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Saturday, July 20, 2019

भले मुख़्तसर है

भले मुख़्तसर है
सफ़र फिर सफ़र है।

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

जो हासिल नहीं है
उसी पर नज़र है।

यहां भीड़ में भी
अकेला बशर है।

(बशर = इंसान)

है कब लौट जाना
किसे ये ख़बर है।

ख़ता है अगर इश्क़
ख़ता दरगुज़र है।

(दरगुज़र = क्षमा योग्य)

तेरी मौत मंज़िल
वहीं तक सफ़र है।

- विकास"वाहिद"
१८/०७/२०१९

Wednesday, June 26, 2019

मुसलसल चोट खा कर देख ली है

मुसलसल चोट खा कर देख ली है
ये दुनिया आज़मा कर देख ली है।

(मुसलसल = लगातार)

कोई मुश्किल न कम होती है मय से
ये शै मुंह से लगा कर देख ली है।

(शै = वस्तु, पदार्थ, चीज़)

मिला किसको इलाज-ए-इश्क़ अब तक
यहाँ सब ने दवा कर देख ली है।

यक़ीं अपनों पे तुम करने चले हो
यूं हमने ये ख़ता कर देख ली है।

अधूरी सी अड़ी है ज़िद पे अब तक
तमन्ना बरगला कर देख ली है।

(बरगलाना = बहकाना, भटकाना, दिग्भ्रमित करना, गुमराह करना, फुसलाना)

दुआओं से तो घर चलता नहीं है
दुआ हमने कमा कर देख ली है।

- विकास "वाहिद"
२५ जून २०१९

Monday, May 20, 2019

सियाह-ख़ाना-ए-दिल पर नज़र भी करता है

सियाह-ख़ाना-ए-दिल पर नज़र भी करता है
मेरी ख़ताओं को वो दरगुज़र भी करता है

(सियाह-ख़ाना-ए-दिल = दिल का अँधेरा कोना), (दरगुज़र = अनदेखा)

परिंद ऊँची उड़ानों की धुन में रहता है
मगर ज़मीं की हदों में बसर भी करता है

तमाम उम्र के दरिया को मोड़ देता है
वो एक हर्फ़ जो दिल पर असर भी करता है

(हर्फ़ = अक्षर)

वो लोग जिन की ज़माना हँसी उड़ाता है
इक उम्र बाद उन्हें मो'तबर भी करता है

(मो'तबर = विश्वसनीय, भरोसेमंद)

जला के दश्त-ए-तलब में उम्मीद की शमएँ
अज़िय्यतों से हमें बे-ख़बर भी करता है

(दश्त-ए-तलब = इच्छाओं के रेगिस्तान), (अज़िय्यतों = यातनाओं, तकलीफ़ों)

-खलील तनवीर

Saturday, December 20, 2014

एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा

एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

(संग = पत्थर)

उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल तो मेरा आबला-पा हो बैठा

(आब्ला-पा = छाले वाले पाँव)

मसलह्त छीन गई क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी ख़ता हो बैठा

(मस्लहत = समझदारी), (क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार = बात करने की ताकत)

शुक्रिया ऐ मेरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तूने दिया था वो दवा हो बैठा

जान-ए-शहज़ाद को मिन-जुम्ला-ए-आदा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा

(मिन-जुम्ला-ए-आदा = दुश्मनों में से एक)

-फ़रहत शहज़ाद

मेहदी हसन/ Mehdi Hassan

आबिदा परवीन/ Abida Parveen

Wednesday, October 23, 2013

लिपटा मैं बोसा लेके तो बोले कि देखिये
यह दूसरी ख़ता है, वह पहला क़ुसूर था
-अमीर मीनाई

(बोसा = चुम्बन)

हम बोसा लेके उनसे अजब चाल चल गए
यूँ बख़्शवा लिया कि यह पहला क़ुसूर था
-दाग़

एक तरफ़ दाग़ और अमीर हैं कि ख़ता करते हैं फिर शान से माफ़ी माँग लेते हैं और दूसरी तरफ़ ग़ालिब हैं कि जागते हुए नहीं बल्कि सोते हुए भी और वो भी पाँव का बोसा लेने की हिम्मत नहीं कर पाते।

ले तो लूँ, सोते में उस के पाँव का बोसा, मगर
ऐसी बातों से, वह काफ़िर बदगुमाँ हो जाएगा
-मिर्ज़ा ग़ालिब

Friday, June 14, 2013

कहता हूँ महब्बत है ख़ुदा सोच समझकर
ये जुर्म अगर है तो बता सोच समझकर

कब की मुहब्बत ने ख़ता सोच समझकर
कब दी ज़माने ने सज़ा सोच समझकर

वो ख़्वाब जो ख़ुशबू की तरह हाथ न आए
उन ख़्वाबों को आंखो में बसा सोच समझकर

कल उम्र का हर लम्हा कही सांप न बन जाए
मांगा करो जीने की दुआ सोच समझकर

आवारा बना देंगे ये आवारा ख़यालात
इन ख़ाना बदोशों को बसा सोच समझकर

ये आग जमाने में तेरे घर से न फैले
दीवाने को महफ़िल से उठा सोच समझकर

भर दी जमाने ने बहुत तलख़ियां इसमें
'साग़र' की तरफ़ हाथ बढा सोच समझकर
-हनीफ़ साग़र

Friday, May 31, 2013

दुनिया से वफ़ा करके सिला ढूँढ रहे हैं
हम लोग भी नादाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं

कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं

ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं

दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं
-सुदर्शन फ़ाकिर

Wednesday, March 6, 2013

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
मुझको ये वहम नहीं है कि खु़दा है मुझमें

