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Monday, March 4, 2019

नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर

नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर
जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर

सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा
दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर

तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी
गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर

रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा
दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर

कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन
फिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर

-निदा फ़ाज़ली

Thursday, January 3, 2019

दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए

दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए
जब तक न साँस टूटे जिए जाना चाहिए

यूँ तो क़दम क़दम पे है दीवार सामने
कोई न हो तो ख़ुद से उलझ जाना चाहिए

झुकती हुई नज़र हो कि सिमटा हुआ बदन
हर रस-भरी घटा को बरस जाना चाहिए

चौराहे बाग़ बिल्डिंगें सब शहर तो नहीं
कुछ ऐसे वैसे लोगों से याराना चाहिए

अपनी तलाश अपनी नज़र अपना तजरबा
रस्ता हो चाहे साफ़ भटक जाना चाहिए

चुप चुप मकान रास्ते गुम-सुम निढाल वक़्त
इस शहर के लिए कोई दीवाना चाहिए

बिजली का क़ुमक़ुमा न हो काला धुआँ तो हो
ये भी अगर नहीं हो तो बुझ जाना चाहिए

-निदा फ़ाज़ली

Wednesday, January 2, 2019

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया

खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया

बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया

(शाद = प्रसन्न, खुश, आनंदित)

बात बहुत मा'मूली सी थी उलझ गई तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया

दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया

(दाना = बुद्धिमान, अक़्लमंद)

-निदा फ़ाज़ली

Tuesday, January 1, 2019

आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में

आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में
सदियाँ गुज़र गई हैं इसी इंतिज़ार में

(ख़िज़ाँ = पतझड़)

छिड़ते ही साज़-ए-बज़्म में कोई न था कहीं
वो कौन था जो बोल रहा था सितार में

ये और बात है कोई महके कोई चुभे
गुलशन तो जितना गुल में है उतना है ख़ार में

अपनी तरह से दुनिया बदलने के वास्ते
मेरा ही एक घर है मिरे इख़्तियार में

(इख़्तियार = अधिकार, प्रभुत्व)

तिश्ना-लबी ने रेत को दरिया बना दिया
पानी कहाँ था वर्ना किसी रेग-ज़ार में

(तिश्ना-लबी =प्यास), (रेग-ज़ार = रेगिस्तान)

मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं
वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में

(मसरूफ़ = काम में लगा हुआ, संलग्न, Busy), (गोरकन = कब्र खोदनेवाला), (क़ज़ा = मौत)

-निदा फ़ाज़ली

Monday, December 31, 2018

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला
-निदा फ़ाज़ली

Sunday, December 30, 2018

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है
वो कौन है जो है भी नहीं और उदास है

मुमकिन है लिखने वाले को भी ये ख़बर न हो
क़िस्से में जो नहीं है वही बात ख़ास है

माने न माने कोई हक़ीक़त तो है यही
चर्ख़ा है जिस के पास उसी की कपास है

इतना भी बन-सँवर के न निकला करे कोई
लगता है हर लिबास में वो बे-लिबास है

छोटा बड़ा है पानी ख़ुद अपने हिसाब से
उतनी ही हर नदी है यहाँ जितनी प्यास है

-निदा फ़ाज़ली

Saturday, December 29, 2018

ये न पूछो कि वाक़िआ क्या है

ये न पूछो कि वाक़िआ क्या है
किस की नज़रों का ज़ाविया क्या है

(वाक़िआ = घटना, हादसा, वृत्तांत, हाल, समाचार, ख़बर), (ज़ाविया = कोण, Angle), (नज़रों का ज़ाविया = दृष्टिकोण)

सब हैं मसरूफ़ कौन बतलाए
आदमी का अता-पता क्या

(मसरूफ़ = काम में लगा हुआ, संलग्न, Busy)

चलता जाता है कारवान-ए-हयात
इब्तिदा क्या है इंतिहा क्या है

(कारवान-ए-हयात = जीवन का कारवाँ), (इब्तिदा = आरम्भ, प्रारम्भ), (इंतिहा  = अंत)

