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Tuesday, January 21, 2020

जो ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त से डर गए

जो ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त से डर गए
वो लोग अपनी मौत से पहले ही मर गए

आई कुछ ऐसी याद तेरी पिछली रात को
दामन पे बे-शुमार सितारे बिखर गए

छोड़ आए ज़िंदगी के लिए नक़्श-ए-जावेदाँ
दीवाने मुस्कुरा कर जिधर से गुज़र गए

(नक़्श-ए-जावेदाँ = ना मिटने वाला चिन्ह)

मेरी निगाह-ए-शौक़ के उठने की देर थी
यूँ मुस्कुराए वोह के मनाज़िर संवर गए

(मनाज़िर = दृष्यों, मंज़र का बहुवचन)

दुनिया में अब ख़ुलूस है बस मस्लहत का नाम
बे-लौस दोस्ती के ज़माने गुज़र गए

(ख़ुलूस = प्रेम, मुहब्बत), (मस्लहत = भला बुरा देख कर काम करना), (बे-लौस = बिना किसी स्वार्थ के)

-आरिफ़ अख़्तर

Tuesday, June 11, 2019

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग
सूखे हुए दरख़्त से फल चाहते हैं लोग

(मुस्तफ़ा = पवित्र, निर्मल), (अमल = काम), (दरख़्त = पेड़ वृक्ष)

काफ़ी है जिन के वास्ते छोटा सा इक मकाँ
पूछे कोई तो शीश-महल चाहते हैं लोग

साए की माँगते हैं रिदा आफ़्ताब से
पत्थर से आइने का बदल चाहते हैं लोग

(रिदा = ओढ़ने की चादर), (आफ़्ताब = सूरज)

कब तक किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का तज़्किरा
कुछ अपनी उलझनों का भी हल चाहते हैं लोग

(ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ = बिखरी हुई ज़ुल्फें), (तज़्किरा = संवाद, बात-चीत)

बार-ए-ग़म-ए-हयात से शाने हुए हैं शल
उकता के ज़िंदगी से अजल चाहते हैं लोग

(बार-ए-ग़म-ए-हयात = ज़िन्दगी के दुखों का बोझ , (शाने = कंधे), (शल = सुन्न,  बेसुध, संवेदनाशून्य), (अजल  = मृत्यु)

रखते नहीं निगाह तक़ाज़ों पे वक़्त के
तालाब के बग़ैर कँवल चाहते हैं लोग

जिस को भी देखिए है वही दुश्मन-ए-सुकूँ
क्या दौर है कि जंग-ओ-जदल चाहते हैं लोग

(जंग-ओ-जदल = लड़ाई-झगड़ा)

दरकार है नजात ग़म-ए-रोज़गार से
मिर्रीख़ चाहते हैं न ज़ुहल चाहते हैं लोग

(नजात = छुटकारा), (मिर्रीख़ = मंगल ग्रह), (ज़ुहल = शनि ग्रह)

'एजाज़' अपने अहद का मैं तर्जुमान हूँ
मैं जानता हूँ जैसी ग़ज़ल चाहते हैं लोग

(अहद = समय, वक़्त, युग), (तर्जुमान  = दुभाषिया, व्याख्याता, व्याख्याकार)

-एजाज़ रहमानी

Monday, May 6, 2019

इश्क़ की इक किताब जैसे हैं

इश्क़ की इक किताब जैसे हैं
हम महकते गुलाब जैसे हैं।

हमको रखना छुपा के आंखों में
हम सवेरे के ख़्वाब जैसे हैं।

मुश्किलों में भी काम आएंगे
तजुर्बों की किताब जैसे हैं।

ना तो पैकर कोई गुमाँ भी नहीं
हम तो बस इक सराब जैसे हैं।

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख), (सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका)

अब सजा दो हमें क़रीने से
एक ख़स्ता किताब जैसे हैं।

हमको भर लो निगाह में अपनी
डूबते आफ़ताब जैसे हैं।

(आफ़ताब = सूरज)

