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Thursday, April 16, 2020

बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुँह खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

(रक़्क़ासा = नर्तकी)

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

(जम्हू री निज़ाम= गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

उसका मकतब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

(मकतब = पाठशाला, स्कूल)

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Friday, January 25, 2019

हम ने क्या पा लिया हिन्दू या मुसलमाँ हो कर
क्यूँ न इंसाँ से मोहब्बत करें इंसाँ हो कर
-"नक़्श" लायलपुरी

Saturday, December 22, 2018

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं

आज और कल की बात नहीं है सदियों की तारीख़ यही है
हर आँगन में ख़्वाब हैं लेकिन चंद घरों में ताबीरें हैं

(ताबीर = परिणाम, फल)

जब भी कोई तख़्त सजा है मेरा तेरा ख़ून बहा है
दरबारों की शान-ओ-शौकत मैदानों की शमशीरें हैं

हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं

-निदा फ़ाज़ली

Wednesday, January 25, 2017

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई
जो दिल पे असर करती ऐसी हो फुग़ाँ कोई

(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन), (सोज़-ए-निहाँ = अंदर की आग)

इक रोज़ मुक़र्रर है जाने के लिए सबका
सुनते हैं सितारों से आगे है जहाँ कोई

क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा पे टालो हो मुलाक़ातें
ले जाये क़ज़ा किस दिन जाने है कहाँ कोई

(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा), (क़ज़ा = मौत)

ढूंढें भी कहाँ तुम को, किस ठौर ठिकाना है
छोड़े हैं कहाँ तुमने क़दमों के निशाँ कोई

करते हो यक़ीं इतना हर बात पे क्यूँ सबकी
मुकरे न कहे से जो ऐसी है ज़ुबां कोई

उस बज़्म-ए-सुख़न में क्यूँ कहते हो ग़ज़ल अय दिल
है दाद नहीं मिलती अपनों से जहाँ कोई

मत पूछ मेरा मज़हब सज्दे में ही रहता हूँ
नाक़ूस बजे चाहे होती हो अज़ाँ कोई

(नाक़ूस = शंख जो फूंक कर बजाया जाता है)

-स्मृति रॉय

Saturday, May 23, 2015

ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा

ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
वहाँ भी रेत का अंबार होगा

ये सारे शहर में दहशत-सी क्यों हैं
यक़ीनन कल कोई त्योहार होगा

बदल जाएगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अख़बार होगा

उसे नाकामियाँ ख़ुद ढूँढ लेंगी
यहाँ जो साहिब-ए-किरदार होगा

समझ जाते हैं दरिया के मुसाफ़िर
जहाँ मैं हूँ वहाँ मँझधार होगा

वो निकला है फिर इक उम्मीद लेकर
वो फिर इक दर्द से दो-चार होगा

ज़माने को बदलने का इरादा
तू अब भी मान ले बेकार होगा

-राजेश रेड्डी

Thursday, February 26, 2015

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती है
रौशनी ऐसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है

खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है

(अनासिर = पंचभूत, पाँच तत्व - अग्नि, जल, वायु, धरती और आकाश)

ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अब कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है

(ज़ब्त-ए-ग़म = कष्ट और दुःख प्रकट न होने देना)

-कृष्ण बिहारी 'नूर'

Wednesday, January 14, 2015

कमा के पूरा किया जितना भी ख़सारा था
वहीं से जीत के निकला जहां से मैं हारा था

(ख़सारा = हानि, घाटा, नुक्सान)

न मेरे चेहरे पे दाढ़ी, न सर पे चोटी थी
मगर फ़साद ने पत्थर मुझे भी मारा था

-शकील आज़मी

Saturday, December 7, 2013

कहाँ दैरो-हरम में रब मिलेगा
वहाँ तो बस कोई मज़हब मिलेगा
-राजेश रेड्डी

(दैरो-हरम = मंदिर और मस्जिद)

Sunday, October 6, 2013

अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं

जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है खा लेते हैं

क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं

रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं

पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल-ओ-पर कटवा लेते हैं

(बाल-ओ-पर = बाजू और पँख)

सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं

याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं

औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम 'आलम'
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं

-आलम खुर्शीद

Tuesday, June 25, 2013

मज़हबों के नाम पर जब तक सितम होते रहेंगे
दो दिलों के बीच रिश्ते यूँ ही कम होते रहेंगे ।

प्यार के इस खेत में जो बीज बोया नफ़रतों का
आज लाठी, कल तमंचे और बम होते रहेंगे ।

माँ की साड़ी रक्त-रंजित, बाप-भाई रो रहे सब
और कितनी बेटियों पर ये जखम होते रहेंगे ।

ऐ सियासत ! शर्म कर, तू अपनी रोटी सेंकती है
कैसे-कैसे घर जले, कैसे करम होते रहेंगे ।

तुम 'सलिल' अब हो कहाँ, ठण्डी फुहारें तो बिखेरो
कब तलक अंगार भट्टी में गरम होते रहेंगे ।

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Sunday, June 23, 2013

हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मज़हबी नग़मात को मत छेड़िए
-अदम गोंडवी

Wednesday, June 12, 2013

नज्रे साहिर (साहिर लुधियानवी को समर्पित)

यूँ वो जुल्मत से रहा दस्तो-गरेबाँ यारो
उस से लरजाँ थे बहुत शब के निगहबाँ यारो

[(जुल्मत = अंधकार), (दस्तो-गरेबाँ = संघर्ष करता हुआ), (लरजाँ=कंपित /थरथराते हुए), (निगहबाँ=रक्षक)]

उस से हर गाम दिया हौसले -ताज़ा हमें
वो न इक पल भी रहा हमसे गुरेजाँ यारो

[(गाम = डग, कदम, पग), (हौसले -ताज़ा= नया हौसला), (गुरेजाँ =भागा हुआ, बचकर निकलने वाला)]

उसने मानी न कभी तीरगी-ए-शब से शिकस्त
दिल अँधेरों में रहा उसका फ़रोज़ाँ यारो

[(तीरगी-ए-शब= रात का अँधेरा), (फ़रोज़ाँ= प्रकाशमान, रौशन)]

उसको हर हाल में जीने की अदा आती थी
वो न हालात से होता था परीशाँ यारो

उसने बातिल से न ता-जीस्त किया समझौता
दहर में उस सा कहाँ साहिबो-ईमाँ यारो

[(बातिल = असत्य), (ता-जीस्त = जीवन भर), (साहिबो-ईमाँ = ईमान वाला)]

उसको थी कश्मकशे-दैरो-हरम से नफ़रत
उस सा हिन्दू न कोई उस सा मुसलमाँ यारो

(कश्मकशे-दैरो-हरम = मंदिर मस्जिद के झगड़े)

उसने सुल्तानी-ए-जम्हूर के नग्मे लिखे
रूह शाहों की रही उससे परीशाँ यारो

(सुल्तानी-ए-जम्हूर = आम जनता की बादशाहत)

अपने अशआर की शमाओं से उजाला करके
कर गया शब का सफ़र कितना वो आसाँ यारो

उसके गीतों से ज़माने को सँवारे, आओ
रुहे-साहिर को अगर करना है शादाँ यारो

(शादाँ =प्रसन्न)

-हबीब जालिब 

Friday, May 3, 2013

मज़हब ने पुकारा ऐ अकबर,
अल्लाह नहीं तो कुछ भी नहीं।
औरों ने कहा ये क़ौल ग़लत,
तनख़्वाह नहीं तो कुछ भी नहीं।
-अकबर इलाहाबादी

(क़ौल = कथन)

Monday, March 18, 2013

मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे,
तहज़ीब सलीक़े की इन्सान क़रीने के ।
-फ़िराक़ गोरखपुरी

(क़रीने के = सुसभ्य, सलीके के)

Wednesday, February 27, 2013

कब तक यूँ बहारों में, पतझड़ का चलन होगा,
कलियों की चिता होगी, फूलों का हवन होगा ।

