक = अंधकारमय), (बहीमाना = वहशियाना), (तिलिस्म = जादू, माया, इंद्रजाल), (अतलस = रेशमी वस्त्र),  (कमख़ाब = महँगा कपड़ा), (जा-ब-जा = जगह जगह), (कूचा-ओ-बाज़ार = गली और बाज़ार)

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

(अमराज़ = बहुत से रोग), (तन्नूर = Oven), (नासूर = घाव)

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

https://www.youtube.com/watch?v=B6SSbjcGWOg


Thursday, April 23, 2020

याद में उसकी भीगा कर

याद में उसकी भीगा कर
फूलों जैसा महका कर

भीड़ में ख़ुद को तन्हा कर
ये मंज़र भी देखा कर

बूढ़ों में भी बैठा कर
बच्चों से भी खेला कर

सबको राह दिखा लेकिन
अपनी राह भी देखा कर

किससे भूल नहीं होती
इतना भी मत सोचा कर

तू भी दौलत से भर जा
सबके ग़म को अपनाकर

जन्नत किसने देखी है
जीवन जन्नत जैसा कर

प्यार की अपनी आँखें हैं
देख ही लेगा देखा कर


-हस्तीमल हस्ती

Wednesday, April 22, 2020

कितना सुख है निज अर्पन में

जाने कितने जन्मों का
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।

खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा
कर जाने कब सिंधु समायी ।

सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।

मिलने की बेला जब आयी
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।

पतझर में बेमौसम बारिश
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।

थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था,
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे
भावों का अहसास तरल था ।

है आनंद पराजय में अब
कितना सुख है निज अर्पन में ।।

-मानोशी 

आओ साथी जी लेते हैं

आओ साथी जी लेते हैं
विष हो या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं

सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, April 20, 2020

अहम की ओढ़ कर चादर

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर

अहम अहमों से टकराते
बिखरते चूर होते हैं
मगर फिर भी अहम के हाथ
हम मजबूर होते हैं
अहम का एक टुकड़ा भी
नया आकार लेता है
ये शोणित बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर .....

विनय शीलो में भी अपनी
विनय का अहम होता है
वो अन्तिम साँस तक अपनी
वहम का अहम ढोता है
अहम ने देश बाँटॆ हैं
अहम फ़िरकों का पोषक है
अहम इंसान के ज़ज़्बात का भी
मौन शोषक है
अहम पर ठेस लग जाये
कसक रहती है जीवन भर
अहम की ओढ़ करे चादर ...

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'




Sunday, April 19, 2020

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
ज़ीस्त की दुश्वारियाँ बढ़ती गईं।

(ज़ीस्त = जीवन), (दुश्वारियाँ = कठिनाइयाँ)

पेशकदमी वो करे, मैं क्यों बढ़ूँ,
इस अहम में दूरियाँ बढ़ती गईं।

(पेशकदमी = पहल)

आप भी तो ख़ुश नहीं, मैं भी उदास
किसलिये फिर तल्ख़ियाँ बढ़ती गईं।

(तल्ख़ियाँ = कटुतायें)

भूख ले आई शहर में गाँव को,
झुग्गियों पर झुग्गियाँ बढ़ती गईं।

मुस्कराहट सभ्यता का इक फ़रेब,
दिन-ब-दिन ऐय्यारियाँ बढ़ती गईं।

(ऐय्यारियाँ = छल, चाल)

आग से महफ़ूज़ रह पायेगा कौन,
यूँ ही गर चिंगारियाँ बढ़ती गईं।

अम्न के संवाद के साये तले
जंग की तैय्यारियाँ बढ़ती गईं।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 16, 2020

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है।
कुछ भूलें ऐसी जिनकी चर्चा बेमानी लगती है।

कुछ भू्लों के लिये शर्म भी आई हमको कभी-कभी,
कुछ भूलों की पृष्ठभूमि बिल्कुल शैतानी लगती है।

कुछ भूलों की विभीषिका से जीवन है अब तक संतप्त,
कुछ भूलों की सृष्टि विधाता की मनमानी लगती है।

कुछ भूलें चुपके से आकर चली गईं तब पता चला,
कुछ भूलों की आहट भी जानी पहचानी लगती है।

कुछ भूलों में आकर्षण था, कुछ भूलें कौतूहल थीं,
कुछ भूलों की दुनियाँ तो अब भी रुमानी लगती है।

