Showing posts with label -शायर: ज़फ़र गोरखपुरी. Show all posts
Showing posts with label -शायर: ज़फ़र गोरखपुरी. Show all posts

Sunday, May 17, 2015

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

(कासा = भिक्षा-पात्र)

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

(नेज़ा = भाला)

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज-सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

(धनक = इन्द्रधनुष)

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे

-ज़फ़र गोरखपुरी

Sunday, December 7, 2014

नज़्म - इकीसवीं सदी

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

दादा हैं आते थे जब, मिटटी का एक घर था
चोरों का कोई खटका न डाकुओं का डर था
खाते थे रूखी-सूखी, सोते थे नींद गहरी
शामें  भरी-भरी थीं, आबाद थी दुपहरी
संतोष था दिलों को माथे पे बल नहीं था
दिल में कपट नहीं था आँखों में  छल नहीं था
थे लोग भोले-भाले लेकिन थे प्यार वाले
दुनिया से कितनी जल्दी सब हो गए रवाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

अब्बा का वक़्त आया तालीम घर में आई                       (तालीम = शिक्षा)
तालीम साथ अपने  ताज़ा  विचार  लाई
आगे रवायतों से बढ़ने का  ध्यान  आया                         (रवायत =परम्परा)
मिटटी का घर हटा तो पक्का  मकान आया
दफ्तर की नौकरी थी, तनख्वाह का सहारा
मालिक पे था भरोसा हो जाता था गुज़ारा
पैसा अगरचे  कम था  फिर भी न कोई ग़म था
कैसा भरा-पूरा था अपना  गरीब-खाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

अब मेरा  दौर है ये कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला हर चेहरा अजनबी-सा
आँसूं न मुस्कराहट जीवन का हाल ऐसा
अपनी ख़बर नहीं है माया का जाल ऐसा
पैसा है,  मर्तबा है, इज्ज़त, वक़ार भी है                     (वक़ार = विक़ार = शान-शौक़त, वैभव)
नौकर है और चाकर बंगला है  कार भी है
ज़र पास है, ज़मीं है, लेकिन सुकूं नहीं है                    (ज़र = धन, पैसा)
पाने के वास्ते कुछ क्या-क्या पड़ा गंवाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

ए आने वाली नस्लों, ए आने वाले लोगों
भोगा है हमने जो कुछ वो तुम कभी न भोगो
जो दुःख था साथ अपने तुम से करीब न हो
पीड़ा जो हम ने झेली तुमको नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम तन्हा रहे अकेले
वो जिंदगी की महफ़िल तुमसे न कोई ले ले
तुम जिस तरफ़ से गुजरो मेला हो रौशनी का
रास आये तुमको मौसम इक्कीसवी सदी का
हम तो सुकूं को तरसे तुम पर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में जीवन लगे सुहाना

-ज़फर गोरखपुरी

पंकज उधास/ Pankaj Udhas  

Saturday, May 4, 2013

मेरे लिए किसी क़ातिल का इंतिज़ाम न कर,
करेंगी क़त्ल ख़ुद अपनी ज़रूरतें मुझको ।
- ज़फ़र गोरखपुरी

Friday, April 5, 2013

ज़माना अपने मुनाफ़े में क्यों शरीक करे,
उधर गया मैं जिधर वक़्त का बहाव न था।

मैं जी रहा हूँ कि रिश्ता है तल्ख़ियों से मेरा,
वो मर गया है कि उसे ज़हर से लगाव न था।
-ज़फ़र गोरखपुरी

(तल्ख़ियों = कड़वाहटों)
इस दौर में जब एक तबस्सुम भी जुर्म है,
हिम्मत तो देखिए मेरा हँसने  को जी करे।
-ज़फ़र गोरखपुरी

Friday, February 15, 2013

तुमसे अपना रब्त पुराना ग़म से गहरी यारी है,
जितने भी हैं जान के दुश्मन सब से रिश्तेदारी है।

(रब्त = सम्बन्ध, मेल)

-ज़फ़र गोरखपुरी