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Thursday, October 22, 2020

तुम लगाते चलो अश्जार जिधर से गुज़रो
उस के साए में जो बैठेगा, दुआ ही देगा
-नामालूम

(अश्जार = बहुत सारे पेड़, "शजर" का बहुवचन)

Wednesday, April 15, 2020

दिल मुसाफ़िर ही रहा सू-ए-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

(सू-ए-सफ़र = यात्रा की ओर), (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल, विचार, याद),

कितने ख़्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कू-ए-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

(कू-ए-माज़ी = अतीत की गली)

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

(लफ़्जे-शीरीं = मीठे शब्द), (पोशीदा = छिपा हुआ)

नाम हमने जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

(शज़र = पेड़, वृक्ष)

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Saturday, June 22, 2019

घने पेड़ों के साये में न रहना
घने साये सफ़र से रोकते हैं
- राजेश रेड्डी

Thursday, May 16, 2019

पेड़ का अक्स सिरहाने रख कर सोता हूँ
ख़्वाब में तपती धूप से राह़त मिलती है
- राजेश रेड्डी

Sunday, May 12, 2019

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी
कहीं कहीं पे छुपे थे मगर सवेरे भी

निकल पड़े थे तो फिर राह में ठहरते क्या
यूँ आस-पास कई पेड़ थे घनेरे भी

ये शहर-ए-सब्ज़ है लेकिन बहुत उदास हुए
ग़मों की धूप में झुलसे हुए थे डेरे भी

(शहर-ए-सब्ज़ = जीवंत/ ज़िंदादिल शहर)

हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं
सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी

(हुदूद-ए-शहर = शहर की हदों)

समुंदरों के ग़ज़ब को गले लगाए हुए
कटे-फटे थे बहुत दूर तक जज़ीरे भी

(जज़ीरे = द्वीप)

-खलील तनवीर

Thursday, May 9, 2019

दूर तक एक स्याही का भँवर आएगा

दूर तक एक स्याही का भँवर आएगा
ख़ुद में उतरोगे तो ऐसा भी सफ़र आएगा

आँख जो देखेगी दिल उस को नहीं मानेगा
दिल जो देखेगा वो आँखों में उभर आएगा

अपने एहसास का मंज़र ही बदल जाएगा
आँख झपकेगी तो कुछ और नज़र आएगा

और चलना है तो बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर निकलो भी
न किसी अब्र का साया न शजर आएगा

(बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर = बिना डरे, निर्भयता के साथ), (अब्र = बादल),  (शजर = पेड़)

ख़त्म हो जाएगी जब जश्न-ए-मुलाक़ात की रात
याद बुझते हुए ख़्वाबों का नगर आएगा

-खलील तनवीर

Tuesday, October 16, 2018

हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे

हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे
ज़मीं के जिस्म पे कोई लिबास रहने दे

(शजर = पेड़, वृक्ष), (ख़ुश्क घास = सूखी घास)

कहीं न राह में सूरज का क़हर टूट पड़े
तू अपनी याद मिरे आस-पास रहने दे

तसव्वुरात के लम्हों की क़द्र कर प्यारे
ज़रा सी देर तो ख़ुद को उदास रहने दे

(तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद)

-सुल्तान अख़्तर

Thursday, October 6, 2016

हर इक शै में हर इक शै का असर कम हो रहा है

हर इक शै में हर इक शै का असर कम हो रहा है
दरो-दीवार में लगता है घर कम हो रहा है

(शै = वस्तु, पदार्थ, चीज़)

तेरे अन्दर को घेरे जा रहा है तेरा बाहर
तू अपने आपमें ऐ बेख़बर ! कम हो रहा है

वो जिस के नाम पर सब को डराते फिर रहें हैं
उसी के नाम का ख़ुद उनमें डर कम हो रहा है

सफ़र इस जिस्म में जाँ का तो जारी बदस्तूर
अगरचे जिस्म का हर दिन सफ़र कम हो रहा है

(अगरचे = यद्यपि, यदि)

ये किस आसेब का साया पड़ा है इस शजर पर
परिन्दा रोज़ इक क्यों शाख़ पर कम हो रहा है

(आसेब = भूत-प्रेत, विपत्ति), (शजर = पेड़)

बहुत आसानियाँ जीने की बढ़ती जा रही हैं
सुकूने-दिल यहाँ हर दिन मगर कम हो रहा है

बदल कर रह गयी है या तो लोगों की समाअत
या फिर मेरे ही कहने का हुनर कम हो रहा है

(समाअत = सुनने की क्रिया, सुनने की शक्ति)

