Thursday, June 27, 2013

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क-ए-इन्साफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
तेग़-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा

[(ख़ाक-ए-सहरा = मरुस्थल की रेत), (कफ़-ए-क़ातिल = हत्यारे की हथेली), (फ़र्क-ए-इन्साफ़ = न्याय के सिर),  (पा-ए-सलासिल = बेड़ियों के पैरों पर), (तेग़-ए-बेदाद = अत्याचार की तलवार), (लाश-ए-बिस्मिल = घायल देह)]

लाख बैठे कोई छुप छुप के कमींगाहों में
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़
साजिशें लाख उढ़ाती रहें ज़ुल्मत का नक़ाब
लेके हर बूँद निकलती है हथेली पे चिराग़

[(कमींगाहों = वह स्थान जहां से छुपकर वार किया जाए), (जल्लाद = कसाई), (मस्कन = ठिकाना, रहने की जगह), (सुराग़ = पता), (ज़ुल्मत = अँधेरा)]

ज़ुल्म की किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा से कहो
जब्र की हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा से कहो
महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है, दामन पे लपक सकता है
शोलए-तुंद है , ख़िरमन पे लपक सकता है

[(किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा =  व्यर्थ और अपमानित भाग्य), (जब्र = क्रूरता), (हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा = चतुरतापूर्ण उपाय), (महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला = संयुक्त राष्ट्र संघ), (शोलए-तुंद= भीषण ज्वाला), (ख़िरमन = अन्न का ढेर)]

तुम ने जिस ख़ून को मक़तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बन के
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों से

[(मक़तल = वधस्थल), (आईन = विधान, क़ानून)]

ज़ुल्म की बात ही क्या, ज़ुल्म की औकात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है , आग़ाज़ से अंजाम तलक
ख़ून फिर ख़ून है , सौ शक्ल बदल सकता है-
ऐसी शक्लें के मिटाओ तो मिटाए न बने
ऐसे शोले, कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे, कि दबाओ तो दबाये न बने ।

(आग़ाज़ से अंजाम = आरंभ से अंत तक)

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

-साहिर लुधियानवी 

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