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Saturday, December 7, 2019

पलकों पे बरसात सम्हाले बैठे हैं

पलकों पे बरसात सम्हाले बैठे हैं
हम अपने जज़्बात सम्हाले बैठे हैं।

ख़्वाबों में तेरे आने की ख़्वाहिश में
मुद्दत से इक रात सम्हाले बैठे हैं।

और हमें क्या काम बचा है फ़ुरक़त में
क़ुर्बत के लम्हात सम्हाले बैठे हैं।

(फ़ुरक़त = विरह), (क़ुर्बत = नज़दीकी)

हमको डर है बस तेरी रुसवाई का
इस ख़ातिर हर बात सम्हाले बैठे हैं।

(रुसवाई = बदनामी)

शहरों में ले आया हमको रिज़्क़ मगर
भीतर हम देहात सम्हाले बैठे हैं।

(रिज़्क़ = आजीविका)

बच्चों के उजले मुस्तक़बिल की ख़ातिर
हम मुश्किल हालात सम्हाले बैठे हैं।

(मुस्तक़बिल = भविष्य)

हमने तो बस एक ख़ुशी ही मांगी थी
अब ग़म की इफ़रात सम्हाले बैठे हैं।

(इफ़रात = अधिकता, प्रचुरता)

वादे, धोखे, आंसू,आहें और जफ़ा
तेरी सब सौग़ात सम्हाले बैठे हैं।

(जफ़ा =अत्याचार, अन्याय)

 - विकास वाहिद २/१२/२०१९

Tuesday, August 27, 2019

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं
जुर्म कर ले है इसकी सज़ा कुछ नहीं।

उम्र भर की वो बैठा है फ़िक्रें लिए
कल का जिस आदमी को पता कुछ नहीं।

क़द्र अश्क़ों की कीजे के मोती हैं ये
इनसे बढ़ कर जहां में गरां कुछ नहीं।

(गरां = महंगा / कीमती)

सानिहा अब ये है देख कर ज़ुल्म भी
इन रगों में मगर खौलता कुछ नहीं।

(सानिहा = दुर्भाग्य/ विडम्बना)

बोलते हो अगर सच तो ये सोच लो
आज के दौर में है जज़ा कुछ नहीं।

(जज़ा = ईनाम / reward)

ज़िन्दगी जैसे बोझिल हैं अख़बार भी
रोज़ पढ़ते हैं लेकिन नया कुछ नहीं।

मैं सज़ा में बराबर का हक़दार हूँ
ज़ुल्म देखा है लेकिन कहा कुछ नहीं।

जानते सब हैं सब छूटना है यहीं
जीते जी तो मगर छूटता कुछ नहीं।

ज़िन्दगी उस मकां पे है "वाहिद' के अब
हसरतें कुछ नहीं मुद्दआ कुछ नहीं।

(मुद्दआ = matter / issue)

- विकास "वाहिद" २३ अगस्त २०१९

Sunday, August 25, 2019

तुम ग़ैरों से हँस हँस के, मुलाक़ात करो हो

तुम ग़ैरों से हँस हँस के, मुलाक़ात करो हो
और हम से वही ज़हर-भरी, बात करो हो

बच बच के गुज़र जाओ हो, तुम पास से मेरे
तुम तो ब-ख़ुदा ग़ैरों को भी, मात करो हो

नश्तर सा उतर जावे है, सीने में हमारे
जब माथे पे बल डाल के, तुम बात करो हो

तक़वे भी बहक जावें हैं, महफ़िल में तुम्हारी
तुम अपनी इन आँखों से, करामात करो हो

(तक़वे=पवित्र, पाक)

फूलों की महक आवे है, साँसों में तुम्हारी
मोती से बिखर जावें हैं, जब बात करो हो

हम ग़ैरों के आगे तुम्हें, क्या हाल बताएँ
पास आ के सुनो, दूर से क्या बात करो हो

क्या कह के पुकारेंगे, तुम्हें लोग ये सोचो
"इक़बाल" पे तुम ज़ुल्म तो, दिन रात करो हो

-इक़बाल अज़ीम

Sunday, August 18, 2019

सब कुछ खो कर मौज उड़ाना, इश्क़ में सीखा

सब कुछ खो कर मौज उड़ाना, इश्क़ में सीखा
हम ने क्या क्या तीर चलाना, इश्क़ में सीखा

रीत के आगे प्रीत निभाना, इश्क़ में सीखा
साधू बन कर मस्जिद जाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ से पहले तेज़ हवा का, ख़ौफ़ बहुत था
तेज़ हवा में हँसना गाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ किया तो ज़ुल्म हुआ, और ज़ुल्म हुआ जब
ज़ुल्म के आगे सर न झुकाना, इश्क़ में सीखा

