Showing posts with label -शायर: मोहसिन नक़वी. Show all posts
Showing posts with label -शायर: मोहसिन नक़वी. Show all posts

Wednesday, March 23, 2016

इतनी मुद्दत बाद मिले हो

इतनी मुद्दत बाद मिले हो
किन सोचों में ग़ुम रहते हो?

इतने ख़ाइफ़ क्यों रहते हो?
हर आहट से डर जाते हो

(ख़ाइफ़ = भयभीत, त्रस्त)

तेज़ हवा ने मुझ से पुछा
रेत पे क्या लिखते रहते हो?

काश कोई हमसे भी पूछे
रात गए तक क्यों जागे हो?

मैं दरिया से भी डरता हूँ
तुम दरिया से भी गहरे हो!

कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यों लगते हो?

पीछे मुड़ कर क्यों देखा था
पत्थर बन कर क्या तकते हो?

जाओ जीत का जश्न मनाओ!
मैं झूठा हूँ, तुम सच्चे हो

अपने शहर के सब लोगों से
मेरी खातिर क्यों उलझे हो?

कहने को रहते हो दिल में !
फिर भी कितने दूर खड़े हो

रात हमें कुछ याद नहीं था
रात बहुत ही याद आये हो

हमसे न पूछो हिज्र के किस्से
अपनी कहो अब तुम कैसे हो?

(हिज्र = बिछोह, जुदाई)

'मोहसिन' तुम बदनाम बहुत हो
जैसे हो, फिर भी अच्छे हो

-मोहसिन नक़वी

Ghulam Ali



Dilraj Kaur




Monday, November 24, 2014

मैने इस तौर से चाहा तुझे अक़्सर जानां

मैने इस तौर से चाहा तुझे अक़्सर जानां
जैसे महताब को बेअंत समंदर चाहे                                  (महताब = चन्द्रमा)
जैसे सूरज की किरन सीप के दिल में उतरे
जैसे ख़ुशबू को हवा , रंग से हट कर चाहे
जैसे पत्थर के कलेजे से किरन फूटती है
जैसे गुंचे खुले मौसम से हिना मांगते हैं
जैसे ख़्वाबों में ख़यालों की कमां टूटती है
जैसे बारिश की दुआ आबला -पा मांगते हैं                       (आबला-पा = छाले वाले पाँव)
मेरा हर ख़्वाब मेरे सच की गवाही देगा
वुसअत-ए-दीद ने तुझ से तेरी ख़्वाहिश की है                  (वुसअत-ए-दीद = नज़रों का विस्तार)
मेरी सोचों में कभी देख सरापा अपना                              (सरापा = सर से पाँव तक, आदि से अंत तक)
मैंने दुनिया से अलग तेरी परस्तिश की है                       (परस्तिश = पूजा, आराधना)

ख़्वाहिश-ए-दीद का मौसम कभी धुंधला जो हुआ             (ख़्वाहिश-ए-दीद = देखने की तमन्ना)
नोच डाली हैं ज़माने की नकाबें मैंने
तेरी पलकों पे उतरती हुई सुबहों के लिए
तोड़ डाली हैं सितारों की तनाबें मैंने                                 (तनाब = खेमा बाँधने की रस्सी)
मैने चाहा कि तेरे हुस्न कि गुलनार फ़िज़ा
मेरी ग़ज़लों की क़तारों में दहकती जाए
मैंने चाहा कि मेरे फ़न के गुलिस्ताँ की बहार
तेरी आँखों के गुलाबों से महकती जाए
तय तो ये था के सजते रहे लफ़्ज़ों के कंवल
मेरे ख़ामोश ख़यालों में तक़ल्लुम तेरा                             (तक़ल्लुम = बातचीत)
रक्स करता रहे , भरता रहे , ख़ुशबू का ख़ुमार
मेरी ख़्वाहिश के जज़ीरों में तबस्सुम तेरा
तू मगर अजनबी माहौल की पर्वर्दा किरन
मेरी बुझती हुई रातों को सहर कर न सकी                        (सहर = सुबह)
तेरी साँसों में मसीहाई तो थी लेकिन तू भी
चारा-ए-ज़ख़्म-ए-ग़म-ए-दीदा-ए-तर, कर न सकी

तुझ को एहसास ही कब है कि किसी दर्द का दाग़
आँख से दिल में उतर जाए तो क्या होता है
तू कि सीमाब तबीयत है तुझे क्या मालूम                         (सीमाब तबीयत = अधीर, व्याकुल)
मौसम-ए-हिज्र ठहर जाए तो क्या होता है                         (मौसम-ए-हिज्र = जुदाई का मौसम)
तू ने उस मोड पे तोड़ा है त ’अल्लुक कि जहां
देख सकता नहीं कोई भी पलट कर जानां
अब यह आलम है कि आँखें जो खुलेंगी अपनी
याद आएगा तेरी दीद का मंज़र जानां
मुझ से मांगेगा तेरे अहद-ए-मोहब्बत का हिसाब
तेरे हिज़्रा का दहकता हुआ महशर जानां               (महशर = फैसले का दिन, क़यामत का दिन)
यूं मेरे दिल के बराबर तेरा ग़म आया है
जैसे शीशे के मुक़ाबिल कोई पत्थर जानां

जैसे महताब को बेअंत समंदर चाहे
मैंने इस तौर से चाहा तुझे अक्सर जानां

-मोहसिन नक़वी




भुला दे मुझ को के बेवफ़ाई बजा है लेकिन
गँवा न मुझ को के मैं तेरी ज़िंदगी रहा हूँ

(बजा = उचित, मुनासिब, ठीक)

वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है 'मोहसिन'
ये नाज़ कम है के मैं भी उस का कभी रहा हूँ

-मोहसिन नक़वी

Wednesday, January 8, 2014

 वो मुझ को टूट के चाहेगा छोड़ जाएगा
 मुझे ख़बर थी उसे ये हुनर भी आता है
-मोहसिन नक़वी
 मैं देखूँ कब तलक मंज़र सुहाने, सब पुराने
 वही दुनिया, वही दिल का झमेला, मैं अकेला
-मोहसिन नक़वी