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Wednesday, February 27, 2013

वादा किया था फिर भी न आये मज़ार पर,
हमने तो जान दी थी, इसी एतबार पर ।
-अज़ीज़ लखनवी 

Tuesday, January 22, 2013

मेरे तो दर्द भी औरों के काम आते हैं,
मैं रो पडूँ तो कई लोग मुस्कुराते है।

रऊनतें चली आयीं घरों से कब्रों तक,
यहाँ भी नाम के पत्थर लगाये जाते हैं।

(रऊनत = घमंड, अभिमान)

-डॉ तारिक़ क़मर

Thursday, December 27, 2012

अरमाँ तमाम उम्र के सीने में दफ़न हैं,
हम चलते फिरते लोग मज़ारों से कम नहीं।
-खालिश बड़ोदवी 

Tuesday, October 2, 2012

मैं तिरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ,
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है।

मुझ में रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा,
ख़ुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है।

बुत भी रक्खे हैं, नमाज़ें भी अदा होती हैं,
दिल मिरा दिल नहीं, अल्लाह का घर लगता है।

ज़िन्दगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मी,
पांव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है।
-बशीर बद्र

Wednesday, September 26, 2012

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं

मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूं एतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कबसे गड़ा हूं मैं

 (एतराफ़ = इकरार करना, मानना)

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूं मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं

पहुँचा जो तेरे दर पे तो महसूस ये हुआ
लम्बी सी एक क़तार में जैसे खड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूं मैं

(ज़मीर = मन, विवेक)

-क़तील शिफाई

Tuesday, September 25, 2012

ठिकाना क़ब्र है तेरा , इबादत कुछ तो कर ग़ाफ़िल,
दस्तूर है के खाली हाथ किसी के घर नहीं जाते !
-शायर: नामालूम