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Monday, November 25, 2019

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा

वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा

तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्म-ए-तर में रहा

(चश्म-ए-तर = भीगी आँखें)

वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा

हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा

-गोपालदास नीरज

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है
जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है

सबूत है मेरे घर में धुएं के ये धब्बे
कभी यहाँ पे उजालों ने ख़ुदकुशी की है

ना लड़खडायाँ कभी और कभी ना बहका हूँ 
मुझे पिलाने में  फिर तुमने क्यूँ कमी की है

कभी भी वक़्त ने उनको नहीं मुआफ़ किया
जिन्होंने दुखियों के अश्कों से दिल्लगी की है

(अश्कों = आँसुओं)

किसी के ज़ख़्म को मरहम दिया है गर तूने
समझ ले तूने ख़ुदा की ही बंदगी की है

-गोपालदास नीरज

Friday, July 20, 2018

जितना कम सामान रहेगा

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा

उस से मिलना ना-मुम्किन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा

हाथ मिलें और दिल न मिलें
ऐसे में नुक़सान रहेगा

जब तक मंदिर और मस्जिद हैं
मुश्किल में इंसान रहेगा

'नीरज' तो कल यहाँ न होगा
उस का गीत विधान रहेगा

-गोपालदास नीरज

Saturday, June 15, 2013

नीरज के दोहे

मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार

अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश

पहले चारा चर गये अब खायेंगे देश
कुर्सी पर डाकू जमे धर नेता का भेष

कवियों की और चोर की गति है एक समान
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान

गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार

जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कूल
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फूल

भूखा पेट न जानता क्या है धर्म-अधर्म
बेच देय संतान तक, भूख न जाने शर्म

करें मिलावट फिर न क्यों व्यापारी व्यापार
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरकार

अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षडयंत्र
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र

राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय

भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना देख लिये घनश्याम

दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप

तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल

पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय

हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व

जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार

बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश

वाणी के सौन्दर्य का, शब्दरूप है काव्य,
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य

जिसने सारस की तरह नभ में भरी उड़ान
उसको ही बस हो सका सही दिशा का ज्ञान

जब तक पर्दा ख़ुदी का कैसे हो दीदार
पहले ख़ुद को मार फिर हो उसका दीदार

जिसमें खुद भगवान ने खेले खेल विचित्र
माँ की गोदी से अधिक तीरथ कौन पवित्र

कैंची लेकर हाथ में वाणी में विष घोल
पूछ रहे हैं फूल से वो सुगंध का मोल

दिखे नहीं फिर भी रहे खुशबू जैसे साथ
उसी तरह परमात्मा संग रहे दिन रात

मिटे राष्ट्र कोई नहीं हो कर के धनहीन
मिटता जिसका विश्व में गौरव होता क्षीण

इंद्रधनुष के रंग-सा जग का रंग अनूप
बाहर से दीखे अलग भीतर एक स्वरूप

यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद

रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे यार

जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्य
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्य

रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट

जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल न जान
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान

अपना देश महान् है, इसका क्या है अर्थ
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्थ

काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार
और इसी से है मुझे करना सागर पार

-गोपालदास नीरज

Thursday, September 27, 2012

खुशबू सी रही है इधर ज़ाफ़रान की
खिड़की खुली है गालिबन उनके मकान की |

हारे हुए परिन्द ज़रा उड़के देख तो
जाएगी ज़मीन पे 'छत आसमान की |

बुझ जाये सरेशाम ही जैसे कोई चिराग़
कुछ यूँ है शुरुआत मेरी दास्तान की |

ज्यों लूट लें कहार ही दुलहिन की पालकी
हालत यही है आजकल हिन्दोस्तान की |

औरों के घर की धूप उसे क्यों पसन्द हो
बेची हो जिसने रोशनी अपने मकान की |

जुल्फों के पेचो -ख़म में उसे मत तलाशिये
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेजुबान की |

नीरज 'से बढ़के और धनी कौन है यहाँ
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की |
-
गोपालदास नीरज