हर धर्म की रामायण युग-युग से ये कहती है,
सोने का हिरण लोगे, सीता का हरण होगा ।

जब प्यार किसी दिल का पूजा में बदल जाए,
हर साँस दुआ होगी हर शब्द भजन होगा ।

ग़म गम के अंधेरों से, मायूस हो न जाना,
हर रात की मुट्ठी में, सूरज का रतन होगा ।

-उदयभानु हंस




Sunday, February 17, 2013

जो रिश्ते हैं हक़ीक़त में वो अब रिश्ते नहीं होते
हमें जो लगते हैं अपने वही अपने नहीं होते

कशिश होती है कुछ फूलों में ,पर ख़ुशबू नहीं होती
ये अच्छी सूरतों वाले सभी अच्छे नहीं होते

वतन की जो तरक़्क़ी है अभी तो वो अधूरी है
वो घर भी हैं, दवाई के जहाँ पैसे नहीं होते

इन्हें जो भी बनाते हैं वो हम तुम ही बनाते हैं
किसी मज़हब की साजिश में कभी बच्चे नहीं होते

सभी के पेट को रोटी, बदन पे कपड़े,सर पे छत
बहुत अच्छे हैं ये सपने मगर सच्चे नहीं होते

पसीने की सियाही से जो लिखते हैं इरादों को
'तुषार' उनके मुक़द्दर के सफ़े कोरे नहीं होते
-नित्यानंद 'तुषार'

Sunday, February 3, 2013

उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में,
मगर मैं क्या करूँ, है मेरी सुबहो-शाम ख़तरे में।

वो ग़म वाले से बम वाले हुए उनको पता क्यूँ हो,
के मुश्किल में मेरी रोटी, है मेरा जाम ख़तरे में।

ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने,
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में।

ग़ज़लगोई, ये अफ़साने, रिसाले और तहरीकें,
किताबत, सचकलामी, हाय सारे काम ख़तरे में।

(रिसाला = पत्र, पुस्तकें), (तहरीक = आंदोलन/ प्रस्ताव), (किताबत = लिखना)

न बोलो सच ज़ियादा 'नूर' वर्ना लोग देखेंगे,
तुम्हारी जान जोख़िम में तुम्हारा नाम ख़तरे में।

-नूर मुहम्मद नूर
मैं फ़क़त इन्सान हूँ हिन्दू-मुसलमाँ कुछ नहीं,
मेरे दिल के दर्द में तफ़रीक़े-ईमाँ कुछ नहीं । 


(तफ़रीक़े-ईमाँ = धर्म/ सत्य का बँटवारा/ अंतर)

 -आनंद नारायण मुल्ला

Wednesday, November 21, 2012

न डालो बोझ ज़हनों पर कि बचपन टूट जाते हैं,
सिरे नाज़ुक हैं बंधन के जो अक्सर छूट जाते हैं।

नहीं दहशत गरों का कोई मज़हब या कोई ईमाँ,
ये वो शैताँ हैं जो मासूम ख़ुशियाँ लूट जाते हैं।

हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो,
अगर ठोकर लगा दें हम तो चश्मे फूट जाते हैं।

[(रेग ए सहरा = रेगिस्तान की रेत), (चश्मा  = पानी का सोता)]

नहीं दीवार तुम कोई उठाना अपने आँगन में,
कि संग ओ ख़िश्त रह जाते हैं अपने छूट जाते हैं।

[(संग = पत्थर), (ख़िश्त = ईंट)]

न रख रिश्तों की बुनियादों में कोई झूट का पत्थर,
लहर जब तेज़ आती है घरौंदे टूट जाते हैं।

’शेफ़ा’ आँखें हैं मेरी नम ये लम्हा बार है मुझ पर,
 बहुत तकलीफ़ होती है जो मसकन छूट जाते हैं।

(मसकन = रहने की जगह, घर)

-इस्मत ज़ैदी

Sunday, October 21, 2012

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
-दुष्यंत कुमार