कुछ भूलों का पछतावा है, कुछ में मेरा दोष नहीं,
कुछ भूलें क्यों हुईं, आज यह अकथ कहानी लगती है।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, January 23, 2020

सब मिला इस राह में

सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।

चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो

धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।

जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।

मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।

काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,

शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।

-मानोशी

Thursday, October 24, 2019

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही

ओ कल्प-वृक्ष की सोन-जूही, ओ अमलतास की अमर कली,
धरती के आताप से जलते मन पर छायी निर्मल बदली,
मैं तुमको मधु-सद-गंध युक्त, संसार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

तुम कल्प-वृक्ष का फूल और मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य, मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधूरी ग़ज़ल शुभे, तुम शाम गान सी पावन हो,
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी, बिजुरी सी तुम मन भावन हो

इसलिए व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउँगा
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा

तुम जिस शैया पर शयन करो, वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौल-श्री, वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ, वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो, वह व्यक्ति नहीं वंशी-वट हो

पर मैं वट जैसा सघन छॉंह, विस्तार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

मैं तुमको चाँद सितारों का सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साधू, दूं सुर श्रंगार भला कैसे
मैं जीवन के प्रश्नो से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे,
बारूदी बिछी धरती पर कर लूं दो पल प्यार भला कैसे

इसलिए विवश हर आंसू को सत्कार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

- डॉ. कुमार विश्वास

Tuesday, September 10, 2019

एक लम्हा भी मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीक़ा ही कहाँ रखते हैं
-ज़मीर जाफ़री

(मसर्रत = हर्ष, आनंद, ख़ुशी)

Monday, August 12, 2019

ग़म का कारोबार न छूटा

ग़म का कारोबार न छूटा
जीवन भर संसार न छूटा

हम भी गौतम हो सकते थे
पर हमसे घर-बार न छूटा

कौन है ऐसा जिसका जहाँ में
कोई कहीं उस पार न छूटा

अम्न की ख़्वाहिश थी सीने में
हाथ से पर हथियार न छूटा

छूट गया सब काम का लेकिन
जो कुछ था बेकार न छूटा

जो इक बार हुआ दरबारी
उससे फिर दरबार न छूटा

छोड़ दिया बाज़ार ने हमको
पर हमसे बाज़ार न छूटा

-राजेश रेड्डी

Saturday, May 11, 2019

बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना

बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
मेरी आदत है ख़िज़ाँ में भी गुल-अफ़शाँ होना

(फ़स्ल-ए-बहाराँ = बहार का मौसम), (ख़िज़ाँ = पतझड़), ( गुल-अफ़शाँ = फूलों का बिखरना)

ये तो मुमकिन है किसी रोज़ ख़ुदा बन जाए
ग़ैर मुमकिन है मगर शैख़ का इंसाँ होना

अपनी वहशत की नुमाइश मुझे मंज़ूर न थी
वर्ना दुश्वार न था चाक-गिरेबाँ होना

रहरव-ए-शौक़ को गुमराह भी कर देता है
बाज़ औक़ात किसी राह का आसाँ होना

(रहरव = पथिक, बटोही, मुसाफ़िर)

क्यूँ गुरेज़ाँ हो मिरी जान परेशानी से
दूसरा नाम है जीने का परेशाँ होना

(गुरेज़ाँ = पलायन, भागना)

जिन को हमदर्द समझते हो हँसेंगे तुम पर
हाल-ए-दिल कह के न ऐ 'शाद' पशीमाँ होना

(पशीमाँ = लज्जित, शर्मिंदा)

-नरेश कुमार शाद

Saturday, May 4, 2019

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो

(लफ़्ज़ ओ मंज़र = शब्द और दृश्य), (मआनी = अर्थ, मतलब, माने)

वो नहीं है न सही तर्क-ए-तमन्ना न करो
दिल अकेला है इसे और अकेला न करो

(तर्क-ए-तमन्ना = इच्छाओं/ चाहतों का त्याग)

बंद आँखों में हैं नादीदा ज़माने पैदा
खुली आँखों ही से हर चीज़ को देखा न करो

(नादीदा = अदृष्ट, अप्रत्यक्ष, अगोचर, Unseen)

