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Wednesday, November 23, 2016

आज जाने की ज़िद न करो

आज जाने की ज़िद न करो
यूँ ही पहलू में बैठे रहो
हाय, मर जायेंगे
हम तो लुट जायेंगे
ऐसी बातें किया न करो

तुम ही सोचो ज़रा, क्यों न रोकें तुम्हें?
जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम
तुमको अपनी क़सम जान-ए-जाँ
बात इतनी मेरी मान लो
आज जाने की ज़िद न करो

वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर
चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
इनको खोकर कहीं, जान-ए-जाँ
उम्र भर न तरसते रहो
आज जाने की ज़िद न करो

कितना मासूम रंगीन है ये समाँ
हुस्न और इश्क़ की आज मेराज है       (मेराज = मिलन)
कल की किसको खबर जान-ए-जाँ
रोक लो आज की रात को
आज जाने की ज़िद न करो

-फ़य्याज़ हाशमी

Farida Khanum


Farida Khanum - Coke Studio




A R Rahman


Arijit Singh


Habib Wali Mohammad

Asha Bhosle



Shafkat Amanat Ali

Anup Jalota

Richa Sharma

Saturday, April 9, 2016

बहुत हो गया दिल जलाने का मौसम

बहुत हो गया दिल जलाने का मौसम
यही है यही मुस्कुराने का मौसम।

चलो आज फिर से कसम ये उठा लें
न आये कभी दिल दुखाने का मौसम।

सुनो आज मौसम यही कह रहा है
सभी से दिलों को मिलाने का मौसम।

कहीं आग से घर किसी का जले ना
लगी आग फिर से बुझाने का मौसम।

खिजाएं यहाँ फिर पलट कर न आएं
नए पेड़ फिर से लगाने का मौसम।

तुम्हारे हमारे सदा बीच हो अब
किये जो भी वादे निभाने का मौसम ।

बहुत ठण्ड है आज लेकिन करें क्या
तेरी आँख में डूब जाने का मौसम।

चलो हाथ दिल पर रखो और कह दो
यही है दिलों को मिलाने का मौसम।

मिला कर नज़र हो गए तुम परीशां
नरम धूप है गुनगुनाने का मौसम।

अगर हम बहकने लगें रोक देना
नहीं ये नहीं गुल खिलाने का मौसम।

किसी को किसी से मुहब्बत नहीं है
चलो 'आरसी' दूर जाने का मौसम।

-आर. सी . शर्मा "आरसी"

Saturday, August 16, 2014

एक बीमार की दवा जैसे
तुम मेरे पास हो ख़ुदा जैसे |

साँस-दर-साँस ज़िन्दगी का सफ़र
और तुम आखिरी हवा जैसे |

उनकी आँखों में बस मेरा चेहरा
आइनों से हो सामना जैसे |

रूह ! बेकार है बदन तुझ बिन
इक लिफ़ाफ़ा है बिन पता जैसे |

आपकी मुस्कुराहटों की कसम
हो गया जन्म दूसरा जैसे |

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Thursday, June 20, 2013

हम तो समझे दिल का मिलना पूर्व नियोजित होता है,
शायद तुम ही उबर न पाए आयातित सम्बन्धों से ।
उनकी करनी उनकी कथनी तीव्र विरोधाभासी है,
हम तो हैं प्रतिबद्ध ’आरसी’ मर्यादित सौगन्धों से ।
-आर० सी० शर्मा "आरसी"

Tuesday, February 26, 2013

तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है, तू मशीन नहीं।

(हलाक = मृत, शिथिल)

-दुष्यंत कुमार

Sunday, September 30, 2012

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू न हुई, वो सई-ए-करम फरमा भी गए

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू न हुई, वो सई-ए-करम फरमा भी गए,
इस सई-ए-करम को क्या कहिये, बहला भी गए तड़पा भी गए ।

[(तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू = दुखी/ व्यथित दिल को आराम) , (सई = प्रयत्न, कोशिश) , (करम = कृपा, अनुग्रह)]

हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके कुछ सुन न सके,
यां हम ने ज़बाँ ही खोली थी, वां आँख झुकी शर्मा भी गए ।

[अर्ज़-ए-वफ़ा = वादा पूरा करने का निवेदन]

अशुफ्तगी-ए-वहशत की कसम, हैरत की कसम, हसरत की कसम,
अब आप कहे कुछ या न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए ।

[अशुफ्तगी-ए-वहशत = दीवानगी की घबराहट, राज़-ए-तबस्सुम = मुस्कराहट का रहस्य]

रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन से, हम क्या कहते क्यूँकर कहते,
एक हर्फ़ न निकला होटों से और आँख में आंसूं आ भी गए ।

[(रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत = प्यार के दर्द का विवरण/ कहानी), (हर्फ़ = शब्द)]

अरबाब-ए-जुनूँ पे फुरकत में, अब क्या कहिये क्या क्या गुजरा,
आये थे सवाद-ए-उल्फत में, कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए ।

[(अरबाब-ए-जुनूँ = उन्माद की अवस्था में), (फुरकत = वियोग/ जुदाई), (सवाद-ए-उल्फत = प्यार की गली)]

ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है, क्या फिक्र है तुझ को ऐ साकी,
महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई, कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए ।

इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में,
सब ज़ाम-ब-क़फ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए ।

[(महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती = ख़ुशी और आनंद की महफ़िल), (अंजुमन-ए-इरफानी = ज्ञान की सभा), (ज़ाम-ब-क़फ = जाम हाथ में लेकर बैठना) ]

-मजाज़ लखनवी


अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको।

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको।

ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गवां ले मुझको।

मैं समन्दर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको।

मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यार
तू दबे पांव कभी आके चुराले मुझको।

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलाने वालो मुझको।

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको।
-क़तील शिफाई

Tuesday, September 25, 2012

हमने तो कल ही ये क़सम खायी थी,
कि अब न सहबा को मुंह लगायेंगे।
काश पहले से खबर होती
कि आज वो हमें खुद पिलायेंगे।
-नरेश कुमार शाद