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Wednesday, July 3, 2024

 वो और होंगे जिन से ये उक़दा खुला नहीं
लेकिन मैं अपनी ज़ात से ना-आश्ना नहीं

आँसू नहीं  ग़ुरूर नहीं और हया नहीं
आँखों में है ये क्या जो मुझे सूझता नहीं

ऐ दिल ज़माने भर से तवक़्क़ो बजा नहीं
हर कोई बावफ़ा सर-ए-राह-ए-वफ़ा नहीं

अपने किए पे तुम हो पशेमान किसलिए
ये रंज-ओ-ग़म ये दर्द मेरा मस'अला नहीं

कुछ कुछ ख़याल-ए-यार में उलझा हुआ तो है
यूँ ख़ास कशमकश में ये दिल मुब्तिला नहीं

दिल तो है फिर भी दिल इसे रखिए सँभाल कर
माना कि आजकल ये किसी काम का नहीं

बाक़ी रहा न लुत्फ़ सवाल-ओ-जवाब में
हर बात पे वो कहते हैं मुझ को पता नहीं

'पैहम' को आते देख के चिढ़ते हो किसलिए
वाइज़ नहीं वो शैख़ नहीं पारसा नहीं

-सत्यपाल 'पैहम'

Wednesday, December 29, 2021

सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हम ने क्या देखा

सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हम ने क्या देखा 
जो ख़ुद हम को ढूँढ रहा हो ऐसा इक रस्ता देखा 

दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती 
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा 

सोना लेने जब निकले तो हर हर ढेर में मिट्टी थी 
जब मिट्टी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा 

सूखी धरती सुन लेती है पानी की आवाज़ों को 
प्यासी आँखें बोल उठती हैं हम ने इक दरिया देखा 

आज हमें ख़ुद अपने अश्कों की क़ीमत मालूम हुई 
अपनी चिता में अपने-आप को जब हम ने जलता देखा 

चाँदी के से जिन के बदन थे सूरज के से मुखड़े थे 
कुछ अंधी गलियों में हम ने उन का भी साया देखा 

रात वही फिर बात हुई ना हम को नींद नहीं आई 
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा 

-ख़लील-उर-रहमान आज़मी

Sunday, January 3, 2021

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है
ये जो मिरा वजूद है जाने कहाँ का है

क़िस्सा ये मुख़्तसर सफ़र-ए-रायगाँ का है 
हैं कश्तियाँ यक़ीं की समुंदर गुमाँ का है

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त), (सफ़र-ए-रायगाँ = व्यर्थ का सफ़र), (गुमाँ = गुमान, घमण्ड, अहँकार)

मौजूद हर जगह है ब-ज़ाहिर कहीं नहीं
हर सिम्त इक निशान किसी बेनिशाँ का है

धुंधले से कुछ नज़ारे उभरते हैं ख़्वाब में
खुलता नहीं है कौन-सा मंज़र कहाँ का है

दीवार-ओ-दर पे सब्ज़ा है और दिल है ज़र्द-ज़र्द
ये मौसम-ए-बहार ही मौसम ख़ज़ाँ का है

(सब्ज़ा = घास), (ख़ज़ाँ = पतझड़)

ह़ैराँ हूंँअपने लब पे तबस्सुम को देखकर
किरदार ये तो और किसी दास्ताँ का है

(तबस्सुम = मुस्कराहट)

दम तोड़ती ज़मीं का है ये आख़िरी बयान
होठों पे उसके नाम किसी आसमाँ का है

जाते हैं जिसमें लोग इबादत के वास्ते
सुनते हैं वो मकान किसी ला-मकाँ का है

(ला-मकाँ = ईश्वर, ख़ुदा)

आँसू को मेरे देखके बोली ये बेबसी
ये लफ़्ज़ तो ह़ुज़ूर हमारी ज़ुबाँ का है

- राजेश रेड्डी

Friday, July 31, 2020

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं

बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं
लोग समझने लगते हैं हम गूँगे-बहरे हैं

होरी को क्या पता नहीं, उसकी बदहाली से
काले ग्रेनाइट पर कितने हर्फ़ सुनहरे हैं

धड़क नहीं पाता दिल मेरा तेरी धड़कन पर
मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारों के इतने पहरे हैं

पढ़-लिख कर मंत्री हो पाये, बिना पढ़े राजा
जाने कब से राजनीति के यही ककहरे हैं

निष्ठा को हर रोज़ परीक्षा देनी होती है
अविश्वास के घाव दिलों में इतने गहरे हैं

मैं रोया तो नहीं नम हुई हैं फिर भी आंखें
और किसी के आँसू इन पलकों पर ठहरे हैं

बौनो की आबादी में है कद पर पाबन्दी
उड़ने लायक सभी परिन्दो के पर कतरे हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, May 11, 2020