कब हुए हैं किसी भी आंगन के
एक उड़ते सहाब जैसे हैं।

(सहाब = बादल)

- विकास वाहिद ०६-०५-१९

Friday, March 1, 2019

ज़ब्त देखो उधर निगाह न की
मर गए मरते मरते आह न की
-अमीर मीनाई

Saturday, February 23, 2019

नज़र चुरा के वो गुज़रा क़रीब से लेकिन
नज़र बचा के मुझे देखता भी जाता था

ये ख़्वाब ही मिरी तन्हाइयों का हासिल था
ये ख़्वाब ही मिरी तन्हाइयाँ बढ़ाता था

-मुशफ़िक़ ख़्वाजा

Wednesday, February 13, 2019

पहली नज़र में कर न किसी नक़्श पर यक़ीं
लोगों को अपनी शक्ल बदलते हुए भी देख
-मुमताज़ राशिद

Wednesday, December 26, 2018

यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख

यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

ये ही लहू है शहादत ये ही लहू पानी
ख़िज़ाँ नसीब सही ज़ेहन में बहार भी रख

(ख़िज़ाँ = पतझड़),

घरों के ताक़ों में गुल-दस्ते यूँ नहीं सजते
जहाँ हैं फूल वहीं आस-पास ख़ार भी रख

पहाड़ गूँजें नदी गाए ये ज़रूरी है
सफ़र कहीं का हो दिल में किसी का प्यार भी रख

-निदा फ़ाज़ली

Thursday, June 7, 2018

फिर न मन में कभी मलाल आया

फिर न मन में कभी मलाल आया
नेकियाँ जब कुएँ में डाल आया।

होड़ सी लग रही थी जाने क्यूँ
मैं तो सिक्का वहाँ उछाल आया।

आज हम भी जवाब दे बैठे
बज़्म में फिर बड़ा उबाल आया।

फ़न की बारीकियाँ समझने का
उम्र के बाद ये कमाल आया।

फेर लीं आपने निगाहें जब
आज दिल में बड़ा मलाल आया।

इक ज़माने से ख़ुद परेशाँ थे
आज तबियत में कुछ उछाल आया।

'आरसी' झूठ जब नहीं बोला
आइने में कहाँ से बाल आया।

-आर. सी. शर्मा “आरसी”

Tuesday, March 28, 2017

अच्छी सूरत भी क्या बुरी शय है
जिस ने डाली बुरी नज़र डाली
-आलमगीर कैफ़ टोंकी

Tuesday, November 15, 2016

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए
तिरा वजूद है लाज़िम मिरी ग़ज़ल के लिए

कहाँ से ढूँढ के लाऊँ चराग़ सा वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कँवल कँवल के लिए

ये कैसा तजुर्बा मुझको हुआ है आज की रात
बचा के धड़कने रख ली हैं मैंने कल के लिए

किसी किसी के नसीबों में इश्क़ लिख्खा है
हर इक दिमाग़ भला कब है इस ख़लल के लिए

हुई न जुरअत-ए-गुफ़्तार तो सबब ये था
मिले न लफ़्ज़ तिरे हुस्न-ए-बे-बदल के लिए

(जुरअत-ए-गुफ़्तार = बात करने की हिम्मत), (सबब = कारण), ( हुस्न-ए-बे-बदल = अद्वितीय सौन्दर्य)

सदा जिये ये मिरा शहर-ए-बे-मिसाल जहाँ
हज़ार झोंपड़े गिरते हैं इक महल के लिए

'क़तील' ज़ख़्म सहूँ और मुस्कुराता रहूँ
बने हैं दायरे क्या क्या मिरे अमल के लिए

(अमल = आचरण, कार्य)

-क़तील शिफ़ाई




Tuesday, October 18, 2016

जब भी किसी निगाह ने मौसम सजाये हैं

जब भी किसी निगाह ने मौसम सजाये हैं
तेरे लबों के फूल बहुत याद आये हैं

निकले थे जब सफ़र पे तो महदूद था जहाँ
तेरी तलाश ने कई आलम दिखाये हैं

(महदूद = जिसकी हद बाँध दी गई हो, सीमित)