जो किताबों में है वो सब का है
तू बता तेरा तजरबा क्या है

कौन रुख़्सत हुआ ख़ुदाई से
हर तरफ़ ये ख़ुदा ख़ुदा क्या है

-निदा फ़ाज़ली

Friday, December 28, 2018

ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में

ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में
किसी को ढूँढते हैं हम किसी में

जो खो जाता है मिल कर ज़िंदगी में
ग़ज़ल है नाम उस का शाएरी में

निकल आते हैं आँसू हँसते हँसते
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में

कहीं चेहरा कहीं आँखें कहीं लब
हमेशा एक मिलता है कई में

चमकती है अंधेरों में ख़मोशी
सितारे टूटते हैं रात ही में

सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में

बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में

-निदा फ़ाज़ली

Thursday, December 27, 2018

ये जो फैला हुआ ज़माना है

ये जो फैला हुआ ज़माना है
इस का रक़्बा ग़रीब-ख़ाना है

(रक़्बा = क्षेत्रफल, इलाका)

कोई मंज़र सदा नहीं रहता
हर तअ'ल्लुक़ मुसाफ़िराना है

देस परदेस क्या परिंदों का
आब-ओ-दाना ही आशियाना है

कैसी मस्जिद कहाँ का बुत-ख़ाना
हर जगह उस का आस्ताना है

(आस्ताना =दहलीज़, चौखट)

इश्क़ की उम्र कम ही होती है
बाक़ी जो कुछ है दोस्ताना है

-निदा फ़ाज़ली

Wednesday, December 26, 2018

यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख

यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

ये ही लहू है शहादत ये ही लहू पानी
ख़िज़ाँ नसीब सही ज़ेहन में बहार भी रख

(ख़िज़ाँ = पतझड़),

घरों के ताक़ों में गुल-दस्ते यूँ नहीं सजते
जहाँ हैं फूल वहीं आस-पास ख़ार भी रख

पहाड़ गूँजें नदी गाए ये ज़रूरी है
सफ़र कहीं का हो दिल में किसी का प्यार भी रख

-निदा फ़ाज़ली

Sunday, December 23, 2018

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा

(तबस्सुम = मुस्कुराहट)

प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली
जिस को पीछे कहीं छोड़ आए वो दरिया होगा

मिरे बारे में कोई राय तो होगी उस की
उस ने मुझ को भी कभी तोड़ के देखा होगा

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

-निदा फ़ाज़ली
तुम से छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुम को ही याद किया तुम को भुलाने के लिए
-निदा फ़ाज़ली
रिश्तों का ए'तिबार वफ़ाओं का इंतिज़ार
हम भी चराग़ ले के हवाओं में आए हैं
-निदा फ़ाज़ली

Saturday, December 22, 2018

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं

आज और कल की बात नहीं है सदियों की तारीख़ यही है
हर आँगन में ख़्वाब हैं लेकिन चंद घरों में ताबीरें हैं

(ताबीर = परिणाम, फल)

जब भी कोई तख़्त सजा है मेरा तेरा ख़ून बहा है
दरबारों की शान-ओ-शौकत मैदानों की शमशीरें हैं

हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं

-निदा फ़ाज़ली
मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें

आँखों में कोई चेहरा हो, हर गाम पे इक पहरा हो
जंगल से चले बस्ती में दुनिया को सँभलकर देखें

(गाम = कदम, पग)

सूरज की तपिश भी देखी, शोलों की कशिश भी देखी
अबके जो घटाएँ छाएँ बरसात में जलकर देखें

दो चार कदम हर रस्ता पहले की तरह लगता है
शायद कोई मंज़र बदले कुछ दूर तो चलकर देखें

अब वक़्त बचा है कितना जो और लड़ें दुनिया से
दुनिया की नसीहत पर भी थोड़ा-सा अमल कर देखें

-निदा फ़ाज़ली

Saturday, September 30, 2017

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिकारी क्या

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिकारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या

