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Sunday, April 19, 2020

अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 18, 2019

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर
तन्हा तो तड़पने से बचा ले कोई आ कर

सहरा में उगा हूँ कि मिरी छाँव कोई पाए
हिलता हूँ कि पत्तों की हवा ले कोई आ कर

(सहरा = रेगिस्तान, जंगल, बयाबान, वीराना)

बिकता तो नहीं हूँ न मिरे दाम बहुत हैं
रस्ते में पड़ा हूँ कि उठा ले कोई आ कर

कश्ती हूँ मुझे कोई किनारे से तो खोले
तूफ़ाँ के ही कर जाए हवाले कोई आ कर

(कश्ती = नाव)

जब खींच लिया है मुझे मैदान-ए-सितम में
दिल खोल के हसरत भी निकाले कोई आ कर

दो चार ख़राशों से हो तस्कीन-ए-जफ़ा क्या
शीशा हूँ तो पत्थर पे उछाले कोई आ कर

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (तस्कीन = धैर्य, संयम, सहनशीलता)

मेरे किसी एहसान का बदला न चुकाए
अपनी ही वफ़ाओं का सिला ले कोई आ कर

-अदीम हाशमी

Sunday, March 17, 2019

बढ़ के तूफ़ान को आग़ोश में ले ले अपनी
डूबने वाले तिरे हाथ से साहिल तो गया
-अब्दुल हमीद अदम

(साहिल = किनारा)

Tuesday, March 12, 2019

जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं
वही दुनिया बदलते जा रहे हैं
-जिगर मुरादाबादी

Monday, February 11, 2019

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है
मिरी हस्ती का साया जा रहा है

ख़ुदा का आसरा तुम दे गए थे
ख़ुदा ही आज तक काम आ रहा है

बिखरना और फिर उन गेसुओं का
दो-आलम पर अँधेरा छा रहा है

जवानी आइना ले कर खड़ी है
बहारों को पसीना आ रहा है

कुछ ऐसे आई है बाद-ए-मुआफ़िक़
किनारा दूर हटता जा रहा है

(बाद-ए-मुआफ़िक़ = अनुकूल हवा)

ग़म-ए-फ़र्दा का इस्तिक़बाल करने
ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी आ रहा है

(ग़म-ए-फ़र्दा = आगे आने वाले कल का दुःख), (ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी = भूतकाल के विचार)

वो इतने बे-मुरव्वत तो नहीं थे
कोई क़स्दन उन्हें बहका रहा है

(क़स्दन = जानबूझ कर)

कुछ इस पाकीज़गी से की है तौबा
ख़यालों पर नशा सा छा रहा है

ज़रूरत है कि बढ़ती जा रही है
ज़माना है कि घटता जा रहा है

हुजूम-ए-तिश्नगी की रौशनी में
ज़मीर-ए-मय-कदा थर्रा रहा है

(तिश्नगी = प्यास)

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे कश्तियों को
बड़ी शिद्दत का तूफ़ाँ आ रहा है

कोई पिछले पहर दरिया-किनारे
सितारों की धुनों पर गा रहा है

ज़रा आवाज़ देना ज़िंदगी को
'अदम' इरशाद कुछ फ़रमा रहा है

(इरशाद = आदेश, आज्ञा देना, हुक्म करना, दीक्षा देना, हिदायत करना)

-अब्दुल हमीद अदम

Thursday, February 7, 2019

मिरा मिट्टी से चेहरा अट गया तो

मिरा मिट्टी से चेहरा अट गया तो ?
सफ़र मुश्किल था लेकिन, कट गया तो ?

उमड़ आया तो है अश्कों का बादल
बरस जाने से पहले छट गया तो ?

ज़मीं क्या आसमाँ को थाम लेगी ?
अगर मैं दरमियाँ से हट गया तो

भला ग़ैरों में कैसे जी सकूँगा ?
अगर अपनों से ही मैं कट गया तो

मुझे क्यूँ झूठ पर उकसा रहे हो
तुम्हारे ही मुक़ाबिल डट गया तो ?

तो क्या तुम तुन्द तूफ़ाँ रोक लोगे ?
अगर मौजों से साहिल कट गया तो ?

(तुन्द = तीव्र, तेज)

मुझे नफ़रत के सांचों में न ढालो
उन्हीं खानों में घिर के बट गया तो ?