रिश्तों का ऐतबार, वफाओं का इंतज़ार
हम भी चिराग़ ले के हवाओं में आये हैं

रस्तों के नाम वक़्त के चेहरे बदल गए
अब क्या बताएँ किसको कहाँ छोड़ आये हैं

ऐ शाम के फ़रिश्तों ज़रा देख के चलो
बच्चों ने साहिलों पे घरोंदे बनाये हैं

-निदा फ़ाज़ली

धूप उठाता हूँ के अब सर पे कोई बार नहीं

धूप उठाता हूँ के अब सर पे कोई बार नहीं
बीच दीवार है और साया-ए-दीवार नहीं

(बार = बोझ, भार)

शहर की गश्ती में हैं सुबह से सारे मंसूर
अब तो मंसूर वही है जो सर-ए-दार नहीं

(मंसूर = विजेता, विजयी, एक सूफी संत जिन्होंने अनलहक़ (मैं ख़ुदा हूँ) कहा था और इस अपराध में उनकी गरदन काटी गई थी), (सर-ए-दार = सूली फाँसी पर)

 मत सुनो मुझसे जो आज़ार उठाने होंगे
अब के आज़ार ये फैला है के आज़ार नहीं

(आज़ार = दुःख, कष्ट, रोग)

सोचता हूँ के भला उम्र का हासिल क्या था
उम्र भर सांस लिए और कोई अंबार नहीं

जिन दुकानों ने लगाये थे निगह के बाज़ार
उन दुकानों का ये रोना है के बाज़ार नहीं

अब वो हालत है के थक कर मैं ख़ुदा हो जाऊँ
कोई दिलदार नहीं, कोई दिलाज़ार नहीं

(दिलदार = प्यारा, प्रेमपात्र), (दिलाज़ार = सताने वाला, कष्ट देने वाला, दिल दुखाने वाला)

मुझ से तुम काम न लो, काम में लाओ मुझको
कोई तो शहर में ऐसा है के बेकार नहीं

याद आशोब का आलम तो वो आलम है के अब
याद मस्तों को तेरी याद भी दरकार नहीं

(आशोब = उथल-पुथल, हलचल)

वक़्त को सूद पे दे और न रख कोई हिसाब
अब भला कैसा ज़ियाँ, कोई ख़रीदार नहीं

(ज़ियाँ = हानि, क्षति, घाटा)

-जॉन एलिया

Tuesday, May 31, 2016

तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया

तमाम उम्र चला हूँ मगर चला न गया
तेरी गली की तरफ़ कोई रास्ता न गया

तेरे ख़याल ने पहना शफ़क का पैराहन
मेरी निगाह से रंगों का सिलसिला न गया

(शफ़क = सुबह या शाम को आसमान की लाली), (पैराहन = वस्त्र)

बड़ा अजीब है अफ़साना-ए-मुहब्बत भी
ज़बाँ से क्या ये निगाहों से भी कहा न गया

उभर रहे हैं फ़ज़ाओं में सुब्ह के आसार
ये और बात मेरे दिल का डूबना न गया

खुले दरीचों से आया न एक झोंका भी
घुटन बढ़ी तो हवाओं से दोस्ताना गया

किसी के हिज्र से आगे बढ़ी न उम्र मेरी
वो रात बीत गई 'नक्श़' रतजगा न गया

(हिज्र = जुदाई, बिछोह)

-नक़्श लायलपुरी

Wednesday, February 24, 2016

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना
उदास आँखों में खुशरंग ख़्वाब रख देना

(सराब = मृगतृष्णा)

सदा से प्यास ही इस ज़िन्दगी का हासिल है
मेरे हिसाब में ये बेहिसाब रख देना

वफ़ा, ख़ुलूस, मुहब्बत, सराब ख़्वाबों के
हमारे नाम ये सारे अज़ाब रख देना

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां), (सराब = मृगतृष्णा), (अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

