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Thursday, January 21, 2021

होंठों पर मुस्कान पढ़ा कर

होंठों पर मुस्कान पढ़ा कर
ग़म का तू उनवान पढ़ा कर।

(उनवान = शीर्षक)

फिर गीता क़ुरआन पढ़ा कर
पहले दिल नादान पढ़ा कर।

हर्फ़ बड़े मुश्किल फ़ितरत के
चेहरा है आसान पढ़ा कर।

(हर्फ़ = अक्षर), (फ़ितरत = स्वाभाव, प्रकृति)

ताज बचाना है गर तुझको
आंखों में तूफान पढ़ा कर।

हुक़्म उदूली कर दुनिया की
पर दिल का फ़रमान पढ़ा कर।

(हुक़्म उदूली = कहना न मानना), (फ़रमान = राजकीय आज्ञापत्र, आज्ञा, आदेश, हुक्म  )

हाथ मेरा ऐ पढ़ने वाले
आंखें हैं पहचान पढ़ा कर।

आसां होगी फिर हर मुश्किल
मुश्किल को आसान पढ़ा कर।

कृष्ण नज़र आएंगे तुझको
मीरा और रसखान पढ़ा कर।

आ जाएगा ग़ज़लें कहना
ग़ालिब का दीवान पढ़ा कर।

- विकास वाहिद 

Saturday, September 26, 2020

कब किससे हम मिलें हैं दुनिया में इत्तिफ़ाक़न 
इन सोहबतों में कोई माज़ी का सिलसिला है
-स्मृति रॉय 

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)


Sunday, May 10, 2020

बे-हद बेचैनी है लेकिन मक़्सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं

बे-हद बेचैनी है लेकिन मक़्सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना खोना हँसना रोना क्या है आख़िर कुछ भी नहीं

अपनी अपनी क़िस्मत सब की अपना अपना हिस्सा है
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामाँ रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं

उस की बाज़ी उस के मोहरे उस की चालें उस की जीत
उस के आगे सारे क़ादिर माहिर शातिर कुछ भी नहीं

(क़ादिर = शक्तिशाली और समर्थवान, भाग्यवान)

उस का होना या ना होना ख़ुद में उजागर होता है
गर वो है तो भीतर ही है वर्ना ब-ज़ाहिर कुछ भी नहीं

दुनिया से जो पाया उस ने दुनिया ही को सौंप दिया
ग़ज़लें नज़्में दुनिया की हैं क्या है शाइर कुछ भी नहीं

-दीप्ति मिश्रा

मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया

मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया
बस इतनी सी बात हुई थी साथ हमारा छूट गया

वो मेरा है आख़िर इक दिन मुझ को मिल ही जाएगा
मेरे मन का एक भरम था कब तक रहता टूट गया

दुनिया भर की शान-ओ-शौकत ज्यूँ की त्यूँ ही धरी रही
मेरे बै-रागी मन में जब सच आया तो झूट गया

क्या जाने ये आँख खुली या फिर से कोई भरम हुआ
अब के ऐसे उचटा दिल कुछ छोड़ा और कुछ छूट गया

लड़ते लड़ते आख़िर इक दिन पंछी की ही जीत हुई
प्राण पखेरू ने तन छोड़ा ख़ाली पिंजरा छूट गया

-दीप्ति मिश्रा

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है
जान-बूझ कर धोका खाना कितना अच्छा लगता है

ईंट और पत्थर मिट्टी गारे के मज़बूत मकानों में
पक्की दीवारों के पीछे हर घर कच्चा लगता है

आप बनाता है पहले फिर अपने आप मिटाता है
दुनिया का ख़ालिक़ हम को इक ज़िद्दी बच्चा लगता है

(ख़ालिक़ = बनानेवाला, सृष्टिकर्ता, ईश्वर)

इस ने सारी क़स्में तोड़ें सारे वा'दे झूटे थे
फिर भी हम को उस का होना अब भी अच्छा लगता है

उसे यक़ीं है बे-ईमानी बिन वो बाज़ी जीतेगा
अच्छा इंसाँ है पर अभी खिलाड़ी कच्चा लगता है

-दीप्ति मिश्रा

Friday, May 8, 2020

होश में जब से हूं मैं ये सिलसिला चलता रहा

होश में जब से हूं मैं ये सिलसिला चलता रहा
मैं जहां पर और मुझ पर ये जहां हँसता रहा

थी किसे ये फ़िक्र रिश्ता टूट जाए या निभे
हमने चाहा था निभाना इसलिए निभता रहा

रह सकें परिवार वाले जिंदा बस ये सोच कर
बा जरूरत थोड़ा थोड़ा रोज़ वो बिकता रहा

याद हो पाया न मुझसे पाठ दुनियादारी का
रटने को तो रोज यारो मैं इसे रटता रहा

ढूंढ ही लेता है जालिम दुख मुझे हर हाल में
पीठ पीछे सुख की यारो लाख मैं छिपता रहा

-हस्तीमल हस्ती

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना
जो लिखना कभी तो मुहब्बत पे लिखना।

