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Wednesday, February 24, 2021

उभरा हर एक बार नया फूल बनके मैं
मिट्टी में जितनी बार मिलाया गया मुझे
इक़बाल अशहर

Thursday, November 19, 2020

इसके ज़्यादा उसके कम

इसके ज़्यादा उसके कम
सबके अपने अपने ग़म।

ज़ख़्म उसी ने बख़्शे हैं
जिसको बख़्शा था मरहम।

जो लिक्खा है वो होगा
पन्ना पहनो या नीलम।

हाय, तबस्सुम चेहरे पर
फूल पे हो जैसे शबनम।

(तबस्सुम =  मुस्कराहट), (शबनम = ओस)

साँसों तक का झगड़ा फिर
कैसी ख़ुशियाँ, क्या मातम।

सुब्ह तलक जो जलना था
रक्खी अपनी लौ मद्धम।

आँखें कितनी पागल हैं
अक्सर बरसीं बे-मौसम।

इक मौसम में बारिश के
यादों के कितने मौसम।

ख़्वाहिश अब तक ज़िंदा है
जिस्म पड़ा है पर बेदम।

- विकास वाहिद

Thursday, October 22, 2020

 बीती बातें, गुज़रे लम्हे, बिखरे सपने, भूले क़ौल
आख़िर इन टूटी क़बरों पर कब तक फूल चढ़ाओगे
- नामालूम

(क़ौल = वादा, कथन, उक्ति, वचन)

Wednesday, September 23, 2020

नज़र जमी है तारों पर

नज़र जमी है तारों पर
चलना है अंगारों पर

ज़ख़्म दिए सब फूलों ने
तोहमत आई ख़ारों पर

(तोहमत=इल्ज़ाम), (ख़ार=काँटा)

घर, घरवालों ने लूटा
शक है पहरेदारों पर

गुम-सुम पँछी बैठे हैं
सब बिजली के तारों पर

सुर्ख़ लहू के फूल खिले
ज़ंग लगी तलवारों पर

"शाहिद" जितना ख़ून बहा
रंग चढ़ा अख़बारों पर

- शाहिद मीर


Thursday, May 7, 2020

किसी को काँटों से चोट पहुँची किसी को फूलों ने मार डाला
जो इस मुसीबत से बच गए थे उन्हें उसूलों ने मार डाला
-इक़बाल अशहर 

Thursday, April 23, 2020

याद में उसकी भीगा कर

याद में उसकी भीगा कर
फूलों जैसा महका कर

भीड़ में ख़ुद को तन्हा कर
ये मंज़र भी देखा कर

बूढ़ों में भी बैठा कर
बच्चों से भी खेला कर

सबको राह दिखा लेकिन
अपनी राह भी देखा कर

किससे भूल नहीं होती
इतना भी मत सोचा कर

तू भी दौलत से भर जा
सबके ग़म को अपनाकर

जन्नत किसने देखी है
जीवन जन्नत जैसा कर

प्यार की अपनी आँखें हैं
देख ही लेगा देखा कर


-हस्तीमल हस्ती
कब महकती है भला रात की रानी दिन में
शहर सोया तो तेरी याद की खुशबु जागी
-परवीन शाकिर 

Thursday, April 16, 2020

बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुँह खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

(रक़्क़ासा = नर्तकी)

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

(जम्हू री निज़ाम= गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

उसका मकतब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

(मकतब = पाठशाला, स्कूल)

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Wednesday, April 15, 2020

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

(तक़रीर = वार्तालाप, बातचीत, भाषण, वक्तव्य, बयान, वाद-विवाद, हुज्जत)

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक़ आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

(सुख़नवर = कवि, शायर)

फूलों की ज़िन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आज़माइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

(जम्हूरियत = गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये 'अमित'
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’ 

Wednesday, March 25, 2020

रफ़्तार करो कम, के बचेंगे तो मिलेंगे।

रफ़्तार करो कम, के बचेंगे तो मिलेंगे
गुलशन ना रहेगा तो, कहाँ फूल खिलेंगे।

वीरानगी में रह के, ख़ुद से भी मिलेंगे
रह जायें सलामत तो, गुल ख़ुशियों के खिलेंगे।

