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Friday, August 5, 2022

कर लूंगा जमा दौलत ओ ज़र उस के बाद क्या

कर लूंगा जमा दौलत-ओ-ज़र उस के बाद क्या
ले   लूँगा  शानदार  सा  घर  उस  के  बाद क्या

(ज़र = धन-दौलत, रुपया-पैसा)

मय की तलब जो होगी तो बन जाऊँगा मैं रिन्द
कर लूंगा मयकदों का सफ़र उस के बाद क्या

(रिन्द = शराबी)

होगा जो शौक़ हुस्न से राज़-ओ-नियाज़ का
कर  लूंगा  गेसुओं में सहर उस के बाद क्या

(राज़-ओ-नियाज़ = राज़ की बातें, परिचय, मुलाक़ात), (गेसुओं =ज़ुल्फ़ें, बाल), (सहर = सुबह)

शे'र-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊँगा महफ़िलें
दुनिया  में  होगा नाम मगर उस के बाद क्या

(शे'र-ओ-सुख़न = काव्य, Poetry)

मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूँगा सैर
वापस  वही  पुराना नगर उस के बाद क्या

इक रोज़ मौत ज़ीस्त का दर खटखटाएगी 
बुझ जाएगा चराग़-ए-क़मर उस के बाद क्या

(ज़ीस्त = जीवन), (चराग़-ए-क़मर = जीवन का चराग़)

उठी   थी   ख़ाक,   ख़ाक  से  मिल  जाएगी  वहीं
फिर उस के बाद किस को ख़बर उस के बाद क्या

-ओम प्रकाश भंडारी "क़मर" जलालाबादी 









Wednesday, September 23, 2020

नज़र जमी है तारों पर

नज़र जमी है तारों पर
चलना है अंगारों पर

ज़ख़्म दिए सब फूलों ने
तोहमत आई ख़ारों पर

(तोहमत=इल्ज़ाम), (ख़ार=काँटा)

घर, घरवालों ने लूटा
शक है पहरेदारों पर

गुम-सुम पँछी बैठे हैं
सब बिजली के तारों पर

सुर्ख़ लहू के फूल खिले
ज़ंग लगी तलवारों पर

"शाहिद" जितना ख़ून बहा
रंग चढ़ा अख़बारों पर

- शाहिद मीर


Friday, July 31, 2020

कुछ मरासिम तो निभाया कीजिए

कुछ मरासिम तो निभाया कीजिए
कम से कम ख़्वाबों में आया कीजिए।

(मरासिम = मेल-जोल, प्रेम-व्यवहार, संबंध)

चाहिए सबको यहां खुशरंग शै
कर्ब चेहरे पे न लाया कीजिए।

(कर्ब = पीड़ा, दर्द, दुःख, बेचैनी)

जिसके दर से चल रहा है ये जहां
उसके दर पे सर झुकाया कीजिए।

ज़िन्दगी है चार दिन का इक सफ़र
इसको नफ़रत में न ज़ाया कीजिए।

(ज़ाया = बर्बाद,नष्ट)

उम्र भर को घर बना लेती है फिर
बात दिल से मत लगाया कीजिए।

उसके दर पे रोज़ जा के बैठिए
रोज़ क़िस्मत आज़माया कीजिए।

दिन की सारी फ़िक्र बाहर छोड़ कर
हंसता चेहरा घर पे लाया कीजिए।

- विकास वाहिद
25/7/20

Sunday, May 10, 2020

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है
जान-बूझ कर धोका खाना कितना अच्छा लगता है

ईंट और पत्थर मिट्टी गारे के मज़बूत मकानों में
पक्की दीवारों के पीछे हर घर कच्चा लगता है

आप बनाता है पहले फिर अपने आप मिटाता है
दुनिया का ख़ालिक़ हम को इक ज़िद्दी बच्चा लगता है

(ख़ालिक़ = बनानेवाला, सृष्टिकर्ता, ईश्वर)

इस ने सारी क़स्में तोड़ें सारे वा'दे झूटे थे
फिर भी हम को उस का होना अब भी अच्छा लगता है

उसे यक़ीं है बे-ईमानी बिन वो बाज़ी जीतेगा
अच्छा इंसाँ है पर अभी खिलाड़ी कच्चा लगता है

-दीप्ति मिश्रा

Friday, May 8, 2020

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना
जो लिखना कभी तो मुहब्बत पे लिखना।