तो फिर ये ज़िन्दगी भी काट लूँगा
अगर ये आज का दिन कट गया तो ?

"शकील आज़ाद" कब लौटोगे घर को ?
ग़ुबार-ए-राह से रास्ता अट गया तो

-शकील आज़ाद

Saturday, November 5, 2016

झील का बस एक कतरा ले गया

झील का बस एक कतरा ले गया
क्या हुआ जो चैन दिल का ले गया

मुझसे जल्दी हारकर मेरा हरीफ़
जीतने का लुत्फ़ सारा ले गया

(हरीफ़ = प्रतिद्वन्दी)

एक उड़ती सी नज़र डाली थी बस
वो न जाने मुझसे क्या -क्या ले गया

देखते ही रह गये तूफान सब
खुशबुओं का लुत्फ़ झोंका ले गया

-हस्तीमल 'हस्ती'

Tuesday, August 2, 2016

भंवर भी कहते नहीं अब मुझे ख़ुदा हाफ़िज़
कि लौट आता हूँ हर बार मैं किनारों से
-आलम खुर्शीद

Wednesday, March 16, 2016

सितम ज़ाहिर, जफ़ा साबित, मुसल्लम बेवफ़ा तुम हो

सितम ज़ाहिर, जफ़ा साबित, मुसल्लम बेवफ़ा तुम हो
किसी को फिर भी प्यार आये तो क्या समझें के क्या तुम हो

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (मुसल्लम = माना हुआ, पूरा)

चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो

(चमन = बगीचा), (इख़्तिलात = अनुराग, मेल-जोल), (इख़्तिलात-ए -रंग-ओ-बू = रंग और ख़ुशबू का मेल-जोल)

अंधेरी रात, तूफ़ानी रात, टूटी हुई कश्ती
यही असबाब क्या कम थे के इस पर नाख़ुदा तुम हो

(असबाब = सामान), (नाख़ुदा = नाविक, मल्लाह)

मुबादा और इक फ़ितना बपा हो जाए महफ़िल में
मेरी शामत कहे तुम से के फ़ितनों की बिना तुम हो

(मुबादा = कहीं ऐसा न हो, यह न हो कि), (फ़ितना = उपद्रव, लड़ाई-झगड़ा), (बपा = उपस्थित, कायम)

ख़ुदा बख्शे वो मेरा शौक़ में घबरा के कह देना
किसी के नाख़ुदा होगे मगर मेरे ख़ुदा तुम हो

तुम अपने दिल में खुद सोचो हमारा मुँह न खुलवाओ
हमें मालूम है 'सरशार' के कितने पारसा तुम हो

(पारसा = संयमी, सदाचारी)

-पंडित रतन नाथ धर 'सरशार'

Wednesday, February 24, 2016

कभी कभी कितना नुकसान उठाना पड़ता है

कभी कभी कितना नुकसान उठाना पड़ता है
ऐरों गैरों का एहसान उठाना पड़ता है

टेढ़े मेढ़े रस्तों पर भी ख्वाबों का यह बोझ
तेरी ख़ातिर मेरी जान उठाना पड़ता है

कैसी हवाएं चलने लगी हैं मेरे बागों में
फूलों को भी अब सामान उठाना पड़ता है

कौन सुनेगा रोना-गाना शोर शराबे में
मजबूरी में भी तूफ़ान उठाना पड़ता है

यूँ मायूस नहीं होते हैं कोई न कोई ग़म
अच्छे अच्छों को हर आन उठाना पड़ता है

गुलदस्ते की ख़्वाहिश रखने वालों को अक्सर
कोई ख़ार भरा गुलदान उठाना पड़ता है

(ख़ार = काँटा)

यहाँ कोई तफ्रीक़ नहीं है राजा हो या रंक
दिल का बोझ दिले-नादान उठाना पड़ता है

(तफ्रीक़ = बँटवारा)

मक्कारों की इस दुनिया में कभी कभी 'आलम'
अच्छे लोगों को बोहतान उठाना पड़ता है

(बोहतान = झूठा इलज़ाम, मिथ्या अभियोग)

- आलम खुर्शीद

मज़ा अलग है जीने में

मज़ा अलग है जीने में
राज़ अगर हों सीने में।

तूफां से टकराता हूँ
खस्ताहाल सफीने में।

(सफीना = नाव, कश्ती)