अब वक़्त आ गया है, कायनात का सोचो
ये रूठ गयी गर, तो ये मौके न मिलेंगे।

जो हो रहा है समझो, क्यों हो रहा है ये
क़ुदरत के बदन को, और कितना ही छीलेंगे।

मौका है अभी देख लो, फिर देर न हो जाए
जो कुदरत को दिए ज़ख़्म, वो हम कैसे सिलेंगे।

है कोई तो जिसने, जहाँ हिला के रख दिया
लगता था कि हमारे बिन, पत्ते न हिलेंगे।

झांको दिलों के अंदर, क्या करना है सोचो
ख़ाक़ में वरना हम, सभी जाके मिलेंगे।

-नामालूम

https://www.youtube.com/watch?v=mmoBj2Fc1tM


Thursday, January 23, 2020

सब मिला इस राह में

सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।

चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो

धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।

जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।

मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।

काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,

शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।

-मानोशी

Wednesday, November 20, 2019

अश्क ढलते नहीं देखे जाते

अश्क ढलते नहीं देखे जाते
दिल पिघलते नहीं देखे जाते

(अश्क = आँसू)

फूल दुश्मन के हों या अपने हों
फूल जलते नहीं देखे जाते

तितलियाँ हाथ भी लग जाएँ तो
पर मसलते नहीं देखे जाते

जब्र की धूप से तपती सड़कें
लोग चलते नहीं देखे जाते

(जब्र = अन्याय, ज़ुल्म)

ख़्वाब-दुश्मन हैं ज़माने वाले
ख़्वाब पलते नहीं देखे जाते

देख सकते हैं बदलता सब कुछ
दिल बदलते नहीं देखे जाते

-अब्दुल्लाह जावेद


Monday, September 23, 2019

मुझे नवाज़ दी मौला ने फूल सी बेटी
मिरे हिसाब में कुछ नेकियाँ निकल आईं
-नफ़स अम्बालवी

Tuesday, September 3, 2019

मुरझाए हुए फूल की तक़दीर हूँ, लेकिन
चुभ जाए किसी दिल में, वो काँटा तो नहीं हूँ
-शायर: नामालूम

Sunday, September 1, 2019

एक दिल को हज़ार दाग़ लगा

एक दिल को हज़ार दाग़ लगा
अन्दरूने में जैसे बाग़ लगा

उससे यूँ गुल ने रंग पकड़ा है
शमा से जैसे लें चिराग़ लगा

ख़ूबी यक पेचाँ बंद ख़ूबाँ की
ख़ूब बाँधूँगा गर दिमाग़ लगा

(ख़ूबी = हुस्न, योग्यता, प्रतिभा,गुण,), (पेचाँ = घुमावदार, पेचीला, लिपटा हुआ, उलझा हुआ), (बंद = फंदा, पाश, गाँठ ), (ख़ूबाँ = सुन्दर स्त्रियां, माशूक़ लोग, प्रियतमाएँ)

पाँव दामन में खेंच लेंगे हम
हाथ ग़र गोशा-ए-फ़राग़ लगा

(फ़राग़ = अवकाश, छुट्टी, निश्चिंतता, बेफ़िक्री, छुटकारा, मुक्ति, संतोष, चैन), (गोशा = कोना, एकान्त स्थान)

'मीर' उस बे-निशाँ को पाया जान
कुछ हमारा अगर सुराग़ लगा

(बे-निशाँ = गुमनाम, आस्तित्वहीन, जिसका कोई अता-पता न हो)

-मीर तक़ी मीर

Sunday, August 25, 2019

तुम ग़ैरों से हँस हँस के, मुलाक़ात करो हो

तुम ग़ैरों से हँस हँस के, मुलाक़ात करो हो
और हम से वही ज़हर-भरी, बात करो हो

बच बच के गुज़र जाओ हो, तुम पास से मेरे
तुम तो ब-ख़ुदा ग़ैरों को भी, मात करो हो

नश्तर सा उतर जावे है, सीने में हमारे
जब माथे पे बल डाल के, तुम बात करो हो

तक़वे भी बहक जावें हैं, महफ़िल में तुम्हारी
तुम अपनी इन आँखों से, करामात करो हो

(तक़वे=पवित्र, पाक)