उसी के चलने-फिरने, हंसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या

हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या

-निदा फ़ाज़ली

https://www.youtube.com/watch?v=m60cNdXCsT4

Sunday, November 6, 2016

ख़ुदा ख़ामोश है

बहुत से काम हैं
लिपटी हुई धरती को फैला दें
दरख़्तों को उगाएँ
डालियों पे फूल महका दें
पहाड़ों को क़रीने से लगाएँ
चाँद लटकाएँ
ख़लाओं के सरों पे नील-गूँ आकाश फैलाएँ
सितारों को करें रौशन
हवाओं को गति दे दें
फुदकते पत्थरों को पँख दे कर नग़्मगी दे दें
लबों को मुस्कुराहट
अँखड़ियों को रौशनी दे दें
सड़क पर डोलती परछाइयों को
ज़िंदगी दे दें

ख़ुदा ख़ामोश है!
तुम आओ तो तख़्लीक़ हो दुनिया
मैं इतने सारे कामों को अकेला कर नहीं सकता

-निदा फ़ाज़ली

(दरख़्तों = पेड़ों), (ख़लाओं = शून्य), (नग़्मगी = गीत), (तख़्लीक़ = उत्पत्ति करना, सृजन)

Thursday, November 3, 2016

दो-चार गाम

दो चार गाम राह को हमवार देखना
फिर हर क़दम पे इक नई दीवार देखना

(गाम = कदम, पग) , (हमवार = सामान, बराबर)

आँखों की रौशनी से है हर संग आईना
हर आइने में ख़ुद को गुनहगार देखना

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना

मैदाँ की हार जीत तो क़िस्मत की बात है
टूटी है किस के हाथ में तलवार देखना

दरिया के इस किनारे सितारे भी फूल भी
दरिया चढ़ा हुआ हो तो उस पार देखना

अच्छी नहीं है शहर के रस्तों से दोस्ती
आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना

-निदा फ़ाज़ली

Chandan Das/ चंदन दास 



Do chaar gaam raah ko hamvaar dekhna
Phir har qadam pe ik nai deevar dekhna

Ankhon ki raushni se hai har sang aaina
Har aaine mein ḳhud ko gunahgaar dekhna

Har aadmi mein hote hain dus bees aadmi
Jis ko bhi dekhna ho kaa baar dekhna

Maidan ki haar jeet to qismat ki baat hai
Tooti hai kis ke haath mein talvaar dekhna

Dariya ke is kinaare sitaare bha phool bhi
Dariya chadha hua ho to us paar dekhna

Achchhi nahin hai shahar ke raston se dosti
Aangan mein phail jaaye na bazaar dekhna

-Nida Fazli

Tuesday, October 18, 2016

जब भी किसी निगाह ने मौसम सजाये हैं

जब भी किसी निगाह ने मौसम सजाये हैं
तेरे लबों के फूल बहुत याद आये हैं

निकले थे जब सफ़र पे तो महदूद था जहाँ
तेरी तलाश ने कई आलम दिखाये हैं

(महदूद = जिसकी हद बाँध दी गई हो, सीमित)

रिश्तों का ऐतबार, वफाओं का इंतज़ार
हम भी चिराग़ ले के हवाओं में आये हैं

रस्तों के नाम वक़्त के चेहरे बदल गए
अब क्या बताएँ किसको कहाँ छोड़ आये हैं

ऐ शाम के फ़रिश्तों ज़रा देख के चलो
बच्चों ने साहिलों पे घरोंदे बनाये हैं

-निदा फ़ाज़ली

Friday, October 14, 2016

वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना

वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना
किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना

(बंजारा-सिफ़त = बंजारों के समान, एक जगह ना टिकने वाला), (लम्हा ब लम्हा = क्षण-प्रतिक्षण)

जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा
किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना

ख़ुद से मिलने का चलन आम नहीं है वरना
अपने अंदर ही छुपा होता है रस्ता अपना

यूँ भी होता है वो ख़ूबी जो है हम से मंसूब
उस के होने में नहीं होता इरादा अपना

(मंसूब = संबंधित)

ख़त के आख़िर में सभी यूँ ही रक़म करते हैं
उस ने रस्मन ही लिखा होगा तुम्हारा अपना

(रक़म = लिखना), (रस्मन = रीति/ परंपरा के अनुसार)

-निदा फ़ाज़ली