Wednesday, May 20, 2015

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं
अबके किरदार किसी और कहानी में हूँ मैं

जैसे सब होते हैं वैसे ही हुआ हूँ मैं भी
अब कहाँ अपनी किसी ख़ास निशानी में हूँ मैं

ख़ुद को जब देखूँ तो साहिल पे कहीं बैठा मिलूँ
ख़ुद को जब सोचूँ तो दरिया की रवानी में हूँ मैं

(साहिल = किनारा)

ज़िन्दगी, तू कोई दरिया है कि सागर है कोई
मुझको मालूम तो हो कौन से पानी में हूँ मैं

जिस्म तो जा भी चुका उम्र के उस पार मेरा
फ़िक्र कहती है मगर अब भी जवानी में हूँ मैं

आप तो पहले ही मिसरे में उलझ कर रह गए
मुंतज़िर कब से यहाँ मिना-ए-सानी में हूँ मैं

(मिसरा = शेर की पहली पंक्ति), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (मिना-ए-सानी = कुर्बानी के स्थान के बराबर)

पढ़के अशआर मेरे बारहा कहती है ग़ज़ल
कितनी महफ़ूज़ तेरी जादू-बयानी में हूँ मैं

(बारहा = बार बार), (महफ़ूज़ = सुरक्षित)

-राजेश रेड्डी

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