है ग़ाफ़िल बहुत ही यतीमों से दुनिया
लिखो तुम तो उनकी अज़ीयत पे लिखना।

(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (अज़ीयत = पीड़ा, अत्याचार, व्यथा, यातना, कष्ट, तक़लीफ़)

चले जब हवा नफ़रतों की वतन में
ज़रूरी बहुत है मुहब्बत पे लिखना।

हसीनों पे लिखना अगर हो ज़रूरी
तो सूरत नहीं उनकी सीरत पे लिखना।

अगर बात निकले लिखो अपने घर पे
इबादत बराबर है जन्नत पे लिखना।

सितम कौन समझा है इसके कभी भी
है मुश्किल ज़माने की फितरत पे लिखना।

अगर मुझपे लिखना पड़े बाद मेरे
तो चाहत पे लिखना अक़ीदत पे लिखना।

(अक़ीदत = श्रद्धा, आस्था, विश्वास)

-विकास वाहिद

Sunday, April 19, 2020

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्स-ओ-क़मर नहीं रखते।

 (शम्स-ओ-क़मर = सूरज और चन्द्रमा)

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराह-ए-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

(बराह-ए-रास्त = सीधे - सीधे)

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये माल-ओ-ज़र नहीं रखते।

(माल-ओ-ज़र = धन-संपत्ति)

दिल में आये जो उसे कर गु़जरते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

(शाने = कन्धे)

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूस-ओ-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीन-ए-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

(पैहम = लगातार),  (मकीन-ए-दिल = दिल का निवासी)

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।

(दियार = इलाका)

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Wednesday, April 15, 2020

दिल मुसाफ़िर ही रहा सू-ए-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

(सू-ए-सफ़र = यात्रा की ओर), (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल, विचार, याद),

कितने ख़्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कू-ए-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

(कू-ए-माज़ी = अतीत की गली)

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

(लफ़्जे-शीरीं = मीठे शब्द), (पोशीदा = छिपा हुआ)

नाम हमने जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

(शज़र = पेड़, वृक्ष)

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Saturday, April 11, 2020

मैं घुटनें टेक दूँ इतना कभी मजबूर मत करना

मैं घुटनें टेक दूँ इतना कभी मजबूर मत करना
ख़ुदाया थक गई हूँ पर थकन से चूर मत करना

मुझे मालूम है अब मैं किसी की हो नहीं सकती
तुम्हारा साथ गर माँगू तो तुम मंज़ूर मत करना

लो तुम भी देख लो कि मैं कहाँ तक देख सकती हूँ
ये आँखें तुम को देखें तो इन्हें बेनूर मत करना

यहाँ की हूँ वहाँ की हूँ, ख़ुदा जाने कहाँ की हूँ
मुझे दूरी से क़ुर्बत है ये दूरी दूर मत करना

(क़ुर्बत = नज़दीकी)

न घर अपना न दर अपना, जो कमियाँ हैं वो कमियाँ हैं
अधूरेपन की आदी हूँ मुझे भरपूर मत करना

जो शोहरत के लिए गिरना पड़े ख़ुद अपनी नज़रों से
तो फिर मेरे ख़ुदा हरगिज़ मुझे मशहूर मत करना


-दीप्ति मिश्र 

Monday, November 25, 2019

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है
जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है

सबूत है मेरे घर में धुएं के ये धब्बे
कभी यहाँ पे उजालों ने ख़ुदकुशी की है

ना लड़खडायाँ कभी और कभी ना बहका हूँ 
मुझे पिलाने में  फिर तुमने क्यूँ कमी की है

कभी भी वक़्त ने उनको नहीं मुआफ़ किया
जिन्होंने दुखियों के अश्कों से दिल्लगी की है

(अश्कों = आँसुओं)

किसी के ज़ख़्म को मरहम दिया है गर तूने
समझ ले तूने ख़ुदा की ही बंदगी की है

-गोपालदास नीरज

Thursday, October 24, 2019

एक पुराने दुःख ने पुछा

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

जग ने मेरे सुख-पन्छी के पाँखों में पत्थर बांधे हैं
मेरी विपदाओं ने अपने पैरों मे पायल साधे हैं
एक वेदना मुझसे बोली मैंने अपनी आँख न खोली
उत्तर दिया, चली मत आना मैंने वो उर बदल दिया है

(उर = ह्रदय, दिल)

