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Saturday, November 12, 2016

हमारे दिल में अब तल्ख़ी नहीं है

हमारे दिल में अब तल्ख़ी नहीं है
मगर वो बात पहले सी नहीं है

मुझे मायूस भी करती नहीं है
यही आदत तिरी अच्छी नहीं है

बहुत से फ़ायदे हैं मस्लहत में
मगर दिल की तो ये मर्ज़ी नहीं है

(मस्लहत = समझदारी)

हर इक की दास्ताँ सुनते हैं जैसे
कभी हम ने मोहब्बत की नहीं है

है इक दरवाज़े बिन दीवार-ए-दुनिया
मफ़र ग़म से यहाँ कोई नहीं है

(मफ़र = बचाव, रक्षा, पलायन)

-जावेद अख़्तर

Sunday, February 22, 2015

हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी

हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी
क़दम रखा कि मंज़िल रास्ता थी

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी

मोहब्बत मर गई मुझको भी ग़म है
मेरे अच्छे दिनों की आशना थी

(आशना = मित्र, दोस्त, यार, प्रेमी या प्रेमिका)

जिसे छू लूँ मैं वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी

मरीज़-ए-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी

(शफ़ा= आरोग्य, तंदुरुस्ती, रोग से मुक्ति)

-जावेद अख़्तर

Monday, December 29, 2014

वक़्त

ये वक़्त क्या है?
ये क्या है आख़िर
कि जो मुसलसल गुज़र रहा है                       (मुसलसल = लगातार)
ये जब न गुज़रा था, तब कहाँ था
कहीं तो होगा
गुज़र गया है तो अब कहाँ है
कहीं तो होगा
कहाँ से आया किधर गया है
ये कब से कब तक का सिलसिला है
ये वक़्त क्या है

ये वाक़ये                                                      (वाक़ये = घटनाएँ)
हादसे                                                           (हादसे = दुर्घटनाएँ)
तसादुम                                                       (तसादुम = संघर्ष,टकराव)
हर एक ग़म और हर इक मसर्रत                   (मसर्रत = हर्ष, आनंद, ख़ुशी)
हर इक अज़ीयत हरेक लज़्ज़त                      (अज़ीयत = तकलीफ़), (लज़्ज़त = आनंद)
हर इक तबस्सुम हर एक आँसू                      (तबस्सुम = मुस्कराहट)
हरेक नग़मा हरेक ख़ुशबू                                (नग़मा = गीत)
वो ज़ख़्म का दर्द हो
कि वो लम्स का हो ज़ादू                                 (लम्स = स्पर्श)
ख़ुद अपनी आवाज हो
कि माहौल की सदाएँ                                     (सदाएँ = आवाज़ें)
ये ज़हन में बनती
और बिगड़ती हुई फ़िज़ाएँ                              (फ़िज़ा = वातावरण)
वो फ़िक्र में आए ज़लज़ले हों                          (ज़लज़ले = भूचाल)
कि दिल की हलचल
तमाम एहसास सारे जज़्बे
ये जैसे पत्ते हैं
बहते पानी की सतह पर जैसे तैरते हैं
अभी यहाँ हैं अभी वहाँ है
और अब हैं ओझल
दिखाई देता नहीं है लेकिन
ये कुछ तो है जो बह रहा है
ये कैसा दरिया है
किन पहाड़ों से आ रहा है
ये किस समन्दर को जा रहा है
ये वक़्त क्या है

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ
कि चलती गाड़ी से पेड़ देखो
तो ऐसा लगता है दूसरी सम्त जा रहे हैं                 (सम्त = दिशा, ओर)
मगर हक़ीक़त में पेड़ अपनी जगह खड़े हैं
तो क्या ये मुमकिन है
सारी सदियाँ क़तार अंदर क़तार                           (क़तार अंदर क़तार = पंक्ति दर पंक्ति)
अपनी जगह खड़ी हों
ये वक़्त साकित हो और हम हीं गुज़र रहे हों          (साकित = ठहरा हुआ)
इस एक लम्हें में सारे लम्हें
तमाम सदियाँ छुपी हुई हों
न कोई आइन्दा न गुज़िश्ता                                  (आइन्दा = भविष्य), (गुज़िश्ता = भूतकाल)
जो हो चुका है वो हो रहा है
जो होने वाला है हो रहा है
मैं सोचता हूँ कि क्या ये मुमकिन है
सच ये हो कि सफ़र में हम हैं
गुज़रते हम हैं
जिसे समझते हैं हम गुज़रता है
वो थमा है
गुज़रता है या थमा हुआ है
इकाई है या बंटा हुआ है
है मुंज़मिद या पिघल रहा है                                 (मुंज़मिद = जमा हुआ)
किसे ख़बर है किसे पता है
ये वक़्त क्या है

