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Saturday, May 4, 2019

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो

(लफ़्ज़ ओ मंज़र = शब्द और दृश्य), (मआनी = अर्थ, मतलब, माने)

वो नहीं है न सही तर्क-ए-तमन्ना न करो
दिल अकेला है इसे और अकेला न करो

(तर्क-ए-तमन्ना = इच्छाओं/ चाहतों का त्याग)

बंद आँखों में हैं नादीदा ज़माने पैदा
खुली आँखों ही से हर चीज़ को देखा न करो

(नादीदा = अदृष्ट, अप्रत्यक्ष, अगोचर, Unseen)

दिन तो हंगामा-ए-हस्ती में गुज़र जाएगा
सुब्ह तक शाम को अफ़्साना-दर-अफ़्साना करो

(हंगामा-ए-हस्ती = जीवन की उथल-पुथल/ अस्तव्यस्तता)

-महमूद अयाज़

Sunday, April 7, 2019

इक नया अंदाज़ दे शायद हमें

इक नया अंदाज़ दे शायद हमें
ज़िन्दगी आवाज़ दे शायद हमें।

सच को सच कहते रहे हम उम्र भर
अब कोई एज़ाज़ दे शायद हमें।

(एज़ाज़ = इज़्ज़त/प्रतिष्ठा)

अब तलक तो रूठ कर बैठी है पर
ज़िन्दगी परवाज़ दे शायद हमें।

(परवाज़ = उड़ान)

लफ़्ज़ कम हैं लबकुशाई के लिए
अब ग़ज़ल अल्फ़ाज़ दे शायद हमें।

(लबकुशा = बात करना)

हम खड़े हैं मोड़ पर उम्मीद से
फिर कोई आवाज़ दे शायद हमें।

- विकास वाहिद।। ०५-०४-१९

Friday, December 21, 2018

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े

(संग-ए-लफ़्ज़ = शब्द का पत्थर), (गिरानी = भारीपन, बोझ), (शीशा = शराब की बोतल), (जू-ए-मआनी = अर्थों/ मतलबों/ Meanings की नदी)

प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

(दश्त = जंगल), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़
फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े

(रवानी  = बहाव, प्रवाह, धार)

होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े

'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े

(ख़ाना-ए-दिल = हृदय रुपी घर)

-इक़बाल साजिद

पत्थर है तेरे हाथ में या कोई फूल है

पत्थर है तेरे हाथ में या कोई फूल है
जब तू क़ुबूल है, तेरा सब कुछ क़ुबूल है

फिर तू ने दे दिया है नया फ़ासला मुझे
सर पर अभी तो पिछली मसाफ़त की धूल है

(मसाफ़त = फ़ासला, दूरी)

तू दिल पे बोझ ले के मुलाक़ात को न आ
मिलना है इस तरह तो, बिछड़ना क़ुबूल है

तू यार है तो इतनी कड़ी गुफ़्तगू न कर
तेरा उसूल है तो, मिरा भी उसूल है

लफ़्ज़ों की आबरू को गँवा न यूँ 'अदीम'
जो मानता नहीं उस से, कहना फ़ुज़ूल है

-अदीम हाशमी

Monday, January 29, 2018

रफ़्ता रफ़्ता लफ़्ज़ गूँगे हो गए
और गहरी हो गईं ख़ामोशियाँ
-अहमद शनास
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में

छूटा अगर मैं गर्दिश-ए-तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में

(गर्दिश-ए-तस्बीह = माला जपना)


-अकबर इलाहाबादी

Sunday, December 10, 2017

तू अगर अब्र है मैं अब्र में पानी की तरह
मैं तिरे साथ हूँ लफ़्ज़ों में मआनी की तरह
-नोमान इमाम

(अब्र = बादल)

Friday, August 4, 2017

बिखरे जज़्बात से चुनता हूँ अपने लफ़्ज़ों को
काश अलफ़ाज़ मेरे फिर तुम्हे तामीर करें
-अश्वनी त्यागी 'अरमान'

Friday, November 18, 2016

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे

(अख़लाक़ = इख़लाक़ = शिष्टाचार, सद्वृत्ति), (मुदारा = सम्मानित, आदर देना)

कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इस्लाह मगर हम भी अब इस्लाह न करेंगे

(इस्लाह = बिगड़ी हुई अवस्था का सुधार, ठीक करना, त्रुटियाँ दूर करना, शुद्धि, संशोधन)

कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तौर
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे

(कमगोई = कम बोलना), (वस्फ़-ए-हिमाक़त = मूर्खतापूर्ण ख़ूबी), (बहर =लिए, वास्ते, प्रति), (तौर = ढंग, पध्यति, शैली)

अब सहल पसंदी को बनाएँगे वतीर:
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे

(सहल = सहज, आसान), (वतीर:= ढंग, पद्दति , शैली, आचरण, व्यवहार), (बाब = किताब का अध्याय, परिच्छेद)

ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तअल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं, भरे बैठे हैं, ग़ुस्सा न करेंगे

(तहज़ीब-ए-तअल्लुक़ = संबंधों\ लगाव\ प्रेम-व्यवहार का शिष्टाचार)

कल रात बहुत ग़ौर किया है, सो हम ए 'जॉन'
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे

-जॉन एलिया

Tuesday, November 15, 2016

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए
तिरा वजूद है लाज़िम मिरी ग़ज़ल के लिए

कहाँ से ढूँढ के लाऊँ चराग़ सा वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कँवल कँवल के लिए

ये कैसा तजुर्बा मुझको हुआ है आज की रात
बचा के धड़कने रख ली हैं मैंने कल के लिए

किसी किसी के नसीबों में इश्क़ लिख्खा है
हर इक दिमाग़ भला कब है इस ख़लल के लिए

हुई न जुरअत-ए-गुफ़्तार तो सबब ये था
मिले न लफ़्ज़ तिरे हुस्न-ए-बे-बदल के लिए

(जुरअत-ए-गुफ़्तार = बात करने की हिम्मत), (सबब = कारण), ( हुस्न-ए-बे-बदल = अद्वितीय सौन्दर्य)

सदा जिये ये मिरा शहर-ए-बे-मिसाल जहाँ
हज़ार झोंपड़े गिरते हैं इक महल के लिए

'क़तील' ज़ख़्म सहूँ और मुस्कुराता रहूँ
बने हैं दायरे क्या क्या मिरे अमल के लिए

(अमल = आचरण, कार्य)

-क़तील शिफ़ाई




Tuesday, November 8, 2016

हर हंसी को उजाड़ देते हैं

( जौन एलिया के नाम )

हर हंसी को उजाड़ देते हैं
खेल आँसू बिगाड़ देते हैं

रोज़ उठाते हैं खोद कर ख़ुद को
रोज़ फिर ख़ुद में गाड़ देते हैं

जाने हम क्या बनाने वाले हैं
रोज़ कुछ तोड़-ताड़ देते हैं

रोज़ दुनिया की धूल लगती है
रोज़ हम जिसको झाड़ देते हैं

अब तो बच्चे भी घर के बूढ़ों को
आते-जाते लताड़ देते हैं

रोज़ करते हैं ख़ुद से दो-दो हाथ
रोज़ ख़ुद को पछाड़ देते हैं

वो उतरता कहाँ है लफ़्ज़ों में
रोज़ लिखते हैं, फाड़ देते हैं

ख़्वाब अच्छे हैं आसमाँ के, मगर
ये ज़मीं से उखाड़ देते हैं

- राजेश रेड्डी


( Jaun Elia ke naam )

Har hansee ko ujaad detey hain
Khel aansoo bigaad detey hain

Roz uthaatey hain khod kar khud ko
Roz phir khud mein gaad detey hain

Jaaney ham kya banaane waale hain
Roz kuchh tod-taad detey hain

Roz duniyaa ki dhool lagtee hai
Roz ham jisko jhaad detey hain

Ab toh bachche bhi ghar ke boodhon ko
Aatey-jaatey lataad detey hain

Roz karte hain khud se do-do haath
Roz khud ko pachhaad detey hain

Wo utartaa kahaan hai lafzon mein
Roz likhtey hain, phaad detey hain

Khwaab achchhe hain aasmaN ke, magar
Ye zameeN se ukhaad detey hain

- Rajesh Reddy

Wednesday, February 24, 2016

फूल की डाली है या शमसीर है

फूल की डाली है या शमसीर है
ऐ मुसव्विर ! खूब ये तस्वीर है

(शमसीर = तलवार), (मुसव्विर = तस्वीर बनाने वाला, चित्रकार)

सोचता रहता हूँ उसको देखकर
ख़्वाब है या ख़्वाब की ताबीर है

(ताबीर = स्वप्नकाल बताना, स्वप्न का फल)

चुप हूँ मैं और बोलती जाती है वो
सामने मेरे अजब तस्वीर है

दिल खिंचा जाता है खुद उसकी तरफ़
हाय! कितना खूबसूरत तीर है

भूल बैठा हूँ मैं अब तर्ज़े सुखन
उसके लफ़्ज़ों में अजब तासीर है

(तर्ज़े सुखन = काव्यशैली), (तासीर = प्रभाव, असर)

