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Tuesday, July 6, 2021

माना के तिरा फ़ैज़ अभी, आम नहीं है

माना के तिरा फ़ैज़ अभी, आम नहीं है
क्या "क़ैस" की ख़ातिर भी, कोई जाम नहीं है ? 

(फ़ैज़ = लाभ, उपकार, कृपा)

मेरी ये शिकायत के मुझे, टाल रहे हैं 
उनका ये बहाना के अभी, शाम नहीं है

दिन भर तिरी यादें हैं तो, शब भर तिरे सपने
दीवाने को अब और कोई, काम नहीं है

वो दिल ही नहीं जिस में तिरी, याद नहीं है
वो लब ही नहीं जिस पे तिरा, नाम नहीं है

अपनों से शिकायत है ना, ग़ैरों से गिला है
तक़दीर ही ऐसी है कि, आराम नहीं है

ये "क़ैस"-ए-बला-नोश भी, क्या चीज़ है, यारों 
बद-क़ौल है, बद-फ़ेल है, बद-नाम नहीं है

("क़ैस"-ए-बला-नोश = शराबी "क़ैस"), (बद-क़ौल = बुरा बोलने वाला), (बद-फ़ेल = बुरे काम करने वाला)

राजकुमार "क़ैस"

Wednesday, December 9, 2020

"फ़िराक़" ने तुझे पूजा नहीं, के वक़्त ना था

"फ़िराक़" ने तुझे पूजा नहीं, के वक़्त ना था
"यगाना" ने भी सराहा नहीं, के वक़्त ना था

"मजाज़" ने तिरे आँचल को, कर दिया परचम
तुझे गले से लगाया नहीं, के वक़्त ना था

(परचम = झंडा)

हज़ार दुःख थे ज़माने के, "फ़ैज़" के आगे
सो तेरे हुस्न पे लिक्खा नहीं, के वक़्त ना था

ब-राह-ए-क़ाफ़िला, चलते चले गए "मजरूह"
तुझे पलट के भी देखा नहीं, के वक़्त ना था

(ब-राह-ए-क़ाफ़िला = क़ाफ़िले के साथ)

ये कौन शोला बदन है, बताओ तो जानी ?
जनाब-ए-"जॉन" ने पूछा नहीं, के वक़्त ना था

वो शाम थी के, सितारे सफ़र के देखते थे
"फ़राज़" ने तुझे चाहा नहीं, के वक़्त ना था

कमाल-ए-इश्क़ था, मेरी निगाह में "आसिम"
ज़वाल-ए-उम्र को सोचा नहीं, के वक़्त ना था

(ज़वाल-ए-उम्र = घटती उम्र)

- लिआक़त अली "आसिम"

Friday, July 31, 2020

एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं
जिस तरह सीप के सीने गुहर होता है
जिस तरह रात के रानी की महक होती है
जिस तरह साँझ की वंशी का असर होता है

जिस तरह उठता है आकाश में इक इंद्रधनुष
जैसे पीपल के तले कोई दिया जलता है
जैसे मंदिर में कहीं दूर घंटियाँ बजतीं
जिस तरह भोर के पोखर में कमल खिलता है

जिस तरह खुलता हो सन्दूक पुराना कोई
जिस तरह उसमें से ख़त कोई पुराना निकले
जैसे खुल जाय कोई चैट की खिड़की फिर से
ख़ुद-बख़ुद जैसे कोई मुँह से तराना निकले

जैसे खँडहर में बची रह गयी बुनियादें हैं
एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Wednesday, April 1, 2020

सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है
-मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

Thursday, October 24, 2019

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही

ओ कल्प-वृक्ष की सोन-जूही, ओ अमलतास की अमर कली,
धरती के आताप से जलते मन पर छायी निर्मल बदली,
मैं तुमको मधु-सद-गंध युक्त, संसार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

तुम कल्प-वृक्ष का फूल और मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य, मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधूरी ग़ज़ल शुभे, तुम शाम गान सी पावन हो,
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी, बिजुरी सी तुम मन भावन हो

इसलिए व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउँगा
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा

तुम जिस शैया पर शयन करो, वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौल-श्री, वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ, वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो, वह व्यक्ति नहीं वंशी-वट हो

पर मैं वट जैसा सघन छॉंह, विस्तार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

मैं तुमको चाँद सितारों का सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साधू, दूं सुर श्रंगार भला कैसे
मैं जीवन के प्रश्नो से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे,
बारूदी बिछी धरती पर कर लूं दो पल प्यार भला कैसे

इसलिए विवश हर आंसू को सत्कार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

