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Friday, September 28, 2012

इतना क्यों बेकल है भाई

इतना क्यों बेकल है भाई
हर मुश्किल का हल है भाई

सूखा नहीं अभी भी सारा
कुछ आँखों में जल है भाई

आँख भले ही टिकी गगन पर
पैरों नीचे थल है भाई

यहाँ ठोस ही जी पाऐगा
जीवन भले तरल है भाई

कहाँ सूद की बात करें अब
डूबा हुआ असल है भाई

वही जटिल होता है सबसे
कहना जिसे सरल है भाई

आप भले ही ना माने पर
हमने कही ग़ज़ल है भाई
-प्रदीप कांत

धूप खड़ी है बाहर देख

धूप खड़ी है बाहर देख
गीत गगन के गाकर देख

अगर परखना है सच को
खुद से आँख मिला कर देख

जिस पत्थर से खाई ठोकर
पूजा उसकी भी कर देख

खुद पर ही आएँगे छींटे
दामन ज़रा बचा कर, देख

रावण है, है नहीं विभिषण
अब तू तीर चला कर देख

नींद सुलाती है इस पर भी
धरती का ये बिस्तर देख
-प्रदीप कांत

कहाँ हमारा हाल नया है

कहाँ हमारा हाल नया है,
कहने को ही साल नया है।

कहता है हर बेचने वाला,
दाम पुराना माल नया है।

बड़े हुए हैं छेद नाव में,
माझी कहता पाल नया है।

इन्तज़ार है रोटी का बस,
आज हमारा थाल नया है।

लोग बेसुरे समझाते हैं,
नवयुग का सुर-ताल नया है।

नहीं सहेगा मार दुबारा,
गाँधी जी का गाल नया है।
-प्रदीप कांत
खुशी भले पैताने रखना
दुख लेकिन सिरहाने रखना

कब आ पहुँचे भूखी चिड़िया
छत पर कुछ तो दाने रखना

अर्थ कई हैं एक शब्द के
खुद में खुद के माने रखना

यूँ ही नहीं बहलते बच्चे
सच में कुछ अफ़साने रखना

घाघ हुऐ हैं आदमखोर
ऊँची और मचाने रखना

जब तुम चाहो सच हो जाएँ
कुछ तो ख़्वाब सयाने रखना
-प्रदीप कांत