Tuesday, October 2, 2012

मैं तिरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ,
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है।

मुझ में रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा,
ख़ुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है।

बुत भी रक्खे हैं, नमाज़ें भी अदा होती हैं,
दिल मिरा दिल नहीं, अल्लाह का घर लगता है।

ज़िन्दगी तूने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मी,
पांव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है।
-बशीर बद्र

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