कभी कभी हंस लेते हैं
कभी सालों में महीने में।

गुज़री है कुछ यूं अब तक
टाट कभी पशमीने में।

फर्क नहीं फकीरों को
पत्थर और नगीने में।

मेहनत कर, बहा ज़रा
महक है फिर पसीने में।

हर सम्त दिखाई देता है
मथुरा कभी मदीने में।

(सम्त = तरफ, ओर)

ये आंसू हैं, शराब नहीं
जिगर लगता है पीने में।

- विकास वाहिद

Tuesday, January 12, 2016

है तेरा आँचल भी कुछ बहका हुआ

है तेरा आँचल भी कुछ बहका हुआ
और तूफ़ाँ दिल में भी मचला हुआ

दूर तक इक बाँसुरी की गूँज है
और हर इक स्वर भी है महका हुआ

चल उसी दरिया में कश्ती डाल दें
आजकल जो है बहुत उफना हुआ

उड रहा है बादलों के दरमियाँ
ये ज़हन अब किस कदर हल्का हुआ

हर नज़ारा क्यों नई इस राह का
लग रहा ज्यों है कहीं देखा हुआ

झूम कर गाता यक़ीनों का चमन
चाहतों की धूप में निखरा हुआ

डूबना ही है तो फिर क्या सोचना
ताल, सागर या वो इक दरिया हुआ

वो ' सुमन' चेहरा वो आँखों की हँसी
मन भ्रमर उस रूप पर पगला हुआ

-लक्ष्मी खन्ना ' सुमन'

Thursday, December 17, 2015

रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये

रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये
छालों को सफ़र के सर-ओ-सामान में रखिये

(इम्कान = संभावना), (सर-ओ-सामान = आवश्यक सामग्री, ज़रूरी चीज़ें)

वो दिन गए जब फिरते थे हाथों में लिये हाथ
अब उनकी निगाहों को भी एहसान में रखिये

ये जो है ज़मीर आपका, जंज़ीर न बन जाए
ख़ुद्दारी को छूटे हुए सामान में रखिये

जैसे नज़र आते हैं कभी वैसे बनें भी
अपने को कभी अपनी ही पहचान में रखिये

चेहरा जो कभी दोस्ती का देखना चाहें
काँटों को सजा कर किसी गुलदान में रखिये

लेना है अगर लुत्फ़ समंदर के सफ़र का
कश्ती को मुसलसल किसी तूफ़ान में रखिये

(मुसलसल = लगातार)

ये वक़्त है रहता नहीं इक जैसा हमेशा
ये बात हमेशा के लिए ध्यान में रखिये

जब छोड़ के जाएँगे इसे ये न छुटेगी
दुनिया को न भूले से भी अरमान में रखिये

-राजेश रेड्डी

Thursday, May 28, 2015

मैं बताऊँ फ़र्क़ नासेह जो है मुझमें और तुझमें
मिरी ज़िन्दगी तलातुम तिरी ज़िन्दगी किनारा
-शकील बदायूँनी

(नासेह = नसीहत करने वाला, उपदेशक), (तलातुम = तूफ़ानी लहर)

 

Tuesday, May 19, 2015

लिख लिख के आँसुओं से दीवान कर लिया है

लिख लिख के आँसुओं से दीवान कर लिया है
अपने सुखन को अपनी पहचान कर लिया है

(सुखन = कथन, कविता, काव्य)

आख़िर हटा दी हमने भी ज़ेहन से किताबें
हम ने भी अपना जीना आसान कर लिया है

दुनिया में आँखें खोली हैं मूंदने की ख़ातिर
आते ही लौटने का सामान कर लिया है

सब लोग इससे पहले कि देवता समझते
हम ने ज़रा सा ख़ुद को इंसान कर लिया है

जिन नेकियों पे चल कर अज्दाद कितने ख़ुश थे
हम ने उन्हीं पे चलकर नुकसान कर लिया है

(अज्दाद = बाप-दादा, पूर्वज, पुरखे)

हर बार अपने दिल की बातें ज़बाँ पे ला कर
हम ने मुसीबतों को मेहमान कर लिया है

अक्सर हुआ है मरने की मांग कर दुआएँ
फिर हम ने ज़िन्दगी का अरमान कर लिया है

इक दिल के टूटने पर रोता है कोई इतना
झोंके को ख़ुद हमीं ने तूफ़ान कर लिया है

सोचा भी है कि दाना बनने की कोशिशों में
क्या हाल अपना तूने नादान कर लिया है

(दाना = बुद्धिमान, अक़्लमंद)