अपने दुख में रोना-धोना, आप ही आया
ग़ैर के दुख में ख़ुद को दुखाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ का जादू क्या होता है, हम से पूछो
धूल में मिल कर फूल खिलाना, इश्क़ में सीखा

कुछ भी 'हिलाल' अब डींगें मारो, लेकिन तुम ने
महफ़िल महफ़िल धूम मचाना, इश्क़ में सीखा

-हिलाल फ़रीद

Friday, July 5, 2019

ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना

ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना

(तौफ़ीक़ = सामर्थ्य, शक्ति), (तौफ़ीक़-ए-सफ़र = यात्रा करने की शक्ति/ क्षमता/ योग्यता)

गुफ़्तुगू तू ने सिखाई है कि मैं गूँगा था
अब मैं बोलूँगा तो बातों में असर भी देना

मैं तो इस ख़ाना-बदोशी में भी ख़ुश हूँ लेकिन
अगली नस्लें तो न भटकें उन्हें घर भी देना

ज़ुल्म और सब्र का ये खेल मुकम्मल हो जाए
उस को ख़ंजर जो दिया है मुझे सर भी देना


-मेराज फ़ैज़ाबादी

Saturday, June 1, 2019

मत पूछो के कितने पहुँचे

मत पूछो के कितने पहुँचे
पहुँचे जैसे तैसे पहुँचे

उस से छुप कर मिलना था
मुखबिर मुझ से पहले पहुँचे

पहले बाद में जा पहुँचे थे
बाद में जाकर पहले पहुँचे

झूठ गवाही माँग रहा था
सबसे पहले सच्चे पहुँचे

रस्ते में क्या ज़ुल्म हुआ है
जो भी पहुँचे रोते पहुँचे

मेरे साथ तो बस इक दो थे
जाने बाकी कैसे पहुँचे

-ज़हरा शाह


مت پوچھو کہ کتنے پہنچے
پہنچے جیسے تیسے پہنچے

اس سے چھپ کر ملنا تھا پر
مخبر مجھ سے پہلے پہنچے

پہلے بعد میں جا پہنچے تھے
بعد میں جا کر پہلے پہنچے

جھوٹ گواہی مانگ رہا تھا
سب سے پہلے سچے پہنچے

رستے میں کیا ظلم ہوا ہے
جو بھی پہنچے روتے پہنچے

میرے ساتھ تو بس اک دو تھے
جانے باقی کیسے پہنچے

زہرا شاہ

Mat poocho ke kitne pohanche
Pohanche jaise tese pohanche

Us se chup kar milna tha
Mukhbar mujh se pehle pohanche

Pehle baad mein ja pohanche the
Baad mein ja kar pehle pohanche

Jhoot gawahi maang raha tha
Sab se pehle sache pohanche

Raste mein kya zulm hua hai
Jo bhi pohanche rote pohanche

Mere sath tou bss ik do the
Jaane baki kaise pohanche

-Zahra shah

Thursday, February 21, 2019

तुम मुझको कब तक रोकोगे

मुठ्ठी में कुछ सपने लेकर, भरकर जेबों में आशाएं
दिल में है अरमान यही, कुछ कर जाएं, कुछ कर जाएं
सूरज-सा तेज नहीं मुझमें, दीपक-सा जलता देखोगे
अपनी हद रौशन करने से, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोकोगे

मैं उस माटी का वृक्ष नहीं, जिसको नदियों ने सींचा है
बंजर माटी में पलकर मैंने, मृत्यु से जीवन खींचा है
मैं पत्थर पर लिखी इबारत हूँ, शीशे से कब तक तोड़ोगे
मिटने वाला मैं नाम नहीं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

इस जग में जितने ज़ुल्म नहीं, उतने सहने की ताकत है
तानों  के भी शोर में रहकर सच कहने की आदत है
मैं सागर से भी गहरा हूँ, तुम कितने कंकड़ फेंकोगे
चुन-चुन कर आगे बढूँगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

झुक-झुककर सीधा खड़ा हुआ, अब फिर झुकने का शौक नहीं
अपने ही हाथों रचा स्वयं, तुमसे मिटने का खौफ़ नहीं
तुम हालातों की भट्टी में, जब-जब भी मुझको झोंकोगे
तब तपकर सोना बनूंगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

-नामालूम






Wednesday, February 13, 2019

उस ज़ुल्म पे क़ुर्बां लाख करम, उस लुत्फ़ पे सदक़े लाख सितम
उस दर्द के क़ाबिल हम ठहरे, जिस दर्द के क़ाबिल कोई नहीं

क़िस्मत की शिकायत किससे करें, वो बज़्म मिली है हमको जहाँ
राहत के हज़ारों साथी हैं, दुःख-दर्द में शामिल कोई नहीं