दिन तो हंगामा-ए-हस्ती में गुज़र जाएगा
सुब्ह तक शाम को अफ़्साना-दर-अफ़्साना करो

(हंगामा-ए-हस्ती = जीवन की उथल-पुथल/ अस्तव्यस्तता)

-महमूद अयाज़

Friday, February 15, 2019

इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

संतान हँसे तो कैसे हँसे
इस वक़्त है माता ख़तरे में
संसार के पर्बत का राजा
है अपना हिमाला ख़तरे में
है सामना कितने ख़तरों का
है देश की सीमा ख़तरे में
ऐ दोस्त वतन से घात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

मेहंदी हुई पीली कितनों की
सिंदूर लुटे हैं कितनों के
हैं चूड़ियाँ ठंडी कितनों की
अरमान जले हैं कितनों के
इस चीन के ज़ालिम हाथों से
संसार फुंके हैं कितनों के
मुस्कान की तू बरसात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

मत काट कपट कर माता से
देना है जो कुछ ईमान से दे
ये प्रश्न वतन की लाज का है
जी खोल के दे जी जान से दे
गौरव की हिफ़ाज़त कर अपने
दे धन भी तो प्यारे आन से दे
तू दान न दे ख़ैरात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

जिस घर में बरसता था जीवन
छाई है वहाँ पर वीरानी
बेवा हुईं कितनी सुंदरियाँ
मारे गए कितने सेनानी
क्यूँ जोश नहीं आता तुझ को
है ख़ून रगों में या पानी
आज़ादी के दिन को रात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

सुनते हैं मुसीबत आएगी
आएगी तो देखा जाएगा
जिस ने हमें कायर समझा है
उस देश से समझा जाएगा
हर शोख़ अदा से खेल चुके
अब ख़ून से खेला जाएगा
ऐसे में हमें बे-हात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

अब बैंड पे गाया जाएगा
ये साज़ न छेड़े जाएँगे
ले रख दे ठिकाने से ये ग़ज़ल
मरने से बचे तो गाएँगे
है साथ हमारे सच्चाई
हम पा के विजय मुस्काएँगे
जीती हुई बाज़ी मात न कर
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर

-नज़ीर बनारसी

Saturday, December 29, 2018

ये न पूछो कि वाक़िआ क्या है

ये न पूछो कि वाक़िआ क्या है
किस की नज़रों का ज़ाविया क्या है

(वाक़िआ = घटना, हादसा, वृत्तांत, हाल, समाचार, ख़बर), (ज़ाविया = कोण, Angle), (नज़रों का ज़ाविया = दृष्टिकोण)

सब हैं मसरूफ़ कौन बतलाए
आदमी का अता-पता क्या

(मसरूफ़ = काम में लगा हुआ, संलग्न, Busy)

चलता जाता है कारवान-ए-हयात
इब्तिदा क्या है इंतिहा क्या है

(कारवान-ए-हयात = जीवन का कारवाँ), (इब्तिदा = आरम्भ, प्रारम्भ), (इंतिहा  = अंत)

जो किताबों में है वो सब का है
तू बता तेरा तजरबा क्या है

कौन रुख़्सत हुआ ख़ुदाई से
हर तरफ़ ये ख़ुदा ख़ुदा क्या है

-निदा फ़ाज़ली

Thursday, November 10, 2016

ख़ुश-रंग पैरहन से बदन तो चमक उठे
लेकिन सवाल रूह की ताबानियों का है

(पैरहन = लिबास), (ताबानी = प्रकाश, आभा, ज्योति, रौशनी)

होती हैं दस्तयाब बड़ी मुश्किलों के बाद
'शाहिद' हयात नाम जिन आसानियों का है

(दस्तयाब = प्राप्त, उपलब्ध, हासिल), (हयात = जीवन)

-शाहिद मीर

Friday, October 21, 2016

पिता

पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है
पिता सृष्टि में निर्माण की अभिव्यक्ति है

पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है

पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है
पिता धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है

पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है
पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है

पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं

पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है

पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है

पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है
पिता रक्त में दिये हुए संस्कारों की मूर्ति है

पिता एक जीवन को जीवन का दान है
पिता दुनिया दिखाने का एहसान है

पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है

तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो
पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो

क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई पाट नहीं सकता
और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता

विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है

विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राएं व्यर्थ हैं
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं

वो खुशनसीब हैं, माँ-बाप जिनके साथ होते हैं
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं

-ओम व्यास ओम