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Saturday, December 18, 2021

शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है

शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है 
पाँव तले जो मोती बिखरें झिलमिल रस्ता लगता है 

जाड़े की इस धूप ने देखो कैसा जादू फेर दिया 
बेहद सब्ज़ दरख़्तों का भी रंग सुनहरा लगता है 

(सब्ज़ = हरा)

भेड़ें उजली झाग के जैसी सब्ज़ा एक समुंदर सा 
दूर खड़ा वो पर्बत नीला ख़्वाब में खोया लगता है 

जिस ने सब की मैल कसाफ़त धोई अपने हाथों से 
दरिया कितना उजला है वो शीशे जैसा लगता है 

(कसाफ़त = गंदगी, प्रदूषण)

अंदर बाहर एक ख़मोशी एक जलन बेचैनी से 
किस को हम बतलाएँ आख़िर ये सब कैसा लगता है 

शाम लहकते जज़्बों वाली 'फ़िक्री' कब की राख हुई 
चाँद-रू पहली किरनों वाला दर्द का मारा लगता है 

-प्रकाश फ़िक्री

Saturday, March 27, 2021

समंदर हो ज़मीं हो इसको दफ़नाया नहीं जाता।
मियां हरगिज़ कभी भी सच को झुठलाया नहीं जाता।।

अकेले ही पहुंचना है हमें उस आख़री मंज़िल
किसी का चाह कर भी साथ में साया नहीं जाता।

पहेली सा बुना है ज़िन्दगी ने हर हसीं रिश्ता
उलझ जाए सिरा कोई तो सुलझाया नहीं जाता।

हमारे ख़ून में शामिल है हरदम ये रविश "वाहिद"
पनाहों में कोई आए तो ठुकराया नहीं जाता।

(रविश =  गति, रंग-ढंग, बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग)

- विकास वाहिद
26/03/21

Thursday, January 23, 2020

सब मिला इस राह में

सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।

चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो

धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।

जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।

मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।

काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,

शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।

-मानोशी

Friday, August 2, 2019

चमकती चीज़ को सोना समझ कर

चमकती चीज़ को सोना समझ कर
बहुत पछताये किसको क्या समझ कर

न जाने कितनी सारी बेड़ियों को
पहन लेते हैं हम गहना समझ कर

हमारी प्यास की शिद्दत न पूछो
समुन्दर पी गये क़तरा समझ कर

(शिद्दत = तीव्रता), (क़तरा = कण, बूँद)

समुन्दर के ख़ज़ाने मुंतज़िर थे
हमीं उतरे नहीं गहरा समझ कर

 (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

भँवर तक हमको पहुँचाया उसी ने
जिसे थामे थे हम तिनका समझ कर

-राजेश रेड्डी

Wednesday, July 24, 2019

मेरे उलझे हुए ख़्वाबों को तराज़ू दे दे
मेरे भगवन मुझे जज़्बात पे काबू दे दे
मैं समंदर भी किसी ग़ैर के हाथों से न लूँ
और एक क़तरा भी समंदर है अगर तू दे दे
-नामालूम 

Thursday, July 4, 2019

बरसीं वहीं वहीं पे समंदर थे जिस जगह
ऊपर से हुक्म था तो घटाएँ भी क्या करें
-"सबा" अफ़ग़ानी

Friday, June 21, 2019

बहते दरिया को सलीका ए रवानी न बता

बहते दरिया को सलीका ए रवानी न बता
मैं समंदर हूँ मुझे झील का पानी न बता

(सलीका = तरीका, ढंग, तमीज़), (रवानी = बहाव, प्रवाह)

सिलसिलेवार खुली मुझ पे हक़ीक़त तेरी
ये अलग बात है तुझको थी छुपानी, न बता

मेरी आँखों मे कई ख़्वाब जगे हैं अब तक
इस घड़ी तू मुझे परियों की कहानी न बता

ये नही शै जो किताबों से समझ में आए
इश्क़ महसूस तो कर सिर्फ मआनी न बता

(शै = वस्तु, पदार्थ, चीज़), (मआनी = अर्थ, मतलब, माने)

सबको मालूम है अंजामे मुहब्बत क्या है
तू 'मलंग' अपना कभी हाले-जवानी न बता

-सुधीर बल्लेवार 'मलंग'

Wednesday, June 5, 2019

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
फ़िशार-ए-जाँ का समुंदर वो पार कर भी गया

(मरहला-ए-दर्द = दर्द का पड़ाव/ ठिकाना/ मंज़िल), (फ़िशार-ए-जाँ = जीवन की चिंता)

ख़जिल बहुत हूँ कि आवारगी भी ढब से न की
मैं दर-ब-दर तो गया लेकिन अपने घर भी गया

(ख़जिल = असमंजस में, शर्मिंदा)

ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया

गुज़रते वक़्त की सूरत हुआ न बेगाना
अगर किसी ने पुकारा तो मैं ठहर भी गया

-साबिर ज़फ़र

Sunday, May 12, 2019

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी
कहीं कहीं पे छुपे थे मगर सवेरे भी

निकल पड़े थे तो फिर राह में ठहरते क्या
यूँ आस-पास कई पेड़ थे घनेरे भी

ये शहर-ए-सब्ज़ है लेकिन बहुत उदास हुए
ग़मों की धूप में झुलसे हुए थे डेरे भी

(शहर-ए-सब्ज़ = जीवंत/ ज़िंदादिल शहर)

हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं
सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी

(हुदूद-ए-शहर = शहर की हदों)

समुंदरों के ग़ज़ब को गले लगाए हुए
कटे-फटे थे बहुत दूर तक जज़ीरे भी

(जज़ीरे = द्वीप)

-खलील तनवीर

Monday, March 4, 2019

नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर

नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर
जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर

सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा
दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर

तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी
गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर

रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा
दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर

कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन
फिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर

-निदा फ़ाज़ली

क़तरा न हो तो बहर न आए वजूद में
पानी की एक बूँद समुंदर से कम नहीं
-जुनैद हज़ीं लारी

(बहर = समुद्र)

Thursday, February 21, 2019

तुम मुझको कब तक रोकोगे

मुठ्ठी में कुछ सपने लेकर, भरकर जेबों में आशाएं
दिल में है अरमान यही, कुछ कर जाएं, कुछ कर जाएं
सूरज-सा तेज नहीं मुझमें, दीपक-सा जलता देखोगे
अपनी हद रौशन करने से, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोकोगे

मैं उस माटी का वृक्ष नहीं, जिसको नदियों ने सींचा है
बंजर माटी में पलकर मैंने, मृत्यु से जीवन खींचा है
मैं पत्थर पर लिखी इबारत हूँ, शीशे से कब तक तोड़ोगे
मिटने वाला मैं नाम नहीं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

इस जग में जितने ज़ुल्म नहीं, उतने सहने की ताकत है
तानों  के भी शोर में रहकर सच कहने की आदत है
मैं सागर से भी गहरा हूँ, तुम कितने कंकड़ फेंकोगे
चुन-चुन कर आगे बढूँगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

झुक-झुककर सीधा खड़ा हुआ, अब फिर झुकने का शौक नहीं
अपने ही हाथों रचा स्वयं, तुमसे मिटने का खौफ़ नहीं
तुम हालातों की भट्टी में, जब-जब भी मुझको झोंकोगे
तब तपकर सोना बनूंगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

-नामालूम






Sunday, December 10, 2017

ज़िंदगी है इक सफ़र और ज़िंदगी की राह में
ज़िंदगी भी आए तो ठोकर लगानी चाहिए

मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया
इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए
-राहत इंदौरी

Thursday, April 13, 2017

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

(सहरा = रेगिस्तान, जंगल, बयाबान, वीराना, विस्तार)

तेरे पहलू से जो उठ्ठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख़्स को पाऊँगा जिधर जाऊँगा

अब तिरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

(साया-ए-अब्र = बादल की परछाई)

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वर्ना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मिरा मेआर कि मैं
ज़ख़्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

(चारासाज़ों = चिकित्सकों), (मेआर = मानदंड)

अब तो ख़ुर्शीद को गुज़रे हुए सदियाँ गुज़रीं
अब उसे ढूँढने मैं ता-ब-सहर जाऊँगा

(ख़ुर्शीद = सूरज), (ता-ब-सहर = सुबह तक)

ज़िंदगी शम्अ' की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
बुझ तो जाऊँगा मगर सुब्ह तो कर जाऊँगा

-अहमद नदीम क़ासमी

Sunday, February 19, 2017

न जाने कौन मेरे हक़ में दुआ पढ़ता है
डूबता भी हूँ तो समन्दर उछाल देता है
-शायर: नामालूम

Sunday, September 25, 2016

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता
टूटे भी जो तारा तो जमीं पर नहीं गिरता

गिरते हैं समंदर में बड़े शौक़ से दरिया
लेकिन किसी दरिया में समंदर नहीं गिरता

समझो वहां फलदार शजर कोई नहीं है
वह सेहन कि जिसमें कोई पत्थर नहीं गिरता

(शजर = पेड़)

इतना तो हुआ फ़ायदा बारिश की कमी का
इस शहर में अब कोई फिसल कर नहीं गिरता

इनआम के लालच में लिखे मद्ह किसी की
इतना तो कभी कोई सुख़नवर नहीं गिरता

(मद्ह = तारीफ़)