ये कायनात-ए-अजीम                                         (कायनात-ए-अजीम = विशाल ब्रम्हांड)
लगता है
अपनी अज़मत से                                                (अज़मत = महानता)
आज भी मुतमइन नहीं है                                      (मुतमइन = संतुष्ट)
कि लम्हा लम्हा                                                    (लम्हा लम्हा = पल पल)
वसीइतर और वसीइतर होती जा रही है                  (वसीइतर = विशाल)
ये अपनी बाँहें पसारती है
ये कहकशाँओं की उँगलियों से                                (कहकशाँओं = आकाशगंगाओं)
नए ख़लाओं को छू रही है                                        (ख़लाओं = अँतरिक्षों)
अगर से सच है
तो हर तसव्वुर की हद से बाहर                               (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)
मगर कहीं पर
यक़ीनन ऐसा कोई ख़ला है                                      (यक़ीनन = निस्संदेह), (ख़ला = आकाश)
कि जिसको
इन कह्कशाँओं की उँगलियों ने
अब तक छुआ नहीं है
ख़ला
जहाँ कुछ हुआ नहीं है
ख़ला
कि जिसने अभी किसी से भी 'कुन' सुना नहीं है   (कुन = 'हो जा' - ऐसा माना जाता है कि ईश्वर के
जहाँ अभी तक ख़ुदा नहीं है                                 इन शब्दों से सृष्टि की रचना हुई थी)
वहाँ कोई वक़्त भी न होगा
ये कायनात-ए-अजीम
इक दिन छुएगी
उस अनछुऐ ख़ला को
और अपने सारे वुजूद से                                       (वुजूद = आस्तित्व)
जब पुकारेगी
'कुन'
तो वक़्त को भी जनम मिलेगा
अगर जनम है तो मौत भी है
मैं सोचता हूँ
ये सच नहीं है
कि वक़्त की कोई इब्तिदा है न इंतिहा है                 (इब्तिदा = आदि, आरम्भ), (इंतिहा = अंत)
ये डोर लम्बी बहुत है लेकिन
कहीं तो इस डोर का सिरा है
अभी ये इन्सां उलझ रहा है
कि वक़्त के इस क़फ़स में पैदा हुआ                        (क़फ़स = पिंजरा)
यहीं वो पला बढ़ा है
मगर उसे इल्म हो गया है                                        (इल्म = ज्ञान)
कि वक़्त के इस क़फ़स से बाहर भी
इक फ़िज़ा है
तो सोचता है
वो पूछता है
ये वक़्त क्या है

-जावेद अख़्तर


Thursday, December 25, 2014

मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा

मैं पा सका न कभी इस ख़लिश से छुटकारा
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा

(ख़लिश = चुभन, वेदना)

बरस के खुल गए आँसू निथर गई है फ़िज़ा
चमक रहा है सर-ए-शाम दर्द का तारा

किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मेरी हथेली पे रखा हुआ ये अँगारा

जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा

वो साँप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा

-जावेद अख़्तर

Monday, November 24, 2014

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में 
कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में 

वो शक्ल पिघली तो हर शै में ढल गई जैसे 
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में 

जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा 
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में 

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

लतीफ़ था वो तख़य्युल से, ख़्वाब से नाज़ुक 
गँवा दिया उसे हमने ही आज़माने में 

(लतीफ़ = मज़ेदार), (तख़य्युल = कल्पना)

समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फ़रेब खाने में

(सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका)

झुका दरख़्त हवा से, तो आँधियों ने कहा 
ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुक के टूट जाने में

(दरख़्त = पेड़)