वो तो 'आलम' खूबसूरत हार है
तुम समझते थे जिसे ज़ंजीर है

- आलम खुर्शीद

Thursday, May 21, 2015

जो आईने में है उसकी तरफ़दारी भी करनी है

जो आईने में है उसकी तरफ़दारी भी करनी है
मगर जो हममें है उससे हमें यारी भी करनी है

ज़माने भर में ज़ाहिर अपनी खुद्दारी भी करनी है
मगर दरबार में जाने की तैयारी भी करनी है

हर इक से मिलने-जुलने की क़वायद से भी बचना है
हर इक से मिलने-जुलने की अदाकारी भी करनी है

है मोहलत चार दिन की और हैं सौ काम करने को
हमें जीना भी है मरने की तैयारी भी करनी है

मिलाकर अपनी ही कमज़ोरियों से हाथ छुप-छुप कर
ख़ुद अपने आप से थोड़ी-सी गद्दारी भी करनी है

ख़ुद अपने आप से होते भी रहना है फ़रार अक्सर
ख़ुद अपने आपकी अक्सर गिरफ्तारी भी करनी है

ख़ुदा की रहमतों को रायगाँ जाने भी दें कैसे
हमें ये पाप की गठरी ज़रा भारी भी करनी है

(रायगाँ = व्यर्थ, बरबाद)

हमारे पाँव थकने लग गए आसान रस्तों पर
सफ़र में अपने पैदा थोड़ी दुश्वारी भी करनी है

छुपाते आए हैं हम जिनसे अब तक अपने अश्कों को
बयाँ हमको उन्हीं लफ्ज़ों में लाचारी भी करनी है

(अश्कों = आँसुओं)

-शायर: राजेश रेड्डी

Wednesday, May 20, 2015

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं
अबके किरदार किसी और कहानी में हूँ मैं

जैसे सब होते हैं वैसे ही हुआ हूँ मैं भी
अब कहाँ अपनी किसी ख़ास निशानी में हूँ मैं

ख़ुद को जब देखूँ तो साहिल पे कहीं बैठा मिलूँ
ख़ुद को जब सोचूँ तो दरिया की रवानी में हूँ मैं

(साहिल = किनारा)

ज़िन्दगी, तू कोई दरिया है कि सागर है कोई
मुझको मालूम तो हो कौन से पानी में हूँ मैं

जिस्म तो जा भी चुका उम्र के उस पार मेरा
फ़िक्र कहती है मगर अब भी जवानी में हूँ मैं

आप तो पहले ही मिसरे में उलझ कर रह गए
मुंतज़िर कब से यहाँ मिना-ए-सानी में हूँ मैं

(मिसरा = शेर की पहली पंक्ति), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (मिना-ए-सानी = कुर्बानी के स्थान के बराबर)

पढ़के अशआर मेरे बारहा कहती है ग़ज़ल
कितनी महफ़ूज़ तेरी जादू-बयानी में हूँ मैं

(बारहा = बार बार), (महफ़ूज़ = सुरक्षित)

-राजेश रेड्डी

Saturday, November 8, 2014

जादू वो लफ़्ज़ लफ़्ज़ से करता चला गया
और हमने बात बात में हर बात मान ली

-ओबैद आज़म आज़मी

Saturday, May 24, 2014

फ़िक्रमंद रहा ताउम्र, के अब लिखूं की तब
मंदी का दौर है के लफ़्ज़ गुज़रते नहीं

(लफ़्ज़ = शब्द)

या उन्स का मौसम है चौखट पे खड़ा
के बात ना हो जब तलक़ दिन गुज़रते नहीं

(उन्स = प्यार, प्रेम)

-रूपा भाटी

Saturday, March 1, 2014

या तो हमसे यारी रख
या फिर दुनियादारी रख

ख़ुद पर पहरेदारी रख
अपनी दावेदारी रख

जीने की तैयारी रख
मौत से लड़ना जारी रख

लहजे में गुलबारी रख
लफ़्ज़ो में चिंगारी रख

(गुलबारी = फूलों की वर्षा करना)

जिससे तू लाचार न हो
इक ऎसी लाचारी रख
-विज्ञान व्रत

Saturday, December 7, 2013

कभी लफ़्ज़ों से गद्दारी न करना
ग़ज़ल पढ़ना, अदाकारी न करना

मेरे बच्चों के आंसू पोंछ देना
लिफ़ाफ़े का टिकट जारी न करना
-वसीम बरेलवी

Monday, December 2, 2013

ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है


ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है


बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा


सितारे तोड़ो या घर बसाओ
अलम उठाओ या सर झुकाओ


तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा


ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा

-निदा फ़ाज़ली


Thursday, June 20, 2013

दर्दे आवाम को अलफ़ाज़ दिया करता हूँ
यहाँ अदब में जिसे लोग ग़ज़ल कहते हैं|
-आर० सी० शर्मा "आरसी"