- डॉ. कुमार विश्वास

Friday, September 27, 2019

आँखें खुली हुई हैं तो मंज़र भी आएगा

आँखें खुली हुई हैं तो मंज़र भी आएगा
काँधों पे तेरे सर है तो पत्थर भी आएगा

हर शाम एक मसअला घर भर के वास्ते
बच्चा ब-ज़िद है चाँद को छू कर भी आएगा

इक दिन सुनूँगा अपनी समाअत पे आहटें
चुपके से मेरे दिल में कोई डर भी आएगा

 (समाअत = सुनना, सुनवाई)

तहरीर कर रहा है अभी हाल-ए-तिश्नगाँ
फिर इस के बाद वो सर-ए-मिंबर भी आएगा

(तहरीर = लेख, लिखावट), (हाल-ए-तिश्नगाँ = प्यासे का हाल), (सर-ए-मिंबर = मंच के ऊपर)

हाथों में मेरे परचम-ए-आग़ाज़-ए-कार-ए-ख़ैर
मेरी हथेलियों पे मिरा सर भी आएगा

(परचम-ए-आग़ाज़-ए-कार-ए-ख़ैर = अच्छा काम शुरू करने का झंडा, Flag of the beginning of good work)

मैं कब से मुंतज़िर हूँ सर-ए-रहगुज़ार-ए-शब
जैसे कि कोई नूर का पैकर भी आएगा

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (सर-ए-रहगुज़ार-ए-शब = रात के रास्ते पर), (नूर = प्रकाश, ज्योति, आभा, रोशनी, शोभा, छटा, रौनक, चमक-दमक), (पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख, जिस्म)

-अमीर क़ज़लबाश

Wednesday, August 14, 2019

हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते

हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते

कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते

आँखों में नमक है तो नज़र क्यूँ नहीं आता
पलकों पे गुहर हैं तो बिखर क्यूँ नहीं जाते

(गुहर = मोती)

अख़बार में रोज़ाना वही शोर है यानी
अपने से ये हालात सँवर क्यूँ नहीं जाते

ये बात अभी मुझ को भी मालूम नहीं है
पत्थर इधर आते हैं उधर क्यूँ नहीं जाते

तेरी ही तरह अब ये तिरे हिज्र के दिन भी
जाते नज़र आते हैं मगर क्यूँ नहीं जाते

(हिज्र = जुदाई)

अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते

-महबूब ख़िज़ां

Friday, May 31, 2019

अक्स थे आवाज़ थी लेकिन कोई चेहरा न था

अक्स थे आवाज़ थी लेकिन कोई चेहरा न था
नाचते गाते क़दम थे और कोई पहरा न था

हादसों की मार से टूटे मगर ज़िंदा रहे
ज़िंदगी जो ज़ख़्म भी तू ने दिया गहरा न था

ख़्वाब की मानिंद गुज़रीं कैसी कैसी सूरतें
दिल के वीराने में कोई अक्स भी ठहरा न था

आग की बारिश हुई मंज़र झुलस कर रह गए
शाम के साए में कोई गूँजता लहरा न था

-खलील तनवीर

Saturday, May 4, 2019

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो

(लफ़्ज़ ओ मंज़र = शब्द और दृश्य), (मआनी = अर्थ, मतलब, माने)

वो नहीं है न सही तर्क-ए-तमन्ना न करो
दिल अकेला है इसे और अकेला न करो

(तर्क-ए-तमन्ना = इच्छाओं/ चाहतों का त्याग)

बंद आँखों में हैं नादीदा ज़माने पैदा
खुली आँखों ही से हर चीज़ को देखा न करो

(नादीदा = अदृष्ट, अप्रत्यक्ष, अगोचर, Unseen)

दिन तो हंगामा-ए-हस्ती में गुज़र जाएगा
सुब्ह तक शाम को अफ़्साना-दर-अफ़्साना करो

(हंगामा-ए-हस्ती = जीवन की उथल-पुथल/ अस्तव्यस्तता)

-महमूद अयाज़

Friday, April 5, 2019

इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
-नरेश कुमार शाद

(दिल-ए-कम-नज़र = संकीर्ण दृष्टि वाला दिल), (शाम-ए-अलम = दुःख की शाम)

Tuesday, March 19, 2019

इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
-इशरत क़ादरी

(शब-ए-ग़म = दुःख की रात), (शाम-ए-अलम = दुःख की शाम)

Tuesday, February 26, 2019

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो
-अमीर मीनाई

(शाम-ए-वस्ल = मिलन की शाम), (सहर  = सुबह, सवेरा)

Tuesday, January 8, 2019

फ़ुर्सत की इक शाम निकालो

फ़ुर्सत की इक शाम निकालो
यारों बैठो जाम निकालो।

तुम बदलोगे इस दुनिया को
दिल से ये औहाम निकालो।

(औहाम = भ्रम)