पानी आँख में भरकर लाया जा सकता है
अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है
-अब्बास ताबिश

Wednesday, April 22, 2020

कितना सुख है निज अर्पन में

जाने कितने जन्मों का
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।

खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा
कर जाने कब सिंधु समायी ।

सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।

मिलने की बेला जब आयी
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।

पतझर में बेमौसम बारिश
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।

थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था,
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे
भावों का अहसास तरल था ।

है आनंद पराजय में अब
कितना सुख है निज अर्पन में ।।

-मानोशी 

Sunday, April 19, 2020

अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 16, 2020

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ

(ब-ज़ाहिर = प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से)

अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
ज़ख़्म यादों से धोना चाहता हूँ

वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ

कभी अपने ही दिल की रहगुज़र में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ

नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।

गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।

भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ

नये हों रास्ते मंज़िल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।

'अमित' अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, March 30, 2020

ध्यान में आ कर बैठ गए हो तुम भी नाँ

ध्यान में आ कर बैठ गए हो तुम भी नाँ
मुझे मुसलसल देख रहे हो तुम भी नाँ

(मुसलसल = लगातार)

दे जाते हो मुझ को कितने रंग नए
जैसे पहली बार मिले हो तुम भी नाँ

हर मंज़र में अब हम दोनों होते हैं
मुझ में ऐसे आन बसे हो तुम भी नाँ

(मंज़र = दृश्य)

इश्क़ ने यूँ दोनों को आमेज़ किया
अब तो तुम भी कह देते हो तुम भी नाँ

(आमेज़ = मिलने वाला, मिलाने वाला)

ख़ुद ही कहो अब कैसे सँवर सकती हूँ मैं
आईने में तुम होते हो तुम भी नाँ

बन के हँसी होंटों पर भी रहते हो
अश्कों में भी तुम बहते हो तुम भी नाँ

मेरी बंद आँखें तुम पढ़ लेते हो
मुझ को इतना जान चुके हो तुम भी नाँ

माँग रहे हो रुख़्सत और ख़ुद ही
हाथ में हाथ लिए बैठे हो तुम भी नाँ

-अंबरीन हसीब अंबर






Monday, November 25, 2019

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा

वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा

तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्म-ए-तर में रहा

(चश्म-ए-तर = भीगी आँखें)

वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा

हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा

-गोपालदास नीरज

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है
जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है

सबूत है मेरे घर में धुएं के ये धब्बे
कभी यहाँ पे उजालों ने ख़ुदकुशी की है

ना लड़खडायाँ कभी और कभी ना बहका हूँ 
मुझे पिलाने में  फिर तुमने क्यूँ कमी की है

कभी भी वक़्त ने उनको नहीं मुआफ़ किया
जिन्होंने दुखियों के अश्कों से दिल्लगी की है

(अश्कों = आँसुओं)

किसी के ज़ख़्म को मरहम दिया है गर तूने
समझ ले तूने ख़ुदा की ही बंदगी की है

-गोपालदास नीरज

Wednesday, November 20, 2019

अश्क ढलते नहीं देखे जाते

अश्क ढलते नहीं देखे जाते
दिल पिघलते नहीं देखे जाते

(अश्क = आँसू)

फूल दुश्मन के हों या अपने हों
फूल जलते नहीं देखे जाते

तितलियाँ हाथ भी लग जाएँ तो
पर मसलते नहीं देखे जाते

जब्र की धूप से तपती सड़कें
लोग चलते नहीं देखे जाते

(जब्र = अन्याय, ज़ुल्म)

ख़्वाब-दुश्मन हैं ज़माने वाले
ख़्वाब पलते नहीं देखे जाते

देख सकते हैं बदलता सब कुछ
दिल बदलते नहीं देखे जाते

-अब्दुल्लाह जावेद


Thursday, October 24, 2019

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही

ओ कल्प-वृक्ष की सोन-जूही, ओ अमलतास की अमर कली,
धरती के आताप से जलते मन पर छायी निर्मल बदली,
मैं तुमको मधु-सद-गंध युक्त, संसार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

तुम कल्प-वृक्ष का फूल और मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य, मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधूरी ग़ज़ल शुभे, तुम शाम गान सी पावन हो,
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी, बिजुरी सी तुम मन भावन हो

इसलिए व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउँगा
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा

तुम जिस शैया पर शयन करो, वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौल-श्री, वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ, वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो, वह व्यक्ति नहीं वंशी-वट हो

पर मैं वट जैसा सघन छॉंह, विस्तार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

मैं तुमको चाँद सितारों का सौंपू उपहार भला कैसे,
मैं यायावर बंजारा साधू, दूं सुर श्रंगार भला कैसे
मैं जीवन के प्रश्नो से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे,
बारूदी बिछी धरती पर कर लूं दो पल प्यार भला कैसे

इसलिए विवश हर आंसू को सत्कार नहीं दे पाउँगा,
तुम मुझको करना माफ़ प्रिये, मैं प्यार नहीं दे पाउँगा.