सुना है चाँद की धरती पे कुछ नहीं उगता
वहाँ भी गोमती, झेलम, चिनाब रख देना

क़दम क़दम पे घने कैक्टस उग आए हैं
मेरी निगाह में अक्से-गुलाब रख देना

(अक्से-गुलाब = गुलाब का प्रतिबिम्ब/ तस्वीर)

मैं खो न जाऊँ कहीं तीरगी के जंगल में
किसी शजर के तले आफ़ताब रख देना

(तीरगी = अन्धकार), (शजर = पेड़, वृक्ष), (आफ़ताब = सूरज)

- आलम खुर्शीद

Friday, February 5, 2016

ये कौन आता है तन्हाइयों में जाम लिए

ये कौन आता है तन्हाइयों में जाम लिए
जिलों में चाँदनी रातों का एहतमाम लिए

(जिलों = चमक-दमक, आभा), (एहतमाम = प्रबन्ध)

चटक रही है किसी याद की कली दिल में
नज़र में रक़्स-ए-बहाराँ की सुबह-ओ-शाम लिए

(रक़्स-ए-बहाराँ = बहारों का नृत्य)

हुजूम-ए-बादा-ओ-गुल में हुजूम-ए-याराँ में
किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए

(हुजूम-ए-बादा-ओ-गुल = शराब और फूलों के समूह), (हुजूम-ए-याराँ = दोस्तों की भीड़)

महक-महक के जगाती रही नसीम-ए-सहर
लबों पे यार-ए-मसीहा-नफ़स का नाम लिए

(नसीम-ए-सहर = सुबह की शीतल हवा), (यार-ए-मसीहा-नफ़स = ईसा मसीह की साँस की दोस्त :- इंजील के अनुसार हज़रत ईसा की फूँक से मुर्दे ज़िन्दा हो जाते थे)

किसी ख़याल की ख़ुशबू किसी बदन की महक
दर-ए-क़फ़स पे खड़ी है सबा पयाम लिए

(दर-ए-क़फ़स = पिंजरे/ जेल का दरवाज़ा), (सबा = मंद हवा), (पयाम = सन्देश)

बजा रहा था कहीं दूर कोई शहनाई
उठा हूँ, आँखों में इक ख़्वाब-ए-नातमाम लिए

(नातमाम = अधूरा स्वप्न)

-मख़्दूम मोइउद्दीन

Abida Parveen



Jagjit Singh

Friday, January 8, 2016

न अब वो प्यास न, प्यासे के ख़्वाब जैसा कुछ

न अब वो प्यास, न प्यासे के ख़्वाब जैसा कुछ
मगर है सामने अब तक सराब जैसा कुछ

(सराब = मृगतृष्णा)

अब उस का नाम, न् उसकी कोई कहानी याद
जो बरसों मैं ने पढ़ा था किताब कैसा कुछ

कोई शबीह निगाहों में दौड़ जाती है
कभी जो देखूँ कहीं माहताब जैसा कुछ

(शबीह = तस्वीर, चित्र), (माहताब = चन्द्रमा, चाँद)

कहीं सुकूं से मुझे रहने ही नहीं देता
मेरी रगों में रवां इज़्तिराब जैसा कुछ

(रवां = बहता हुआ), (इज़्तिराब = घबराहट, बेचैनी)

ख्याल आया कि लिक्खूँ मैं दास्ताँ अपनी
बना भी खाका तो खाना-खराब जैसा कुछ

(खाना-खराब = अभागा)

भटक रहा हूँ कि दरिया कहीं नज़र आए
उठाए फिरता हूँ सर पर अज़ाब जैसा कुछ

(अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट, पाप)

लरज़ रहे हैं मेरे दिल के तार भी 'आलम'
कहीं पे बजने लगा है रबाब जैसा कुछ

(रबाब = सारंगी की तरह का एक प्रकार का बाजा)