-जावेद अख़्तर

Saturday, November 22, 2014

दिल का हर दर्द खो गया जैसे
मैं तो पत्थर का हो गया जैसे

कुछ बिछड़ने के भी तरीक़े हैं
ख़ैर जाने दो, जो गया जैसे

-जावेद अख़्तर

Thursday, November 13, 2014

देखी है चाँद चेहरों की भी चाँदनी मगर
उस चेहरे पर अजब है ज़हानत की चाँदनी
-जावेद अख़्तर

(चाँद चेहरे = सुन्दर चेहरे), (ज़हानत = बुद्धिमत्ता, प्रतिभा)

हाथ को हाथ नहीं सूझे वो तारीक़ी थी
आ गए हाथ में क्या जाने सितारे कैसे

-जावेद अख़्तर

(तारीक़ी = अँधेरा, अँधकार)

Saturday, November 8, 2014

याद उसे भी एक अधूरा अफ़साना तो होगा

याद उसे भी एक अधूरा अफ़साना तो होगा
कल रस्ते मेंं उसने हमको पहचाना तो होगा

डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से
लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल, अब जाना तो होगा

कुछ बातों के मतलब हैं और कुछ मतलब की बातें
जो ये फ़र्क़ समझ लेगा वो दीवाना तो होगा

 दिल की बातें नहीं हैं तो दिलचस्प ही कुछ बातें हों
ज़िंदा रहना है तो दिल को बहलाना तो होगा

जीत के भी वो शर्मिंदा है, हार के भी हम नाज़ाँ
कम से कम वो दिल ही दिल में ये माना तो होगा

-जावेद अख़्तर

Saturday, November 1, 2014

बंध गई थी दिल को कुछ उम्मीद सी
ख़ैर तुमने जो किया अच्छा किया
-जावेद अख़्तर
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले, और हमको तू न मिला

-जावेद अख़्तर

(हस्ब-ए-आरज़ू = इच्छा के अनुसार)
इन दिनों नाउम्मीद रहता हूँ
शायद उसने भी ये सुना होगा

-जावेद अख़्तर

Monday, December 2, 2013

कौन आएगा यहाँ, कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा

दिल-ए-नादाँ न धड़क, ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल
तू ने जिस फूल को पाला वो पराया होगा

दिल की किस्मत ही में लिक्खा था अँधेरा शायद
वरना मस्जिद का दिया किस ने बुझाया होगा

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियों तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा

(दरख़्त = पेड़)

खेलने के लिए बच्चे निकल आए होंगे
चाँद अब उस की गली में उतर आया होगा

‘कैफ’ परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
-कैफ़ भोपाली




कभी यूँ भी तो हो
कभी यूँ भी तो हो
दरिया का साहिल हो
पूरे चाँद की रात हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
परियों की महफ़िल हो
कोई तुम्हारी बात हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
ये नर्म मुलायम ठंडी हवायें
जब घर से तुम्हारे गुज़रें
तुम्हारी ख़ुश्बू चुरायें
मेरे घर ले आयें

कभी यूँ भी तो हो
सूनी हर महफ़िल हो
कोई न मेरे साथ हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
ये बादल ऐसा टूट के बरसे
मेरे दिल की तरह मिलने को
तुम्हारा दिल भी तरसे
तुम निकलो घर से

कभी यूँ भी तो हो
तनहाई हो, दिल हो
बूँदें हो, बरसात हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
-जावेद अख़्तर

Sunday, June 30, 2013

आप से मिलके हम कुछ बदल से गए,
शेर पढ़ने लगे, गुनगुनाने लगे
पहले मशहूर थी अपनी संजीदगी ,
अब तो जब देखिये मुस्कुराने लगे

हमको लोगों से मिलने का कब शौक़ था,
महफ़िले-आराई का कब हमें ज़ौक़ था
आपके वास्ते हमने ये भी किया,
मिलने जुलने लगे, आने जाने लगे

[(महफ़िले-आराई = महफ़िल सजाना), (ज़ौक़ = स्वाद, मजा, लुत्फ़)]

हमने जब आपकी देखीं दिलचस्पियां,
आ गईं चंद हममें भी तब्दीलियां
इक मुसव्विर से भी हो रही दोस्ती,
और ग़ज़लें भी सुनने सुनाने लगे

