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Sunday, November 22, 2015

हँसते हँसते मेरी आँखें नम कर देते हैं

हँसते हँसते मेरी आँखें नम कर देते हैं
मुझको यूँ शर्मिंदा मेरे ग़म कर देते हैं

बात पता चलती है जब माँ की बीमारी की
भैया भाभी आना जाना कम कर देते हैं

शबनम को अंगारा कर देते हैं कुछ एहसास
और कभी अंगारों को शबनम कर देते हैं

(शबनम = ओस)

कुछ तो ज़माने की हवा भी बदली है
पूरी कसर कुछ मन के वहम कर देते हैं

हल्की हल्की बातें करके कुछ बेग़ैरत लोग
भारी भारी सा मन का मौसम कर देते हैं

आख़िर किस तहज़ीब पे आ कर ठहर गए हैं हम
अपनों को ही अपने गाली जम कर देते हैं

कोसों दूर चला जाता है साया भी हम से
समझ नहीं पाते क्या ऐसा हम कर देते हैं

-अशोक रावत

Sunday, November 15, 2015

बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता

बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता

भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो-अमाँ क़ायम नहीं होता

मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता

तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता

ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता

परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता

(दरख्त = पेड़)

-अशोक रावत

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ

मैंने सिर्फ उसूलों के बारे में सोचा भर था
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूँ

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ

मुझमें शायद थोड़ा सा आकाश कहीं पर होगा
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ

इसकी क़ीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूँ

खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूँ

-अशोक रावत