- डॉ. कुमार विश्वास

Saturday, September 28, 2019

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
आँसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं

(हिज्र = बिछोह, जुदाई)

रस्ता देखने वाली आँखों के अनहोने-ख़्वाब
प्यास में भी दरियाओं जैसी बातें करते हैं

ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं

एक ज़रा सी जोत के बल पर अँधियारों से बैर
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं

-इफ़्तिख़ार आरिफ़

Tuesday, September 24, 2019

उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए
-हैदर अली आतिश

Tuesday, August 27, 2019

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं
जुर्म कर ले है इसकी सज़ा कुछ नहीं।

उम्र भर की वो बैठा है फ़िक्रें लिए
कल का जिस आदमी को पता कुछ नहीं।

क़द्र अश्क़ों की कीजे के मोती हैं ये
इनसे बढ़ कर जहां में गरां कुछ नहीं।

(गरां = महंगा / कीमती)

सानिहा अब ये है देख कर ज़ुल्म भी
इन रगों में मगर खौलता कुछ नहीं।

(सानिहा = दुर्भाग्य/ विडम्बना)

बोलते हो अगर सच तो ये सोच लो
आज के दौर में है जज़ा कुछ नहीं।

(जज़ा = ईनाम / reward)

ज़िन्दगी जैसे बोझिल हैं अख़बार भी
रोज़ पढ़ते हैं लेकिन नया कुछ नहीं।

मैं सज़ा में बराबर का हक़दार हूँ
ज़ुल्म देखा है लेकिन कहा कुछ नहीं।

जानते सब हैं सब छूटना है यहीं
जीते जी तो मगर छूटता कुछ नहीं।

ज़िन्दगी उस मकां पे है "वाहिद' के अब
हसरतें कुछ नहीं मुद्दआ कुछ नहीं।

(मुद्दआ = matter / issue)

- विकास "वाहिद" २३ अगस्त २०१९

Wednesday, August 7, 2019

अश्क आँखों में अब हैं आए से
बात छुपती नहीं छुपाए से
अपनी बातें कहें तो किस से कहें
सब यहाँ लोग हैं पराए से
-हबीब जालिब

Sunday, August 4, 2019

वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी

वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी
क्या तुर्फ़ा तबीअत है शोला भी हैं शबनम भी

(तुर्फ़ा अनोखा, अजीब)

ख़ामोश न था दिल भी ख़्वाबीदा न थे हम भी
तन्हा तो नहीं गुज़रा तन्हाई का आलम भी

(ख़्वाबीदा =सोया हुआ, सुप्त)

छलका है कहीं शीशा ढलका है कहीं आँसू
गुलशन की हवाओं में नग़मा भी है मातम भी

हर दिल को लुभाता है ग़म तेरी मोहब्बत का
तेरी ही तरह ज़ालिम दिल-कश है तिरा ग़म भी

इंकार-ए-मोहब्बत को तौहीन समझते हैं
इज़हार-ए-मोहब्बत पर हो जाते हैं बरहम भी

(बरहम = नाराज़)

तुम रूक के नहीं मिलते हम झुक के नहीं मिलते
मालूम ये होता है कुछ तुम भी हो कुछ हम भी

पाई न ‘शमीम’ अपने साक़ी की नज़र यकसाँ
हर आन बदलता है मय-ख़ाने का मौसम भी

(यकसाँ = समान, एक जैसा)

- 'शमीम' करहानी

Sunday, July 28, 2019

कितना अच्छा लगता है, इक आम सा चेहरा भी
सिर्फ़ मोहब्बत-भरा तबस्सुम, लब पर लाने से

गए दिनों में रोना भी तो, कितना सच्चा था
दिल हल्का हो जाता था, जब अश्क बहाने से

- हसन अकबर कमाल

(तबस्सुम =  मुस्कराहट), (अश्क = आँसू)

Saturday, July 27, 2019

हँसी में छुप न सकी आँसुओं से धुल न सकी
अजब उदासी है जिस का कोई सबब भी नहीं

बुरा न मान 'ज़िया' उस की साफ़-गोई का
जो दर्द-मंद भी है और बे-अदब भी नहीं

(सबब = कारण), (दर्द-मंद = हमदर्द, सहानुभूति प्रकट करनेवाला)

-ज़िया जालंधरी