-आलम खुर्शीद

نہ اب وہ پیاس نہ پیاسے کے خواب جیسا کچھ
 مگر ہے سامنے اب تک سراب جیسا کچھ

اب اس کا نام نہ اس کی کوئی کہانی یاد
 جو برسوں پڑھتا رہا میں کتاب جیسا کچھ
 کوئی شبیہ نگاہوں میں دوڑ جاتی ہے
 کبھی جو دیکھوں کہیں ماہتاب جیسا کچھ
 مجھے سکوں سے کہیں رہنے ہی نہیں دیتا
 مرے لہو میں رواں اضطراب جیسا کچھ
 خیال آیا کہ لکھوں میں داستاں اپنی
 بنا بھی خاکہ تو خانہ خراب جیسا کچھ
 بھٹک رہا ہوں کہ دریا کہیں نظر آۓ
 اٹھاۓ پھرتا ہوں سر پر عذاب جیسا کچھ
 اب اس بساط پہ کوئی گمان کرنا کیا
 کہ بہتے آب پہ میں ہوں حباب جیسا کچھ
 لرز رہے ہیں مرے دل کے تار بھی عالم
 کہیں پہ بجنے لگا ہے رباب جیسا کچھ

Thursday, December 17, 2015

रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये

रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये
छालों को सफ़र के सर-ओ-सामान में रखिये

(इम्कान = संभावना), (सर-ओ-सामान = आवश्यक सामग्री, ज़रूरी चीज़ें)

वो दिन गए जब फिरते थे हाथों में लिये हाथ
अब उनकी निगाहों को भी एहसान में रखिये

ये जो है ज़मीर आपका, जंज़ीर न बन जाए
ख़ुद्दारी को छूटे हुए सामान में रखिये

जैसे नज़र आते हैं कभी वैसे बनें भी
अपने को कभी अपनी ही पहचान में रखिये

चेहरा जो कभी दोस्ती का देखना चाहें
काँटों को सजा कर किसी गुलदान में रखिये

लेना है अगर लुत्फ़ समंदर के सफ़र का
कश्ती को मुसलसल किसी तूफ़ान में रखिये

(मुसलसल = लगातार)

ये वक़्त है रहता नहीं इक जैसा हमेशा
ये बात हमेशा के लिए ध्यान में रखिये

जब छोड़ के जाएँगे इसे ये न छुटेगी
दुनिया को न भूले से भी अरमान में रखिये

-राजेश रेड्डी

Sunday, November 15, 2015

बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता

बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता

भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो-अमाँ क़ायम नहीं होता

मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता

तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता

ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता

परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता

(दरख्त = पेड़)

-अशोक रावत

Monday, December 29, 2014

वो के हर अहद-ए-मुहब्बत से मुकरता जाए

वो के हर अहद-ए-मुहब्बत से  मुकरता जाए
दिल वो ज़ालिम के उसी शख़्स पे मरता जाये

(अहद-ए-मुहब्बत = प्यार में किये हुए वादे)

मेरे पहलू में वो आया भी तो ख़ुश्बू की तरह
मैं उसे जितना समेटूँ वो बिखरता जाये

खुलते जायें जो तेरे बंद-ए-कबा ज़ुल्फ़ के साथ
रंग-ए-पैराहन-ए-शब और निखरता जाये

(बंद-ए-कबा = कुर्ते, कमीज़ या चोली की गाँठ), (रंग-ए-पैराहन-ए-शब = रात के वस्त्रों का रंग)

इश्क़ की नर्म-निगाही से हिना हों रुख़सार
हुस्न वो हुस्न जो देखे से निखरता जाये

(रुख़सार = कपोल, गाल), (हिना हों रुख़सार = गालों पर लाली छा जाना)

क्यूँ न हम उसको दिल-ओ-जान से चाहें 'तश्ना'
वो जो इक दुश्मन-ए-जाँ प्यार भी करता जाये

-आलम ताब तश्ना


Monday, November 24, 2014

दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में
एक आईना था टूट गया देखभाल में
-सीमाब अकबराबादी

(बिसात = हैसियत, सामर्थ्य), (निगाह-ए-जमाल = ख़ूबसूरत आँखें)