इतना कर दो मेरी ख़ातिर
इक रंगीं सी शाम निकालो।

दुनिया टेढ़ी है ये लेकिन
तरकीबों से काम निकालो।

हाकिम हो तुम हक़ है तुमको
रोज़ नया पैग़ाम निकालो।

(हाकिम = शासक), (पैग़ाम = संदेश)

इश्क़ में खाओ धोखे लेकिन
मुंह से ना तुम नाम निकालो।

हर ख़्वाहिश कहती है 'वाहिद'
जेब से पहले दाम निकालो।

- विकास वाहिद// ६-१-१९



Friday, December 21, 2018

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े

(संग-ए-लफ़्ज़ = शब्द का पत्थर), (गिरानी = भारीपन, बोझ), (शीशा = शराब की बोतल), (जू-ए-मआनी = अर्थों/ मतलबों/ Meanings की नदी)

प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

(दश्त = जंगल), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़
फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े

(रवानी  = बहाव, प्रवाह, धार)

होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े

'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े

(ख़ाना-ए-दिल = हृदय रुपी घर)

-इक़बाल साजिद

Tuesday, June 21, 2016

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की

फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की

आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की

नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात फूलों की

(हयात = जीवन)

कौन देता है जान फूलों पर
कौन करता है बात फूलों की

वो शराफ़त तो दिल के साथ गई
लुट गई कायनात फूलों की

(कायनात = सृष्टि, जगत, ब्रम्हांड)

अब किसे है दिमाग़-ए-तोहमत-ए-इश्क़
कौन सुनता है बात फूलों की

मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार
तेरी आँखों में रात फूलों की

फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की

ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम'
जैसे सहरा में रात फूलों की

(सहरा = रेगिस्तान)

-मखदूम मोहिउद्दीन



Wednesday, February 24, 2016

क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं

क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं
जो हथेली पे चिराग़ों को सजाए हुए हैं

रात के खौफ़ से किस दर्जा परीशाँ हैं हम
शाम से पहले चिराग़ों को सजाए हुए हैं

कोई सैलाब न आ जाए इसी खौफ़ से हम
अपनी पलकों से समुन्दर को दबाए हुए हैं

कैसे दीवार-ओ-दर-ओ-बाम की इज्ज़त होगी
अपने ही घर में अगर लोग पराए हुए हैं

(दीवार-ओ-दर-ओ-बाम = दीवारें, दरवाज़े और छत)

यूँ मेरी गोशानशीनी से शिकायत है उन्हें
जैसे वो मेरे लिए पलकें बिछाए हुए हैं

(गोशानशीनी = अकेले में रहना, एकांतवास)

एक होने नहीं देती है सियासत लेकिन
हम भी दीवार प दीवार उठाए हुए हैं

बस यही जुर्म हमारा है कि हम भी 'आलम'
अपनी आँखों में हसीं ख़्वाब सजाए हुए हैं

- आलम खुर्शीद

Friday, May 1, 2015

जगत कर्ता जगत हर्ता तो केवल राम होता है
उसी का नाम होठों पर सुबह और शाम होता है

यहाँ सब लोग जाने क्यूं हमीं पर तंज हैं कसते
बिचारा 'आरसी' तो मुफ्त में बदनाम होता है

-आर० सी० शर्मा "आरसी"

Saturday, December 27, 2014

आँखों से मेरे इस लिए लाली नहीं जाती

आँखों से मेरे इस लिए लाली नहीं जाती
यादों से कोई रात खा़ली नहीं जाती

अब उम्र, ना मौसम, ना रास्‍ते के वो पत्‍ते
इस दिल की मगर ख़ाम ख्‍़याली नहीं जाती

माँगे तू अगर जान भी तो हँस कर तुझे दे दूँ
तेरी तो कोई बात भी टाली नहीं जाती

मालूम हमें भी हैं बहुत से तेरे क़िस्से
पर बात तेरी हमसे उछाली नहीं जाती

हमराह तेरे फूल खिलाती थी जो दिल में
अब शाम वहीं दर्द से ख़ाली नहीं जाती

हम जान से जाएंगे तभी बात बनेगी
तुमसे तो कोई बात निकाली नहीं जाती

-वासी शाह

Thursday, December 25, 2014

मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा

मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा

(ख़लिश = चुभन, वेदना)

बरस के खुल गए आँसू निथर गई है फ़िज़ा
चमक रहा है सर-ए-शाम दर्द का तारा

किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मेरी हथेली पे रखा हुआ ये अँगारा

जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा

वो साँप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा

-जावेद अख़्तर

Saturday, November 8, 2014

शाम भी थी धुआँ धुआँ, हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ, याद सी आके रह गईं
-फ़िराक़ गोरखपुरी