- राजेश रेड्डी

Sunday, September 25, 2016

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता
टूटे भी जो तारा तो जमीं पर नहीं गिरता

गिरते हैं समंदर में बड़े शौक़ से दरिया
लेकिन किसी दरिया में समंदर नहीं गिरता

समझो वहां फलदार शजर कोई नहीं है
वह सेहन कि जिसमें कोई पत्थर नहीं गिरता

(शजर = पेड़)

इतना तो हुआ फ़ायदा बारिश की कमी का
इस शहर में अब कोई फिसल कर नहीं गिरता

इनआम के लालच में लिखे मद्ह किसी की
इतना तो कभी कोई सुख़नवर नहीं गिरता

(मद्ह = तारीफ़)

हैरां है कई रोज से ठहरा हुआ पानी
तालाब में अब क्यों कोई कंकर नही गिरता

इस बंदा-ए-खुद्दार पे नबियों का है साया
जो भूख में भी लुक्मा-ए-तर पर नहीं गिरता

(लुक्मा-ए-तर = अच्छा भोजन)

करना है जो सर म'अरका-ए-जीस्त तो सुन ले
बे-बाज़ू-ए-हैदर दर-ए-ख़ैबर नहीं गिरता

क़ायम है 'क़तील' अब यह मेरे सर के सुतूँ पर
भूचाल भी आए तो अब मेरा घर नहीं गिरता

(सुतूँ = खम्बा)

-क़तील शिफ़ाई

https://www.youtube.com/watch?v=bwAN7hh2VYY&feature=player_embedded

Thursday, April 21, 2016

इन नए मौसमों का असर देखिये

इन नए मौसमों का असर देखिये
गिर रहे हैं पुराने शजर देखिये

(शजर = पेड़)

इक जरा सी मुनादी की आवाज़ से
काँप उठा है सारा नगर देखिये

आप के तीर-ओ-नश्तर के इस खेल में
उड़ न जाये कहीं मेरा सर देखिये

ज़िंदगानी हमारी अब इस मोड़ से
लेके जाती है किस मोड़ पर देखिये

जब कहीं कोई रस्ता दिखाई न दे
दिल जिधर कह रहा हो उधर देखिये

हर किसी ने यही कह के लौटा दिया
जाइये दूसरा कोई दर देखिये

ये जो दुनिया है इसको कभी ग़ौर से
देखकर सोंचिये, सोंचकर देखिये

-राजेश रेड्डी

Wednesday, February 24, 2016

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना
उदास आँखों में खुशरंग ख़्वाब रख देना

(सराब = मृगतृष्णा)

सदा से प्यास ही इस ज़िन्दगी का हासिल है
मेरे हिसाब में ये बेहिसाब रख देना

वफ़ा, ख़ुलूस, मुहब्बत, सराब ख़्वाबों के
हमारे नाम ये सारे अज़ाब रख देना

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां), (सराब = मृगतृष्णा), (अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

सुना है चाँद की धरती पे कुछ नहीं उगता
वहाँ भी गोमती, झेलम, चिनाब रख देना

क़दम क़दम पे घने कैक्टस उग आए हैं
मेरी निगाह में अक्से-गुलाब रख देना

(अक्से-गुलाब = गुलाब का प्रतिबिम्ब/ तस्वीर)

मैं खो न जाऊँ कहीं तीरगी के जंगल में
किसी शजर के तले आफ़ताब रख देना

(तीरगी = अन्धकार), (शजर = पेड़, वृक्ष), (आफ़ताब = सूरज)

- आलम खुर्शीद

Saturday, May 23, 2015

जो कहीं था ही नहीं उसको कहीं ढूँढना था

जो कहीं था ही नहीं उसको कहीं ढूँढना था
हम को इक वहम के जंगल में यकीं ढूँढना था

पहले तामीर हमें करना था अच्छा सा मकां
फिर मकां के लिए अच्छा सा मकीं ढूँढना था

 (तामीर = निर्माण, बनाना, मकान बनाने का काम), (मकीं = मकान में रहने वाला, निवासी)

सब के सब ढूँढ़ते फिरते थे उसे बन के हुजूम
जिस को अपने में कहीं अपने तईं ढूँढना था

(अपने तईं =  अपने अंदर, अपनी ओर)

जुस्तजू का इक अजब सिलसिला ता-उम्र रहा
ख़ुद को खोना था कहीं और कहीं ढूँढना था

(जुस्तजू = तलाश, खोज)