मेरे चहरे पे मुसलसल हैं निगाहें उसकी
जाने किस शख़्स को वो ढूँढ रहा है मुझमें

(मुसलसल = लगातार)

हँसना चाहूँ भी तो हँसने नहीं देता मुझको
ऐसा लगता है कोई मुझसे ख़फ़ा है मुझमें

मैं समुन्दर हूँ उदासी का अकेलेपन का
ग़म का इक दरिया अभी आके मिला है मुझमें

इक ज़माना था कई ख्वाबों से आबाद था मैं
अब तो ले दे के बस इक दश्त बचा है मुझमें

किसको इल्ज़ाम दूँ मैं किसको ख़तावार कहूँ
मेरी बरबादी का बाइस तो छुपा है मुझमें

-राजेश रेड्डी

Friday, February 8, 2013

क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता,
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता।

तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या,
हर शख्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता।

प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात,
किसके लिए ज़िन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता।

घर ढूंढ रहे हैं मेरा, रातों के पुजारी,
मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता।

वैसे तो इक आँसू ही बहाकर  मुझे ले जाए,
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता।
-वसीम बरेलवी

Thursday, December 27, 2012

न सुनो, गर बुरा कहे कोई, न कहो, गर बुरा करे कोई,
रोक लो, गर ग़लत चले कोई, बख्श दो गर ख़ता करे कोई।
-मिर्ज़ा ग़ालिब

Tuesday, December 18, 2012

की नहीं उम्र भर ख़ता जिसने,
उसने तौहीने-ज़िन्दगी की है।
-नरेश कुमार शाद

(तौहीने-ज़िन्दगी = ज़िन्दगी का अपमान)

Wednesday, November 21, 2012

इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई

इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई,
हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहराई।

(साहिल = किनारा)

जाग ऐ मेरे हमसाया ख़्वाबों के तसलसुल से,
दीवार से आँगन में अब धूप उतर आई।

[(हमसाया = पड़ोसी), (तसलसुल = निरंतरता)]

चलते हुए बादल के साए के तअक्कुब में,
ये तशनालबी मुझको सहराओं में ले आई।

[(साए = परछाई), (तअक्कुब = पीछा करना), (तशनालबी = प्यास), (सहराओं = रेगिस्तानों)]

ये जब्र भी देखा है तारीख़  की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।

[(जब्र = ज़ुल्म), (तारीख़ = इतिहास)]

क्या सानेहा याद आया 'रज़्मी' की तबाही का,
क्यों आपकी नाज़ुक सी आँखों में नमी आई।

(सानेहा = आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना)

-मुज़फ़्फ़र रज़्मी

Saturday, November 17, 2012

गुनहगारों में शामिल हैं, गुनाहों से नहीं वाक़िफ़,
सज़ा को जानते हैं हम, ख़ुदा जाने ख़ता क्या है?
-चकबस्त
हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़,
फिर भी ये चाहता है उसे रास्ता मिले ।

इस दौर-ए-मुंसिफ़ी में ज़रूरी नहीं 'वसीम',
जिस शख्स की ख़ता हो, उसी को सज़ा मिले ।

(दौर-ए-मुंसिफ़ी = न्याय का युग)

-वसीम बरेलवी

Sunday, November 4, 2012

मंज़िलें क्या हैं, रास्ता क्या है,
हौसला हो तो, फ़ासला क्या है।

वो सज़ा देके दूर जा बैठा,
किससे पूछूँ मेरी ख़ता क्या है।

जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,
सब उसी का है, आपका क्या है।

तुम हमारे क़रीब बैठे हो,
अब दवा कैसी, अब दुआ क्या है।

चाँदनी आज किस लिए नम है,
चाँद की आँख में चुभा क्या है।

ख़्वाब सारे उदास बैठे हैं,
नींद रूठी है, माजरा क्या है।

बेसदा काग़ज़ों में आग लगा,
अपने रिश्ते को आज़्मा, क्या है।

गुज़रे लम्हों की धूल उड़ती है,
इस हवेली में अब रखा क्या है।
-आलोक श्रीवास्तव


Friday, October 12, 2012

मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता

बुरा हो पा-ए-सरकश का कि थक जाना नहीं आता
कभी गुमराह हो कर राह पर आना नहीं आता
[पा-ए-सरकश= बात न सुनने वाला पैर]

मुझे ऐ नाख़ुदा आख़िर किसी को मूँह दिखाना है
बहाना कर के तन्हा पार उतर जाना नहीं आता

मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जायेगा
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता
[तेशा =कुलहाड़ी]

असीरो शौक़-ए-आज़ादी मुझे भी गुदगुदाता है
मगर चादर से बाहर पाँव फैलाना नहीं आता
[असीरो=बंधक,कैदी]

दिल-ए-बेहौसला है इक ज़रा सी टीस का मेहमाँ
वो आँसू क्या पिऐगा जिस को ग़म खाना नहीं आता

-यास यगाना चंगेज़ी

Tuesday, October 2, 2012

सरे महशर यही पूछूंगा ख़ुदा से पहले .
तूने रोका भी था मुजरिम को ख़ता से पहले
- आनंद नारायण मुल्ला

Friday, September 28, 2012

तुमको चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझको,
दूसरा कोई तो अपना-सा दिखा दो मुझको
- दाग़


Tuesday, September 25, 2012

बच के दुनिया की निगाहों से ख़ता कर तो लूँ,
अपनी नज़रों से मगर, खुद को गिराऊँ कैसे
-शायर: नामालूम