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Monday, July 29, 2019

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाइ'ज़ को परेशान किया जाए

(वाइ'ज़ = धर्मोपदेशक)

मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए

(मुफ़्लिस=ग़रीब)

वो शख़्स जो दीवानों की इज़्ज़त नहीं करता
उस शख़्स का भी चाक गरेबान किया जाए

(चाक गरेबान = फटा हुआ गरिबान/ कंठी)

पहले भी 'क़तील' आँखों ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुक़सान किया जाए

(बीनाई = आँखों की दृष्टि)

-क़तील शिफ़ाई

Tuesday, January 22, 2019

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए
तेरे दीवाने कम रह गए

(अहल-दैर-ओ-हरम  = मंदिर और मस्जिद वाले लोग)

मिट गए मंज़िलों के निशाँ
सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम रह गए

(नक़्श-ए-क़दम = पैरों के निशान, पदचिन्ह)

हम ने हर शय सँवारी मगर
उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म रह गए

बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
नाज़ उठाने को हम रह गए

रिंद जन्नत में जा भी चुके
वाइ'ज़-ए-मोहतरम रह गए

(रिंद = शराबी), (वाइज़ = धर्मोपदेशक)

देख कर तेरी तस्वीर को
आइना बन के हम रह गए

ऐ 'फ़ना' तेरी तक़दीर में
सारी दुनिया के ग़म रह गए

-फ़ना निज़ामी कानपुरी

Tuesday, February 13, 2018

वाइज़, शराब-ए-नाब को इतना न कोसिए
जन्नत में आप भी तो पियेंगे, अगर गए
- बेख़ुद देहलवी
(वाइज़ = धर्मोपदेशक), (शराब-ए-नाब=ख़ालिस शराब, Red wine)

Wednesday, September 18, 2013

दुश्वार होती ज़ालिम, तुझको भी नींद आनी
लेकिन सुनी न तूने टुक भी मेरी कहानी

मुहताज अब नहीं हम नासेह नसीहतों के
साथ अपने सब वो बातें लेती गई जवानी

-ख़्वाजा मीर 'दर्द'

(नासेह = उपदेशक)

Monday, July 8, 2013

ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो
-अब्दुल हमीद 'अदम'

Saturday, May 4, 2013

थे केक की फ़िक्र में सो रोटी भी गई,
चाही थी शै बड़ी सो छोटी भी गई ।
वाइज़ की नसीहतें न मानी आख़िर,
पतलून की ताक में लंगोटी भी गई ।
-अकबर इलाहाबादी

Sunday, March 24, 2013

जिस ग़म से दिल को राहत हो, उस ग़म का मुदावा क्या मानी?
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी, साहिल की तमन्ना क्या मानी?

[(मुदावा = इलाज), (फ़ितरत = प्रकृति, स्वाभाव), (साहिल = किनारा)]

इशरत में रंज की आमेज़िश, राहत में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है, फिर दुनिया, दुनिया क्या मानी?

[(इशरत = आनंद-मंगल, सुख-भोग), (रंज = मनमुटाव, शत्रुता), (आमेज़िश = मिलावट), (अलम = दुःख), (आलाइश = पाप, गुनाह)]

ख़ुद शेखो-बरहमन मुजरिम हैं इक जाम से दोनों पी न सके
साक़ी की बुख़्ल-पसन्दी पर साक़ी का शिकवा क्या मानी?

(बुख़्ल = कंजूसी)

इख़लासो-वफ़ा के सजदों की जिस दर पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरते-दिल ऐ इज़्मे-ख़ुदी उस दर पर सजदा क्या मानी?

(इख़लास = निश्छलता, निष्कपटता, नेकचलनी), (इज़्मे-ख़ुदी = स्वाभिमानी)

ऐ साहबे-नक़्दो-नज़र माना इन्साँ का निज़ाम नहीं अच्छा
उसकी इसलाह के पर्दे में अल्लाह मे झगड़ा क्या मानी?

(इसलाह = शुद्धि, संशोधन)

मयख़ाने में तो ऐ वाइज़ तलक़ीन के कुछ उसलूब बदल
अल्लाह का बन्दा बनने को जन्नत का सहारा क्या मानी?

(तलक़ीन = उपदेश), (उसलूब = ढंग)

इज़हारेवफ़ा लाज़िम ही सही ऐ 'अर्श' मगर फ़रियादें क्यों?
वो बात जो सब पर ज़ाहिर है उस बात का चर्चा क्या मानी?

-अर्श मलसियानी

Wednesday, October 24, 2012

ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है सब अच्छा कहे जिसे
-मिर्ज़ा ग़ालिब
 

Friday, October 12, 2012

यह न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता

विसाल-ए-यार = प्रियतम से मिलन

तिरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतिबार होता

एतिबार = विश्वास 

तेरी नाज़ुकी से जाना, कि बँधा था 'अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

अहद = प्रतिज्ञा, इक़रार, वचन 
बोदा = कच्चा, कमज़ोर 
उस्तुवार = दृढ़, मज़बूत 

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

तीर-ए-नीमकश = आधा खिंचा हुआ तीर, कमज़ोर तीर 
ख़लिश = चुभन, वेदना 

ये कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त, नासेह
कोई चार:-साज़ होता, कोई ग़मगुसार होता

नासेह = उपदेशक
चार:-साज़ = उपचारक, चिकित्सक 
ग़मगुसार = हमदर्द, दुःख बंटानेवाला

रग-ए-संग से टपकता, वह लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, यह अगर शरार होता

रग-ए-संग = पत्थर की नस 
शरार = चिंगारी

ग़म अगरचे: जाँ-गुसिल है, प कहाँ बचें कि दिल है
गम-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

जाँ-गुसिल = प्राणघातक, जान लेवा, कष्टदायक, दुखदायी 
गम-ए-इश्क़ = प्रेम का दुःख, चिंता सन्ताप 
ग़म-ए-रोज़गार = दुनिया का दुःख 

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

शब-ए-ग़म = ग़म की रात

हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जऩाज: उठता, न कहीं मज़ार होता

रुस्वा = बदनाम 
ग़र्क़-ए-दरिया = पानी में डूबा हुआ 

उसे कौन देख सकता, कि यगान: है वो यकता
जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता

यगान: = अनुपम, बेजोड़
यकता = अद्वितीय, बेमिसाल 
दुई = द्वैत 
दो चार = आमना-सामना 

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'गालिब'
तुझे हम वली समझते, जो न बाद:ख़्वार होता

मसाइल-ए-तसव्वुफ़ = सूफियाना भेद, भक्ति की समस्याएँ 
वली = पाक इंसान, ऋषि, मुनि 
बाद:ख़्वार = शराबी

-मिर्ज़ा ग़ालिब 

Thursday, September 27, 2012

किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज़,
मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा.
- जिगर मुरादाबादी
रिन्दाने-जहां से ये नफरत, ऐ हजरते-वाइज़ क्या कहना,
अल्लाह के आगे बस न चला, बंदों से बगावत कर बैठे।
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

1.रिन्दाने-जहां- मैकशी की दुनिया यानी शराब पीने वाले
2.हजरते-वाइज़- धर्मोपदेशक महोदय