नींद को ढूँढ के लाने की दवाएँ थीं बहुत
काम मुश्किल तो कोई ख़्वाब हसीं ढूँढना था

दिल भी बच्चे की तरह ज़िद पे अड़ा था अपना
जो जहाँ था ही नहीं उसको वहीं ढूँढना था

हम भी जीने के लिए थोड़ा सुकूँ थोड़ा सा चैन
ढूँढ सकते थे मगर हमको नहीं ढूँढना था

-राजेश रेड्डी

 

Monday, November 24, 2014

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में 
कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में 

वो शक्ल पिघली तो हर शै में ढल गई जैसे 
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में 

जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा 
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में 

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

लतीफ़ था वो तख़य्युल से, ख़्वाब से नाज़ुक 
गँवा दिया उसे हमने ही आज़माने में 

(लतीफ़ = मज़ेदार), (तख़य्युल = कल्पना)

समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फ़रेब खाने में

(सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका)

झुका दरख़्त हवा से, तो आँधियों ने कहा 
ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुक के टूट जाने में

(दरख़्त = पेड़)

-जावेद अख़्तर

Monday, December 16, 2013

मंज़र भला था फिर भी नज़र को बुरा लगा
दीवारो-दर को सारे ही घर को बुरा लगा

खुशहाल होना मेरा, अज़ीज़ों से पूछिये
पत्ता हरा हुआ तो शजर को बुरा लगा
-नवाज़ देवबंदी

Saturday, December 7, 2013

बरसों रुत के मिज़ाज सहता है
पेड़ यूँ ही बड़ा नहीं होता

जिस्म ऐसा लिबास है साहब
चाहने से नया नहीं होता

घर से बेटी गई तो याद आया
फल कभी पेड़ का नहीं होता
-हस्तीमल 'हस्ती'
उस जगह सरहदें नहीं होती
जिस जगह नफ़रते नहीं होती

उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होती

मुंह पे कुछ और पीठ पे कुछ और
हमसे ये हरकतें नहीं होती
-हस्तीमल 'हस्ती'

Tuesday, July 2, 2013

जिस तरफ डालो नजर सैलाब का संत्रास है

जिस तरफ डालो नज़र सैलाब का संत्रास है
बाढ़ में डूबे शजर हैं नीलगूँ आकाश है

आम चर्चा है बशर ने दी है कुदरत को शिकस्त
कूवते इंसानियत का राज़ इस जा फाश है.
-अदम गोंडवी

Saturday, June 15, 2013

खुशनुमाई देखना ना क़द किसी का देखना
बात पेड़ों की कभी आये तो साया देखना

खूबियाँ पीतल में भी ले आती हैं कारीगरी
जौहरी की आँख से हर एक गहना देखना

झूठ के बाज़ार में ऐसा नजर आता है सच
पत्थरों के बाद जैसे कोई शीशा देखना

जिंदगानी इस तरह है आजकल तेरे बगैर
फासले से जैसे कोई मेला तनहा देखना

देखना आसां है दुनियाँ का तमाशा साहबान
है बहुत मुश्किल मगर अपना तमाशा देखना
-हस्तीमल 'हस्ती'

Tuesday, May 28, 2013

ज़िन्दगी की आँधी में ज़हन का शजर तऩ्हा
तुमसे कुछ सहारा था, आज हूँ मगर तऩ्हा

(शजर = पेड़)

ज़ख़्म-ख़ुर्दा लम्हों को मसलेहत सँभाले है
अनगिनत मरीजो में एक चारागर तऩ्हा

[(ज़ख़्म-ख़ुर्दा = घायल),  (मसलेहत = नीति, परामर्श, सलाह), (चारागर = चिकित्सक)]

बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में
क़ैद अब सदफ़ में है बनके है गुहर तऩ्हा

[(सदफ़ = सीप), (गुहर = मोती)]

तुम फ़ुज़ूल बातो का दिल पे बोझ मत लेना
हम तो ख़ैर कर लेंगे ज़िन्दगी बसर तऩ्हा

इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में
ढूँढता फ़िरा उसको वो नगर-नगर तऩ्हा

झुटपुटे का आलम है जाने कौन आदम है
इक लहद पे रोता है मुँह को ढाँपकर तऩ्हा

(लहद = कब्र)

-जावेद अख़्तर

Thursday, May 23, 2013

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता

(पामाल = घिसा-पिटा, दुर्दशाग्रस्त)

ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ायदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता

मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर, क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता

बुलंदी पर इन्हें मिट्टी की ख़ुशबू तक  नहीं आती
ये वो शाखें हैं जिनको अब शजर अच्छा नहीं लगता

(शजर = वृक्ष, पेड़)

ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नों, ये भी जला डालो
कि सब बेघर हों और मेरा हो घर, अच्छा नहीं लगता

(आतिश-ज़नों = आग लगाने वाले)

-जावेद अख़्तर