फूलों की महक आवे है, साँसों में तुम्हारी
मोती से बिखर जावें हैं, जब बात करो हो

हम ग़ैरों के आगे तुम्हें, क्या हाल बताएँ
पास आ के सुनो, दूर से क्या बात करो हो

क्या कह के पुकारेंगे, तुम्हें लोग ये सोचो
"इक़बाल" पे तुम ज़ुल्म तो, दिन रात करो हो

-इक़बाल अज़ीम

Tuesday, August 20, 2019

दुई का तज़्किरा तौहीद में, पाया नहीं जाता

दुई का तज़्किरा तौहीद में, पाया नहीं जाता
जहाँ मेरी रसाई है, मिरा साया नहीं जाता

(दुई = दो का भाव, द्वैत), (तज़्किरा = चर्चा, बातचीत), (तौहीद = ईश्वर को एक मानना), (रसाई = पहुंच)

मिरे टूटे हुए पा-ए-तलब का, मुझ पे एहसाँ है
तुम्हारे दर से उठ कर अब कहीं, जाया नहीं जाता

(पा-ए-तलब = इच्छा रूपी पैर)

मोहब्बत हो तो जाती है, मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोअ'ला ख़ुद भड़क उठता है, भड़काया नहीं जाता

फ़क़ीरी में भी मुझ को माँगने से, शर्म आती है
सवाली हो के मुझ से हाथ, फैलाया नहीं जाता

चमन तुम से इबारत है, बहारें तुम से ज़िंदा हैं
तुम्हारे सामने फूलों से, मुरझाया नहीं जाता

(इबारत = शब्द-चित्रण, प्रतीक)

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल, मख़्सूस होते हैं
ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पर, गाया नहीं जाता

(मख़्सूस = विशिष्ट, ख़ास)

मोहब्बत अस्ल में 'मख़मूर', वो राज़-ए-हक़ीक़त है
समझ में आ गया है फिर भी, समझाया नहीं जाता

- "मख़मूर" देहलवी

Sunday, August 18, 2019

सब कुछ खो कर मौज उड़ाना, इश्क़ में सीखा

सब कुछ खो कर मौज उड़ाना, इश्क़ में सीखा
हम ने क्या क्या तीर चलाना, इश्क़ में सीखा

रीत के आगे प्रीत निभाना, इश्क़ में सीखा
साधू बन कर मस्जिद जाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ से पहले तेज़ हवा का, ख़ौफ़ बहुत था
तेज़ हवा में हँसना गाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ किया तो ज़ुल्म हुआ, और ज़ुल्म हुआ जब
ज़ुल्म के आगे सर न झुकाना, इश्क़ में सीखा

अपने दुख में रोना-धोना, आप ही आया
ग़ैर के दुख में ख़ुद को दुखाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ का जादू क्या होता है, हम से पूछो
धूल में मिल कर फूल खिलाना, इश्क़ में सीखा

कुछ भी 'हिलाल' अब डींगें मारो, लेकिन तुम ने
महफ़िल महफ़िल धूम मचाना, इश्क़ में सीखा

-हिलाल फ़रीद

Friday, July 5, 2019

गुलों ने ख़ारों के छेड़ने पर, सिवा ख़मोशी के दम न मारा
शरीफ़ उलझें गर किसी से, तो फिर शराफ़त कहाँ रहेगी?

- शाद अज़ीमाबादी

(ख़ार = कांटे)

Tuesday, July 2, 2019

मैं ख़ाक में मिले हुए गुलाब देखता रहा
और आने वाले मौसमों के ख़्वाब देखता रहा

किसी ने मुझ से कह दिया था ज़िंदगी पे ग़ौर कर
मैं शाख़ पर खिला हुआ गुलाब देखता रहा

-अफ़ज़ाल फ़िरदौस