है ग़ाफ़िल बहुत ही यतीमों से दुनिया
लिखो तुम तो उनकी अज़ीयत पे लिखना।

(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (अज़ीयत = पीड़ा, अत्याचार, व्यथा, यातना, कष्ट, तक़लीफ़)

चले जब हवा नफ़रतों की वतन में
ज़रूरी बहुत है मुहब्बत पे लिखना।

हसीनों पे लिखना अगर हो ज़रूरी
तो सूरत नहीं उनकी सीरत पे लिखना।

अगर बात निकले लिखो अपने घर पे
इबादत बराबर है जन्नत पे लिखना।

सितम कौन समझा है इसके कभी भी
है मुश्किल ज़माने की फितरत पे लिखना।

अगर मुझपे लिखना पड़े बाद मेरे
तो चाहत पे लिखना अक़ीदत पे लिखना।

(अक़ीदत = श्रद्धा, आस्था, विश्वास)

-विकास वाहिद

Tuesday, May 5, 2020

दुनिया तमाम गर्दिश-ए अफ़लाक से बनी
माटी हज़ार रंग की उस चाक से बनी
-मोहम्मद रफ़ी सौदा

(गर्दिश-ए अफ़लाक = आसमानों के चक्कर)

Tuesday, April 28, 2020

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

(दरख़्शाँ = चमकता हुआ, चमकीला), (हयात = जीवन)

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

(ग़म-ए-दहर =दुनिया के दुःख), (आलम = जगत, संसार, दुनिया, अवस्था, दशा, हालत), (सबात = स्थिरता, स्थायित्व, मज़बूती)

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

(निगूँ  = नीचे होना, झुकना), (वस्ल = मिलन)

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

(तारीक = अंधकारमय), (बहीमाना = वहशियाना), (तिलिस्म = जादू, माया, इंद्रजाल), (अतलस = रेशमी वस्त्र),  (कमख़ाब = महँगा कपड़ा), (जा-ब-जा = जगह जगह), (कूचा-ओ-बाज़ार = गली और बाज़ार)

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

(अमराज़ = बहुत से रोग), (तन्नूर = Oven), (नासूर = घाव)

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

https://www.youtube.com/watch?v=B6SSbjcGWOg


Wednesday, April 22, 2020

कितना सुख है निज अर्पन में

जाने कितने जन्मों का
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।

खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा
कर जाने कब सिंधु समायी ।

सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।

मिलने की बेला जब आयी
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।

पतझर में बेमौसम बारिश
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।

थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था,
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे
भावों का अहसास तरल था ।

है आनंद पराजय में अब
कितना सुख है निज अर्पन में ।।

-मानोशी 

Sunday, April 19, 2020

अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 16, 2020

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है

कुछ भूलें ऐसी हैं, जिनकी याद सुहानी लगती है।
कुछ भूलें ऐसी जिनकी चर्चा बेमानी लगती है।

कुछ भू्लों के लिये शर्म भी आई हमको कभी-कभी,
कुछ भूलों की पृष्ठभूमि बिल्कुल शैतानी लगती है।

कुछ भूलों की विभीषिका से जीवन है अब तक संतप्त,
कुछ भूलों की सृष्टि विधाता की मनमानी लगती है।

कुछ भूलें चुपके से आकर चली गईं तब पता चला,
कुछ भूलों की आहट भी जानी पहचानी लगती है।

कुछ भूलों में आकर्षण था, कुछ भूलें कौतूहल थीं,
कुछ भूलों की दुनियाँ तो अब भी रुमानी लगती है।

कुछ भूलों का पछतावा है, कुछ में मेरा दोष नहीं,
कुछ भूलें क्यों हुईं, आज यह अकथ कहानी लगती है।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

बतर्ज-ए-मीर

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या - क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुँह खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

(रक़्क़ासा = नर्तकी)

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

(जम्हू री निज़ाम= गणतंत्र, जनतंत्र, प्रजातंत्र)

उसका मकतब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

(मकतब = पाठशाला, स्कूल)

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

Tuesday, January 21, 2020

जो ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त से डर गए

जो ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त से डर गए
वो लोग अपनी मौत से पहले ही मर गए

आई कुछ ऐसी याद तेरी पिछली रात को
दामन पे बे-शुमार सितारे बिखर गए

छोड़ आए ज़िंदगी के लिए नक़्श-ए-जावेदाँ
दीवाने मुस्कुरा कर जिधर से गुज़र गए

(नक़्श-ए-जावेदाँ = ना मिटने वाला चिन्ह)