-बासित भोपाली

Monday, November 7, 2016

ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग जो आएँ तो क्या करें

ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग जो आएँ तो क्या करें
सर दर पे उन के गर न झुकाएँ तो क्या करें

ख़ारों को भी नमी ही की हाजत है जब तो फिर
सहरा-ए-दिल न रो के भिगाएँ तो क्या करें

(हाजत = इच्छा, अभिलाषा, ख़्वाहिश)

अपनी तरफ़ से हमने परस्तिश तो ख़ूब की
इस पर भी वो नज़र से गिराएँ तो क्या करें

(परस्तिश = पूजा, आराधना)

हंस हंस के कर रहे हैं तमन्ना का ख़ून हम
यूँ रंग ज़िन्दगी में न लाएँ तो क्या करें

दम घोटती हैं बारहा तन्हाइयां मेरी
ख़ल्वत इसे न कह के छिपाएँ तो क्या करें

(बारहा = कई बार, अक्सर), (ख़ल्वत = एकांत, तन्हाई)

बन के तबीब आये मेरी ज़िन्दगी में जो
वो हाथ नब्ज़ को न लगाएँ तो क्या करें

 (तबीब = उपचारक, चिकित्सक)

नाज़-ओ-नियाज़ क्या, नहीं होता कलाम तक
हम ज़ार ज़ार रो भी न पाएँ तो क्या करें

(नाज़-ओ-नियाज़ = प्रेमी-प्रेमिका की आतंरिक चेष्ठाएँ, हाव-भाव, शोख़ियाँ)

-स्मृति रॉय

Zulm-o-sitam se tang jo aayeN to kya kareN
Sar dar pe unke gar na jhukayeN to kya kareN

KharoN ko bhi nami ki hi haajat hai jab to phir
Sahara-e-dil na ro ke bhigayeN to kya kareN

Apni taraf se hamne parstish to khoob ki
Is par bhi wo nazar se girayeN to kya kareN

Hans hans ke kar raheN haiN tamnna ka khoon ham
YuN rang zindgii meiN na layeN to kya kareN

Dam ghotii haiN barhaa tanhaeeyaN meri
Khalwat ise na kah ke chhipayeN to kya kareN

Ban ke tabeeb aaye merii zindgii meiN jo
Wo haath nabz ko na lagayeN to kya kareN

Naaz-o-niyaaz kya, nahiN hota kalaam tak
Ham zaar zaar ro bhi na paayeN to kya kareN

-Smriti Roy 

Wednesday, February 24, 2016

दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है

दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है
सहमा-सहमा-सा अब मेरा घर लगता है

साज़िश होती रहती है दीवार-ओ-दर में
घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है

झुक कर चलने की आदत पड़ जाए शायद
सर जो उठाऊँ दरवाज़े में सर लगता है

क्यों हर बार निशाना मैं ही बन जाता हूँ
क्यों हर पत्थर मेरे ही सर पर लगता है

ज़िक्र करूँ क्या उस की ज़ुल्म ओ तशद्दुद का मैं
फूल भी जिसके हाथों में पत्थर लगता है

(तशद्दुद = सख़्ती, अत्याचार)

लौट के आया हूँ मैं तपते सहराओं से
शबनम का क़तरा मुझको सागर लगता है

(सहराओं = रेगिस्तानों), (शबनम = ओस)

ठीक नहीं है इतना अच्छा बन जाना भी
जिस को देखूँ वो मुझ से बेहतर लगता है

इक मुद्दत पर 'आलम' बाग़ में आया हूँ मैं
बदला-बदला-सा हर इक मंज़र लगता है

- आलम खुर्शीद

Friday, December 25, 2015

कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है
-मुज़फ़्फ़र वारसी

(एजाज़-ए-सुख़न = कविता/ शायरी करने का चमत्कार)
 

Sunday, May 18, 2014

किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ

किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ

वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ

दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ

ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ

-अहमद नदीम क़ासमी


Saturday, December 7, 2013

जो बाग़ के फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते

जो बाग़ के फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते
हम ऐसे उजालों की हिमायत नहीं करते

जूड़े में ही सजने का फ़क़त शौक़ है जिनको
हम ऐसे गुलाबों से मुहब्बत नहीं करते

ज़िंदा हैं मेरे शहर में क्यों ज़ुल्म अभी तक
मुंसिफ तो गुनाहों की वकालत नहीं करते

(मुंसिफ़ = इन्साफ या न्याय करने वाला)

होने लगी शालाओं में ये कैसी पढ़ाई
अब बच्चे बुज़ुर्गों की भी इज़्ज़त नहीं करते

-हस्तीमल 'हस्ती'

Thursday, June 27, 2013

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क-ए-इन्साफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
तेग़-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा

[(ख़ाक-ए-सहरा = मरुस्थल की रेत), (कफ़-ए-क़ातिल = हत्यारे की हथेली), (फ़र्क-ए-इन्साफ़ = न्याय के सिर),  (पा-ए-सलासिल = बेड़ियों के पैरों पर), (तेग़-ए-बेदाद = अत्याचार की तलवार), (लाश-ए-बिस्मिल = घायल देह)]

लाख बैठे कोई छुप छुप के कमींगाहों में
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़
साजिशें लाख उढ़ाती रहें ज़ुल्मत का नक़ाब
लेके हर बूँद निकलती है हथेली पे चिराग़

[(कमींगाहों = वह स्थान जहां से छुपकर वार किया जाए), (जल्लाद = कसाई), (मस्कन = ठिकाना, रहने की जगह), (सुराग़ = पता), (ज़ुल्मत = अँधेरा)]

ज़ुल्म की किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा से कहो
जब्र की हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा से कहो
महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है, दामन पे लपक सकता है
शोलए-तुंद है , ख़िरमन पे लपक सकता है

[(किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा =  व्यर्थ और अपमानित भाग्य), (जब्र = क्रूरता), (हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा = चतुरतापूर्ण उपाय), (महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला = संयुक्त राष्ट्र संघ), (शोलए-तुंद= भीषण ज्वाला), (ख़िरमन = अन्न का ढेर)]

तुम ने जिस ख़ून को मक़तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बन के
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों से

[(मक़तल = वधस्थल), (आईन = विधान, क़ानून)]

ज़ुल्म की बात ही क्या, ज़ुल्म की औकात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है , आग़ाज़ से अंजाम तलक
ख़ून फिर ख़ून है , सौ शक्ल बदल सकता है-
ऐसी शक्लें के मिटाओ तो मिटाए न बने
ऐसे शोले, कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे, कि दबाओ तो दबाये न बने ।

(आग़ाज़ से अंजाम = आरंभ से अंत तक)

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

-साहिर लुधियानवी 

Saturday, June 15, 2013

जब मेरी हक़ीक़त जा जा कर, उन को जो सुनाई लोगों ने
कुछ सच भी कहा, कुछ झूठ कहा, कुछ बात बनाई लोगों ने

ढाये हैं हमेशा ज़ुल्म-ओ-सितम, दुनिया ने मुहब्बत वालों पर
दो दिल को कभी मिलने न दिया, दीवार उठाई लोगों ने

आँखों से न आँसू पोंछ सके, होंठों पे ख़ुशी देखी न गई
आबाद जो देखा घर मेरा, तो आग लगाई लोगों ने

तनहाई का साथी मिल न सका, रुस्वाई में शामिल शहर हुआ
पहले तो मेरा दिल तोड़ दिया, फिर ईद मनाई लोगों ने

इस दौर में जीना मुश्किल है, ऐ 'अश्क़' कोई आसान नहीं
हर इक क़दम पर मरने की, अब रस्म चलाई लोगों ने
-इब्राहीम अश्क़


Friday, October 5, 2012

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे
ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख़ों से भी फुँकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के अलम
मक़्तलों में पहुँच कर भी झुकते नहीं

ख़्वाब तो हर्फ़ हैं
ख़्वाब तो नूर हैं
ख़्वाब सुकरात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं
-अहमद फ़राज़

[(रेज़ा-रेज़ा = टुकड़े टुकड़े); (नवा = गीत, आवाज़, शब्द); (अलम = पताकाएँ); (मक़्तल = वधस्थल); (हर्फ़ = अक्षर, लिखावट)]

Monday, October 1, 2012

तुम नहीं ग़म नहीं शराब नहीं
ऐसी तन्हाई का जवाब नहीं

गाहे-गाहे इसे पढ़ा कीजे
दिल से बेहतर कोई किताब नहीं
(गाहे-गाहे = कभी कभी)

जाने किस किस की मौत आयी है
आज रुख़ पर कोई नक़ाब नहीं

वो करम उँगलियों पे गिनते हैं
ज़ुल्म का जिनके कुछ हिसाब नहीं

-सईद राही

http://www.youtube.com/watch?v=dqjNFqGcJXA

Friday, September 28, 2012

हम जौर भी सह लेंगे मगर डर है तो यह है
ज़ालिम को कभी फूलते-फलते नहीं देखा

अहबाब की यह शाने-हरीफ़ाना सलामत
दुश्मन को भी यूं ज़हर उगलते नहीं देखा

वोह राह सुझाते हैं, हमें हज़रते-रहबर
जिस राह पे उनको कभी चलते नहीं देखा
-अर्श मलसियानी

1. जौर = अत्याचार, ज़ुल्म
2. अहबाब = दोस्त, मित्र
3. शाने-हरीफ़ाना = चालाकी
4. रहबर = पथ प्रदर्शक

Thursday, September 27, 2012

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है


मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है

ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है
-मुनव्वर राना