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

वैरागिन बन जाएँ वासना, बना सकेगी नहीं वियोगी
साँसों से आगे जीने की हठ कर बैठा मन का योगी
एक पाप ने मुझे पुकारा मैंने केवल यही उचारा
जो झुक जाए तुम्हारे आगे मैंने वो सर बदल दिया है

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

मन की पावनता पर बैठी, है कमजोरी आँख लगाए
देखें दर्पण के पानी से, कैसे कोई प्यास बुझाए
खंडित प्रतिमा बोली आओ, मेरे साथ आज कुछ गाओ
उत्तर दिया, मौन हो जाओ, मैंने वो स्वर बदल दिया है

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

-शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

Sunday, September 29, 2019

अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं

अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
अभी ज़िंदगी के बहाने बहुत हैं

ये दुनिया हक़ीक़त की क़ाइल नहीं है
फ़साने सुनाओ फ़साने बहुत हैं

(क़ाइल = सहमत, राज़ी)

तिरे दर के बाहर भी दुनिया पड़ी है
कहीं जा रहेंगे ठिकाने बहुत हैं

मिरा इक नशेमन जला भी तो क्या है
चमन में अभी आशियाने बहुत हैं

(नशेमन = घोंसला), (चमन = बगीचा)

नए गीत पैदा हुए हैं उन्हीं से
जो पुर-सोज़ नग़्मे पुराने बहुत हैं

(पुर-सोज़ = जलन और तपन से भरा हुआ)

दर-ए-ग़ैर पर भीक माँगो न फ़न की
जब अपने ही घर में ख़ज़ाने बहुत हैं

हैं दिन बद-मज़ाक़ी के 'नौशाद' लेकिन
अभी तेरे फ़न के दिवाने बहुत हैं

-नौशाद लखनवी (संगीतकार जनाब नौशाद साहब)

Friday, September 27, 2019

आँखें खुली हुई हैं तो मंज़र भी आएगा

आँखें खुली हुई हैं तो मंज़र भी आएगा
काँधों पे तेरे सर है तो पत्थर भी आएगा

हर शाम एक मसअला घर भर के वास्ते
बच्चा ब-ज़िद है चाँद को छू कर भी आएगा

इक दिन सुनूँगा अपनी समाअत पे आहटें
चुपके से मेरे दिल में कोई डर भी आएगा

 (समाअत = सुनना, सुनवाई)

तहरीर कर रहा है अभी हाल-ए-तिश्नगाँ
फिर इस के बाद वो सर-ए-मिंबर भी आएगा

(तहरीर = लेख, लिखावट), (हाल-ए-तिश्नगाँ = प्यासे का हाल), (सर-ए-मिंबर = मंच के ऊपर)

हाथों में मेरे परचम-ए-आग़ाज़-ए-कार-ए-ख़ैर
मेरी हथेलियों पे मिरा सर भी आएगा

(परचम-ए-आग़ाज़-ए-कार-ए-ख़ैर = अच्छा काम शुरू करने का झंडा, Flag of the beginning of good work)

मैं कब से मुंतज़िर हूँ सर-ए-रहगुज़ार-ए-शब
जैसे कि कोई नूर का पैकर भी आएगा

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (सर-ए-रहगुज़ार-ए-शब = रात के रास्ते पर), (नूर = प्रकाश, ज्योति, आभा, रोशनी, शोभा, छटा, रौनक, चमक-दमक), (पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख, जिस्म)

-अमीर क़ज़लबाश

Wednesday, September 25, 2019

इधर फ़लक को है ज़िद बिजलियाँ गिराने की
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की
-शायर: नामालूम

Monday, September 9, 2019

इस जिस्म की निभी ही नहीं रूह़ से कभी
झगड़ा रहा मकान का अपने मकीं के साथ
- राजेश रेड्डी

(मकीं = मकान में रहने वाला, निवासी)

Wednesday, August 14, 2019

हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते

हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते

कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते

आँखों में नमक है तो नज़र क्यूँ नहीं आता
पलकों पे गुहर हैं तो बिखर क्यूँ नहीं जाते

(गुहर = मोती)

अख़बार में रोज़ाना वही शोर है यानी
अपने से ये हालात सँवर क्यूँ नहीं जाते

ये बात अभी मुझ को भी मालूम नहीं है
पत्थर इधर आते हैं उधर क्यूँ नहीं जाते

तेरी ही तरह अब ये तिरे हिज्र के दिन भी
जाते नज़र आते हैं मगर क्यूँ नहीं जाते

(हिज्र = जुदाई)

अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते

-महबूब ख़िज़ां

Monday, August 12, 2019

ग़म का कारोबार न छूटा

ग़म का कारोबार न छूटा
जीवन भर संसार न छूटा

हम भी गौतम हो सकते थे
पर हमसे घर-बार न छूटा

कौन है ऐसा जिसका जहाँ में
कोई कहीं उस पार न छूटा

अम्न की ख़्वाहिश थी सीने में
हाथ से पर हथियार न छूटा

छूट गया सब काम का लेकिन
जो कुछ था बेकार न छूटा

जो इक बार हुआ दरबारी
उससे फिर दरबार न छूटा

छोड़ दिया बाज़ार ने हमको
पर हमसे बाज़ार न छूटा

-राजेश रेड्डी

Tuesday, July 30, 2019

अपना लगता है पर नहीं होता

अपना लगता है पर नहीं होता
घर किराये का घर नहीं होता

मुल्के हिन्दोस्तान है, वरना
तेरी गर्दन पे सर नहीं होता

ज़िन्दगी से घटा के देख लिया
ग़म किसी का सिफ़र नहीं होता

(सिफ़र = शून्य)

प्यार की इक यही ख़राबी है
हो इधर तो उधर नहीं होता

एक चेहरे के रूठ जाने से
आइना तरबतर नहीं होता

मेरी मुश्किल मलंग इतनी हैं
मेरा मुझ पे असर नहीं होता

-सुधीर बल्लेवार 'मलंग'

Saturday, July 6, 2019

मुझ को ये फ़िक्र कब है कि, साया कहाँ गया

मुझ को ये फ़िक्र कब है कि, साया कहाँ गया
सूरज को रो रहा हूँ, ख़ुदाया कहाँ गया

फिर आइने में ख़ून, दिखाई दिया मुझे
आँखों में आ गया तो, छुपाया कहाँ गया

आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
लेकिन ख़बर नहीं कि, बुलाया कहाँ गया

कितने चराग़ घर में, जलाए गए न पूछ
घर आप जल गया है, जलाया कहाँ गया

ये भी ख़बर नहीं है कि, हमराह कौन है
पूछा कहाँ गया है, बताया कहाँ गया

वो भी बदल गया है, मुझे छोड़ने के बाद
मुझ से भी अपने आप में, आया कहाँ गया

तुझ को गँवा दिया है, मगर अपने आप को
बर्बाद कर दिया है, गँवाया कहाँ गया

-फ़ैसल अजमी

Friday, July 5, 2019

ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना

ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना

(तौफ़ीक़ = सामर्थ्य, शक्ति), (तौफ़ीक़-ए-सफ़र = यात्रा करने की शक्ति/ क्षमता/ योग्यता)

गुफ़्तुगू तू ने सिखाई है कि मैं गूँगा था
अब मैं बोलूँगा तो बातों में असर भी देना

मैं तो इस ख़ाना-बदोशी में भी ख़ुश हूँ लेकिन
अगली नस्लें तो न भटकें उन्हें घर भी देना

ज़ुल्म और सब्र का ये खेल मुकम्मल हो जाए
उस को ख़ंजर जो दिया है मुझे सर भी देना


-मेराज फ़ैज़ाबादी

Wednesday, June 26, 2019

मुसलसल चोट खा कर देख ली है

मुसलसल चोट खा कर देख ली है
ये दुनिया आज़मा कर देख ली है।

(मुसलसल = लगातार)

कोई मुश्किल न कम होती है मय से
ये शै मुंह से लगा कर देख ली है।

(शै = वस्तु, पदार्थ, चीज़)

मिला किसको इलाज-ए-इश्क़ अब तक
यहाँ सब ने दवा कर देख ली है।

यक़ीं अपनों पे तुम करने चले हो
यूं हमने ये ख़ता कर देख ली है।

अधूरी सी अड़ी है ज़िद पे अब तक
तमन्ना बरगला कर देख ली है।

(बरगलाना = बहकाना, भटकाना, दिग्भ्रमित करना, गुमराह करना, फुसलाना)

दुआओं से तो घर चलता नहीं है
दुआ हमने कमा कर देख ली है।

- विकास "वाहिद"
२५ जून २०१९