मेरी निगाह-ए-शौक़ के उठने की देर थी
यूँ मुस्कुराए वोह के मनाज़िर संवर गए

(मनाज़िर = दृष्यों, मंज़र का बहुवचन)

दुनिया में अब ख़ुलूस है बस मस्लहत का नाम
बे-लौस दोस्ती के ज़माने गुज़र गए

(ख़ुलूस = प्रेम, मुहब्बत), (मस्लहत = भला बुरा देख कर काम करना), (बे-लौस = बिना किसी स्वार्थ के)

-आरिफ़ अख़्तर

दिल में हो आस तो हर काम सँभल सकता है

दिल में हो आस तो हर काम सँभल सकता है
हर अँधेरे में दिया ख़्वाब का जल सकता है

इश्क़ वो आग जो बरसों में सुलगती है कभी
दिल वो पत्थर जो किसी आन पिघल सकता है

(आन = क्षण, पल)

हर निराशा है लिए हाथ में आशा बंधन
कौन जंजाल से दुनिया के निकल सकता है

जिस ने साजन के लिए अपने नगर को छोड़ा
सर उठा कर वो किसी शहर में चल सकता है

मेरा महबूब है वो शख़्स जो चाहे तो 'नईम'
सूखी डाली को भी गुलशन में बदल सकता है

-हसन नईम

Thursday, October 24, 2019

एक पुराने दुःख ने पुछा

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

जग ने मेरे सुख-पन्छी के पाँखों में पत्थर बांधे हैं
मेरी विपदाओं ने अपने पैरों मे पायल साधे हैं
एक वेदना मुझसे बोली मैंने अपनी आँख न खोली
उत्तर दिया, चली मत आना मैंने वो उर बदल दिया है

(उर = ह्रदय, दिल)

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

वैरागिन बन जाएँ वासना, बना सकेगी नहीं वियोगी
साँसों से आगे जीने की हठ कर बैठा मन का योगी
एक पाप ने मुझे पुकारा मैंने केवल यही उचारा
जो झुक जाए तुम्हारे आगे मैंने वो सर बदल दिया है

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

मन की पावनता पर बैठी, है कमजोरी आँख लगाए
देखें दर्पण के पानी से, कैसे कोई प्यास बुझाए
खंडित प्रतिमा बोली आओ, मेरे साथ आज कुछ गाओ
उत्तर दिया, मौन हो जाओ, मैंने वो स्वर बदल दिया है

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

-शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

Sunday, September 29, 2019

अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं

अभी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
अभी ज़िंदगी के बहाने बहुत हैं

ये दुनिया हक़ीक़त की क़ाइल नहीं है
फ़साने सुनाओ फ़साने बहुत हैं

(क़ाइल = सहमत, राज़ी)

तिरे दर के बाहर भी दुनिया पड़ी है
कहीं जा रहेंगे ठिकाने बहुत हैं

मिरा इक नशेमन जला भी तो क्या है
चमन में अभी आशियाने बहुत हैं

(नशेमन = घोंसला), (चमन = बगीचा)

नए गीत पैदा हुए हैं उन्हीं से
जो पुर-सोज़ नग़्मे पुराने बहुत हैं

(पुर-सोज़ = जलन और तपन से भरा हुआ)

दर-ए-ग़ैर पर भीक माँगो न फ़न की
जब अपने ही घर में ख़ज़ाने बहुत हैं

हैं दिन बद-मज़ाक़ी के 'नौशाद' लेकिन
अभी तेरे फ़न के दिवाने बहुत हैं

-नौशाद लखनवी (संगीतकार जनाब नौशाद साहब)

Thursday, September 12, 2019

दोश देते रहे बे-कार ही तुग़्यानी को

दोश देते रहे बेकार ही तुग़्यानी को
हम ने समझा नहीं दरिया की परेशानी को

(तुग़्यानी = बाढ़, सैलाब)

ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को

(रियाज़त = परिश्रम, उद्यम, प्रयास, मेहनत, व्यायाम, तपस्या, जप-तप, इबादत, अभ्यास)

-अज़हर फ़राग़

Sunday, September 8, 2019

आदत ही नहीं डाली दुनिया के नज़ारों की
जब बंद हुईं आँखें आराम से सोए हम
- राजेश रेड्डी

Saturday, August 24, 2019

इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक उम्र की तन्हाई
-सूफ़ी तबस्सुम

(आलम-ए-वीराँ = सुनसान/ वीरान दुनिया, सूनेपन की अवस्था/ दशा/ हालत), (अंजुमन आराई  = महफ़िल सजाना, सभा की शोभा बढ़ाना)