कुछ इस तरह गुज़ारा है ज़िन्दगी को हम ने
जैसे कि ख़ुद पे कोई एहसान कर लिया है

-राजेश रेड्डी

Thursday, October 16, 2014

यहाँ तो उम्र गुज़री है मौज-ओ-तलातुम में
वो कोई और होंगे सैर-ए-साहिल देखने वाले
-असग़र गोंडवी

[(मौज-ओ-तलातुम = लहरों और तूफ़ानों), (सैर-ए-साहिल = किनारे की सैर)]

Saturday, August 16, 2014

पहाड़ों पर सुनामी थी या था तूफ़ान पानी में
बहे बाज़ार घर-खलिहान और इन्सान पानी में।

बड़ा वीभत्स था मंज़र जो देखा रूप गंगा का
किसी तिनके की माफ़िक बह रहा सामान पानी में।

बहुत नाज़ुक है इन्सानी बदन इसका भरोसा क्या
भरोसा किसपे हो जब डूबते भगवान पानी में।

इधर कुछ तैरती लाशें उधर कुछ टूटते सपने
न जाने लौटकर आएगी कैसे जान पानी में।

बहुत मुश्किल है अपनी आँख के पानी को समझाना
अचानक कैसे हो जाती दफ़न मुस्कान पानी में।

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Thursday, May 1, 2014

क़दम मिलाकर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं आएँ,
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
    पावों के नीचे अंगारे,
    सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों से हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रुदन में, तूफ़ानों में,
अमर असंख्यक बलिदानों में,
    उद्द्यानों में, वीरानों में,
    अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कछार में, बीच धार में,
    घोर घृणा में, पूत प्यार में,
    क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को दलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अमर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन, कैसा इति अथ,
    सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
    असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
    नीरवता से मुखरित मधुबन,
    परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
    क़दम मिलाकर चलना होगा।

-अटल विहारी वाजपेयी




Thursday, December 12, 2013

मंज़िल पे न पहुंचे उसे रस्ता नहीं कहते
दो-चार कदम चलने को चलना नहीं कहते

एक हम हैं कि ग़ैरों को भी कह देते हैं अपना
एक तुम हो कि अपनों को भी अपना नहीं कहते

कम हिम्मती, ख़तरा है समंदर के सफ़र में
तूफ़ान को हम, दोस्तों, ख़तरा नहीं कहते

बन जाए अगर बात तो सब कहते हैं क्या क्या
और बात बिगड़ जाए तो क्या क्या नहीं कहते
-नवाज़ देवबंदी

Friday, October 11, 2013

बदल जाते हैं दिल-ए-हालात जब करवट बदलते हैं
मोहब्बत के तसव्वुर भी नए साँचों में ढलते हैं

 (तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद)

तबस्सुम जब किसी का रूह में तहलील होता है
तो दिल की बाँसुरी से नित नए नग़मे निकलते हैं

[(तबस्सुम = मुस्कराहट), (तहलील = स्तुतिगान)

मोहब्बत जिन के दिल की धड़कनों को तेज़ रखती है
वो अक्सर वक़्त की रफ़्तार से आगे भी चलते हैं

उजाले के पुजारी मुज़्महिल क्यूँ हैं अँधेरे से
के ये तारे निगलते हैं तो सूरज भी उगलते हैं

(मुज़्महिल = बहुत थक हुआ, शिथिल, दुर्बल)]

इन्ही हैरत-ज़दा आँखों से देखे हैं वो आँसू भी
जो अक्सर धूप में मेहनत की पेशानी से ढलते हैं

मोहब्बत तो तलब की राह में इक ऐसी ठोकर है
के जिस से ज़िंदगी की रेत में ज़मज़म उबलते हैं

(ज़मज़म = मक्के के पास का एक कुआँ जिसका पानी पवित्र माना जाता है)

ग़ुबार-ए-कारवाँ हैं वो न पूछो इज़्तिराब उन का
कभी आगे भी चलते हैं कभी पीछे भी चलते हैं

(इज़्तिराब = घबराहट, बेचैनी)

दिलों के नाख़ुदा उठ कर सँभालें कश्तियाँ अपनी
बहुत से ऐसे तूफ़ाँ 'मज़हरी' के दिल में पलते हैं

(नाख़ुदा = मल्लाह, नाविक)

-जमील मज़हरी