मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में वो शक्ल पिघली तो हर शै में ढल गई जैसे अजीब बात हुई है उसे भुलाने में जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा कि हमने देर लगा दी पलट के आने में (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत) लतीफ़ था वो तख़य्युल से, ख़्वाब से नाज़ुक गँवा दिया उसे हमने ही आज़माने में
(लतीफ़ = मज़ेदार), (तख़य्युल = कल्पना)
समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फ़रेब खाने में
(सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका) झुका दरख़्त हवा से, तो आँधियों ने कहा ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुक के टूट जाने में (दरख़्त = पेड़)
-जावेद अख़्तर
Monday, December 16, 2013
मंज़र भला था फिर भी नज़र को बुरा लगा
दीवारो-दर को सारे ही घर को बुरा लगा
खुशहाल होना मेरा, अज़ीज़ों से पूछिये
पत्ता हरा हुआ तो शजर को बुरा लगा
-नवाज़ देवबंदी
Saturday, December 7, 2013
बरसों रुत के मिज़ाज सहता है
पेड़ यूँ ही बड़ा नहीं होता
जिस्म ऐसा लिबास है साहब
चाहने से नया नहीं होता
घर से बेटी गई तो याद आया
फल कभी पेड़ का नहीं होता
-हस्तीमल 'हस्ती'
उस जगह सरहदें नहीं होती
जिस जगह नफ़रते नहीं होती
उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होती
मुंह पे कुछ और पीठ पे कुछ और
हमसे ये हरकतें नहीं होती
-हस्तीमल 'हस्ती'