हैरां है कई रोज से ठहरा हुआ पानी
तालाब में अब क्यों कोई कंकर नही गिरता

इस बंदा-ए-खुद्दार पे नबियों का है साया
जो भूख में भी लुक्मा-ए-तर पर नहीं गिरता

(लुक्मा-ए-तर = अच्छा भोजन)

करना है जो सर म'अरका-ए-जीस्त तो सुन ले
बे-बाज़ू-ए-हैदर दर-ए-ख़ैबर नहीं गिरता

क़ायम है 'क़तील' अब यह मेरे सर के सुतूँ पर
भूचाल भी आए तो अब मेरा घर नहीं गिरता

(सुतूँ = खम्बा)

-क़तील शिफ़ाई

https://www.youtube.com/watch?v=bwAN7hh2VYY&feature=player_embedded

Wednesday, September 21, 2016

आना भी नहीं है कहीं जाना भी नहीं है

आना भी नहीं है कहीं जाना भी नहीं है
अब मिलने मिलाने का ज़माना भी नहीं है

तुम भी तो मेरे चाहने वालों में थे शामिल
किस्सा ये कोई ख़ास पुराना भी नहीं है

इस दिल में कई राज़ तो ऐसे भी हैं जिनको
करना भी नहीं याद भुलाना भी नहीं है

मंदिर में भी, मैखाने में भी शोर बहुत है
अपना तो कहीं और ठिकाना भी नहीं है

दुनिया को बुरा कहना है हर हाल में लेकिन
दुनिया को हमें छोड़ के जाना भी नहीं है

साहिल पे गुज़र हो तो समंदर से गरज़ क्या
खोना भी नहीं कुछ हमें पाना भी नहीं है

कुछ लोग न समझे हैं न समझेंगे हकीकत
हमको ये ग़ज़ल उनको सुनाना भी नहीं है

-अशोक मिज़ाज बद्र

Tuesday, July 26, 2016

ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम
गहरे समंदरों में सफ़र कर रहे हैं हम
‪-रईस अमरोहवी‬

Saturday, July 2, 2016

मौसम की मनमानी है, आँखों आँखों पानी है

मौसम की मनमानी है
आँखों आँखों पानी है

साया साया लिख डालो
दुनिया धूप कहानी है

सब पर हँसते रहते हैं
फूलों की नादानी है

हाय ये दुनिया,हाय ये लोग
हाय,ये सब कुछ फ़ानी है

(फ़ानी = नश्वर, नष्ट हो जाने वाला)

साथ एक दरिया रख लेना
रस्ता रेगिस्तानी है

कितने सपने देख लिये
आँखों को हैरानी है

दिलवाले अब कम कम हैं
वैसे क़ौम पुरानी है

दुनिया क्या है मुझसे पूछ
मैंने दुनिया छानी है

बारिश,दरिया,सागर,ओस,
आँसू पहला पानी है

तुझको भूले बैंठे हैं
क्या ये कम क़ुर्बानी है

दरिया हमसे आँख मिला
देखें कितना पानी है

मौसम की मनमानी है
आँखों आँखों पानी है

-राहत इंदौरी

Wednesday, April 20, 2016

मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है

मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है
अब तआकुब में वो महताब नज़र आता है

(तआक़ुब = पीछा करना), (महताब = चन्द्रमा)

गूंजती रहती हैं साहिल की सदाएं हर दम
और समुन्दर मुझे बेताब नज़र आता है

(साहिल = किनारा)

इतना मुश्किल भी नहीं यार! ये मौजों का सफ़र
हर तरफ़ क्यूँ तुझे गिर्दाब नज़र आता है

(गिर्दाब = भँवर)

क्यूँ हिरासाँ है ज़रा देख ! तो गहराई में
कुछ चमकता सा तहे-आब नज़र आता है

(हिरासाँ = भयभीत, निराश), (तहे-आब = पानी के अंदर)

मैं तो तपता हुआ सहरा हूँ मुझे ख्वाबों में
बे-सबब खित्ता-ए-शादाब नज़र आता है

(सहरा = रेगिस्तान), (खित्ता-ए-शादाब = हरा भरा इलाका)

राह चलते हुए बेचारी तही-दस्ती को
संग भी गौहरे-नायाब नज़र आता है

(तही-दस्ती = ख़ाली हाथ, महरूमी), (संग = पत्थर), (गौहरे-नायाब = नायाब मोती)

ये नए दौर का बाज़ार है आलम साहिब !
इस जगह टाट भी किमख्वाब नज़र आता है

(किमख्वाब = एक प्रकार का बेहद क़ीमती कपड़ा)

-आलम खुर्शीद