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Tuesday, May 21, 2013

ग़म दिए हैं तो किस करीने से,
दूर रहता हूँ हम नशीनों से
दिल की दुश्मन बनी है दिल की लगी,
सांप निकले हैं आस्तीनों से
-कँवल ज़ियाई

Wednesday, May 8, 2013

जाम ख़ाली रहा मेरा अब तक,
क्या अजब वारदात है साक़ी।
तेरे लुत्फ़ ओ करम की बात नहीं,
मेरी क़िस्मत की बात है साक़ी।
-कँवल ज़ियाई
दोस्तों के करम कहाँ जाते,
हम न होते तो ग़म कहाँ जाते।
बादा ख़ानों ने लाज रख ली है,
वरना दैर ओ हरम कहाँ जाते।
-कँवल ज़ियाई
ज़िंदगी एक बदहवासी है,
ज़िंदगी मुस्तक़िल उदासी है।

साक़ी ए वक्त जाम दे मुझ को,
मेरे शेरों की रूह प्यासी है।
-कँवल ज़ियाई

Friday, May 3, 2013

परख फज़ा की, हवा का जिसे हिसाब भी है,
वो शख्स साहिबे फन भी है, कामयाब भी है।

जो रूप आप को अच्छा लगे वो अपना लें,
हमारी शख्सियत कांटा भी है, गुलाब भी है।

हमारा  खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं,
हमारे जिस्म में गंगा भी है, चनाब भी है।

हमारा  दौर अंधेरों का दौर है, लेकिन,
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है।

किसी  ग़रीब की रोटी पे अपना नाम न लिख,
किसी ग़रीब की रोटी में इन्क़लाब भी है।

मेरे सवाल कोई आम सा सवाल नहीं,
मेरा सवाल तेरी बात का जवाब भी है।

इसी  ज़मीन  पे हैं आख़री क़दम अपने,
इसी ज़मीन  में बोया हुआ शबाब भी है।
-कँवल ज़ियाई
मुखौटा ले के इस के पूरे दाम लौटा दो,
मेरा लिबास मुझ को मेरा नाम लौटा दो।

सुलगते नूर के तूफ़ान जान-लेवा हैं,
हमें वो धीमे चराग़ों की शाम लौटा दो।

सुना है आप के हाथों में इक करिश्मा है,
जो हो सके तो सुकूने-अवाम लौटा दो।

हर एक शख्स  के हाथों में दे के आईना,
हर एक शख्स को उसका मक़ाम लौटा दो।

उठा के शहर में  ले जाओ अपनी सौग़ातें,
हमारे गाँव का सादा निज़ाम लौटा दो।

हमें भी अपने वुजूदों से काम लेना है,
हमारे खून के  लबरेज़ जाम लौटा दो।

वक़ार कुछ नहीं काग़ज़ पे बिखरे लफ़्ज़ों का,
हमारे हाथ के लिक्खे पयाम लौटा दो।

[(वक़ार = भारी भरकमपन, प्रतिष्ठा, गंभीरता), (पयाम = समाचार, संदेश)]

-कँवल ज़ियाई
जनाब! हम ने भी देखे हैं वक़्त के तेवर,
हुज़ूर! हम ने भी इक ज़िंदगी गुज़ारी है।
-कँवल ज़ियाई

Thursday, May 2, 2013

ऐसा शहर भी इक बसता है
जिस के सब टेढ़े रस्ते हैं
जिस में लोग बहुत सस्ते हैं
जिस में ग़म का बोझ उठाए
तुम बसते हो हम बसते हैं
-कँवल ज़ियाई

Wednesday, May 1, 2013

काग़ज़ का इक ताज महल है
काग़ज़ का अंदाज़ है जिस में
काग़ज़ का हर राज़ है जिस में
काग़ज़ के वादों में लिपटी
काग़ज़ की मुमताज़ है जिस में
-कँवल ज़ियाई

Tuesday, April 30, 2013

बह रहा है कुफ़्र का दरिया कुछ इस अंदाज़ से,
जैसे इस में कोई कश्ती आज तक डूबी न हो।

(कुफ़्र = कृतघ्नता, अकृतज्ञता)

देखना है कौनसी ऐसी क़यामत आएगी,
जो क़यामत हम ग़रीबों ने कभी देखी न हो।
-कँवल ज़ियाई
हम नहीं मानते कमतर है मुक़द्दर अपना,
आप के हाल से हर हाल है बेहतर अपना।

वक़्त को बज़्म के आदाब सिखा दो यारों!
वक़्त से बात करो जाम उठा कर अपना।

अपने किरदार की औक़ात के आईने में,
अक्स हम देख लिया करते हैं अक्सर अपना।

हम को पहचान लिया अहले-करम ने आखिर,
हम तो निकले थे नया भेस बदल कर अपना।

इस में तरमीम की अब कोई नहीं गुंजाइश,
ऐसे अल्फ़ाज़ से लिखा है मुक़द्दर अपना।

(तरमीम = संशोधन, सुधार), (अल्फ़ाज़ = लफ़्ज़ का बहुवचन, शब्द-समूह)

दर्द की आग  से माज़ी के जले सीने पर,
रख दिया हाल की तहज़ीब ने पत्थर अपना।

(माज़ी = भूतकाल, बीता हुआ समय)

हम ने माना है इलाजे-ग़मे-दुनिया इस को,
आप कहते हैं कि हम तोड़ दें साग़र अपना?
-कँवल ज़ियाई
मुहाफिज़ बहारों के सोते रहे,
गुलों के जिगर चाक होते रहे।

[(मुहाफिज़ = रक्षक), (गुल = फूल)]

तमन्नाएँ हर दिल को डसती रहीं,
ख़यालात नश्तर चुभोते रहे।

गुलिस्तां में खिलते रहे गुल कई,
मगर लोग काँटों पे सोते रहे।

जो हँसते थे हँसते रहे उम्र भर,
जो रोते थे रोते के रोते रहे।

इधर ज़ब्त की बात चलती रही,
उधर वार पर वार होते रहे।

वही आज मंज़िल के मालिक बने,
जो कांटे सरे राह बोते रहे।

गिरेबां के तारों में अहले-जुनूं,
मुहब्बत की कलियाँ पिरोते रहे।

(अहले-जुनूं = जूनून वाले लोग)

'कँवल' पारसाने-जहाँ ख़ून से,
गुनाहों के धब्बों को धोते रहे।

(पारसाने-जहाँ =  दुनिया के सदाचारी/ संयमी लोग)

-कँवल ज़ियाई