मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार
अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश
पहले चारा चर गये अब खायेंगे देश
कुर्सी पर डाकू जमे धर नेता का भेष
कवियों की और चोर की गति है एक समान
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार
जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कूल
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फूल
भूखा पेट न जानता क्या है धर्म-अधर्म
बेच देय संतान तक, भूख न जाने शर्म
करें मिलावट फिर न क्यों व्यापारी व्यापार
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरकार
अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षडयंत्र
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र
राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना देख लिये घनश्याम
दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार
बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश
वाणी के सौन्दर्य का, शब्दरूप है काव्य,
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य
जिसने सारस की तरह नभ में भरी उड़ान
उसको ही बस हो सका सही दिशा का ज्ञान
जब तक पर्दा ख़ुदी का कैसे हो दीदार
पहले ख़ुद को मार फिर हो उसका दीदार
जिसमें खुद भगवान ने खेले खेल विचित्र
माँ की गोदी से अधिक तीरथ कौन पवित्र
कैंची लेकर हाथ में वाणी में विष घोल
पूछ रहे हैं फूल से वो सुगंध का मोल
दिखे नहीं फिर भी रहे खुशबू जैसे साथ
उसी तरह परमात्मा संग रहे दिन रात
मिटे राष्ट्र कोई नहीं हो कर के धनहीन
मिटता जिसका विश्व में गौरव होता क्षीण
इंद्रधनुष के रंग-सा जग का रंग अनूप
बाहर से दीखे अलग भीतर एक स्वरूप
यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद
रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे यार
जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्य
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्य
रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट
जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल न जान
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान
अपना देश महान् है, इसका क्या है अर्थ
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्थ
काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार
और इसी से है मुझे करना सागर पार
-गोपालदास नीरज