Monday, December 2, 2013

कौन आएगा यहाँ, कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा

दिल-ए-नादाँ न धड़क, ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल
तू ने जिस फूल को पाला वो पराया होगा

दिल की किस्मत ही में लिक्खा था अँधेरा शायद
वरना मस्जिद का दिया किस ने बुझाया होगा

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियों तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा

(दरख़्त = पेड़)

खेलने के लिए बच्चे निकल आए होंगे
चाँद अब उस की गली में उतर आया होगा

‘कैफ’ परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
-कैफ़ भोपाली




कभी यूँ भी तो हो
कभी यूँ भी तो हो
दरिया का साहिल हो
पूरे चाँद की रात हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
परियों की महफ़िल हो
कोई तुम्हारी बात हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
ये नर्म मुलायम ठंडी हवायें
जब घर से तुम्हारे गुज़रें
तुम्हारी ख़ुश्बू चुरायें
मेरे घर ले आयें

कभी यूँ भी तो हो
सूनी हर महफ़िल हो
कोई न मेरे साथ हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
ये बादल ऐसा टूट के बरसे
मेरे दिल की तरह मिलने को
तुम्हारा दिल भी तरसे
तुम निकलो घर से

कभी यूँ भी तो हो
तनहाई हो, दिल हो
बूँदें हो, बरसात हो
और तुम आओ

कभी यूँ भी तो हो
-जावेद अख़्तर

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