(मुसव्विर = तस्वीर बनाने वाला, चित्रकार)

आप के बारे में पूछ बैठा कोई,
क्या कहें हमसे क्या बदहवासी हुई
कहनेवालीं जो थी बातें वो ना कहीं,
बात जो थी छुपानी बताने लगे

इश्क़ बेघर करे इश्क़ बेदर करे,
इश्क़ का सच है कोई ठिकाना नहीं
हम जो कल तक ठिकाने के थे आदमी,
आपसे मिलके कैसे ठिकाने लगे

- जावेद अख़्तर


Wednesday, June 26, 2013

काफ़िले रेत हुए दश्त-ए-जुनूं में कितने,
फिर भी आवारा मिज़ाजों का सफ़र जारी है।
-जावेद अख़्तर

Tuesday, May 28, 2013

ज़िन्दगी की आँधी में ज़हन का शजर तऩ्हा
तुमसे कुछ सहारा था, आज हूँ मगर तऩ्हा

(शजर = पेड़)

ज़ख़्म-ख़ुर्दा लम्हों को मसलेहत सँभाले है
अनगिनत मरीजो में एक चारागर तऩ्हा

[(ज़ख़्म-ख़ुर्दा = घायल),  (मसलेहत = नीति, परामर्श, सलाह), (चारागर = चिकित्सक)]

बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में
क़ैद अब सदफ़ में है बनके है गुहर तऩ्हा

[(सदफ़ = सीप), (गुहर = मोती)]

तुम फ़ुज़ूल बातो का दिल पे बोझ मत लेना
हम तो ख़ैर कर लेंगे ज़िन्दगी बसर तऩ्हा

इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में
ढूँढता फ़िरा उसको वो नगर-नगर तऩ्हा

झुटपुटे का आलम है जाने कौन आदम है
इक लहद पे रोता है मुँह को ढाँपकर तऩ्हा

(लहद = कब्र)

-जावेद अख़्तर
कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ कि मुझको तेरी तलाश क्यों है
कि जब है सारे ही तार टूटे तो साज़ में इरतेआश क्यों है

(इरतेआश = कंपन)

कोई अगर पूछता ये हमसे, बताते हम गर तो क्या बताते
भला हो सब का कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी ख़राश क्यों है

उठाके हाथो से तुमने छोड़ा, चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा
अब उल्टा हमसे तो ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों है

[(दानिस्ता = जान-बूझकर), (पाश-पाश = चूर-चूर)]

अजब दोराहे पे ज़िन्दगी है, कभी हवस दिल को ख़ीचती है
कभी ये शर्मिन्दगी है दिल में कि इतनी फ़िक़्रे-मआश क्यों है

(फ़िक़्रे-मआश = आजीविका की चिंता)

न फ़िक़्र् कोई न जुस्तजू है, न ख़्वाब कोई न आरज़ू है
ये शख़्स तो कब का मर चुका है, तो बेक़फ़न फ़िर ये लाश क्यों है

(जुस्तजू = खोज, तलाश)

-जावेद अख़्तर
कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ,
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं ।
-जावेद अख़्तर
बरसों की रस्मो-राह थी इक रोज़ उसने तोड़ दी
हुशियार हम भी कम नहीं, उम्मीद हमने छोड़ दी

(रस्मो-राह = संबंध)

गिरहें पडी हैं किस तरह, ये बात है कुछ इस तरह
वो डोर टूटी बारहा, हर बार हमने जोड़ दी

[(गिरहें = गाँठ), (बारहा = बार-बार)]

उसने कहा कैसे हो तुम, बस मैने लब खोले ही थे
और बात दुनिया की तरफ़ जल्दी-से उसने मोड़ दी

वो चाहता है सब कहें, सरकार तो बेऐब है
जो देख पाए ऐब वो हर आँख उसने फ़ोड़ दी

थोड़ी-सी पाई थी ख़ुशी तो सो गई थी ज़िंदगी
ऐ दर्द तेरा शुक्रिया, जो इस तरह झंझोड़  दी
-जावेद अख़्तर
इश्क़ की बातें ख़्वाब की बातें लगती हैं,
अब सब रातें सूनी रातें लगती हैं ।
-जावेद अख़्तर