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Saturday, July 17, 2021

ये ग़लत कहा किसी ने तेरा पता नहीं है, 
तुझे ढूँढने की हद तक कोई ढूँढता नहीं है। 
- नामालूम 

Wednesday, July 3, 2019

अपना काम है सिर्फ़ मुहब्बत, बाक़ी उसका काम
जब चाहे वो रूठे हमसे, जब चाहे मन जाए

एक इसी उम्मीद पे हैं सब, दुश्मन दोस्त क़ुबूल
क्या जाने इस सादा-रवी में, कौन कहाँ मिल जाए

-जमीलुद्दीन "आली"

(सादा-रवी = सादगी)

Saturday, June 8, 2019

रूठा रूठा हर इक नल है
उम्मीदों में फिर भी जल है
-हस्तीमल हस्ती

Monday, May 20, 2019

सियाह-ख़ाना-ए-दिल पर नज़र भी करता है

सियाह-ख़ाना-ए-दिल पर नज़र भी करता है
मेरी ख़ताओं को वो दरगुज़र भी करता है

(सियाह-ख़ाना-ए-दिल = दिल का अँधेरा कोना), (दरगुज़र = अनदेखा)

परिंद ऊँची उड़ानों की धुन में रहता है
मगर ज़मीं की हदों में बसर भी करता है

तमाम उम्र के दरिया को मोड़ देता है
वो एक हर्फ़ जो दिल पर असर भी करता है

(हर्फ़ = अक्षर)

वो लोग जिन की ज़माना हँसी उड़ाता है
इक उम्र बाद उन्हें मो'तबर भी करता है

(मो'तबर = विश्वसनीय, भरोसेमंद)

जला के दश्त-ए-तलब में उम्मीद की शमएँ
अज़िय्यतों से हमें बे-ख़बर भी करता है

(दश्त-ए-तलब = इच्छाओं के रेगिस्तान), (अज़िय्यतों = यातनाओं, तकलीफ़ों)

-खलील तनवीर

Sunday, April 7, 2019

इक नया अंदाज़ दे शायद हमें

इक नया अंदाज़ दे शायद हमें
ज़िन्दगी आवाज़ दे शायद हमें।

सच को सच कहते रहे हम उम्र भर
अब कोई एज़ाज़ दे शायद हमें।

(एज़ाज़ = इज़्ज़त/प्रतिष्ठा)

अब तलक तो रूठ कर बैठी है पर
ज़िन्दगी परवाज़ दे शायद हमें।

(परवाज़ = उड़ान)

लफ़्ज़ कम हैं लबकुशाई के लिए
अब ग़ज़ल अल्फ़ाज़ दे शायद हमें।

(लबकुशा = बात करना)

हम खड़े हैं मोड़ पर उम्मीद से
फिर कोई आवाज़ दे शायद हमें।

- विकास वाहिद।। ०५-०४-१९

Friday, April 5, 2019

इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
-नरेश कुमार शाद

(दिल-ए-कम-नज़र = संकीर्ण दृष्टि वाला दिल), (शाम-ए-अलम = दुःख की शाम)

Monday, April 1, 2019

किस क़दर सख़्तजान थी उम्मीद
आख़िरी साँस तक नहीं टूटी
- राजेश रेड्डी

Thursday, March 21, 2019

यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है

उम्मीद ओ यास की रुत आती जाती रहती है
मगर यक़ीन का मौसम नहीं बदलता है

-मंज़ूर हाशमी

(यास = नाउम्मीदी, निराशा)

Monday, March 4, 2019

नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर

नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर
जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर

सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा
दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर

तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी
गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर

रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा
दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर

कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन
फिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर

-निदा फ़ाज़ली

Thursday, January 17, 2019

न दीद है, न सुख़न, अब न हर्फ़ है, न पयाम
कोई भी हीला-ए-तस्कीं नहीं, और आस बहुत है
उम्मीद-ए-यार, नज़र का मिजाज़, दर्द का रंग
तुम आज कुछ भी न पूछो कि दिल उदास बहुत है
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(दीद= दर्शन, दीदार), (सुख़न = बात-चीत, संवाद, वचन),  (हर्फ़ = अक्षर),  (पयाम = सन्देश), (हीला-ए-तस्कीं = तसल्ली देने का बहाना), (आस = आशा)

Monday, December 31, 2018

ऐ 'राज़' सुकून-ए-दिल क्यों-कर हो तुझे हासिल
आबाद तेरे दिल में, उम्मीद की दुनिया है
-राज़ चांदपुरी

Sunday, October 30, 2016

जब रोशनी कम हो जाए तो
उम्मीद जगा देते हैं
जब सूरज डूबने लगता है
हम दिल जला लेते हैं
ज़िन्दगी रोशनी, ज़िन्दगी नूर भी है
मगर दिल जलाने का दस्तूर भी है

बहुत रात तक रोशनी करती है 
अगर दिल में छोटी सी उम्मीद रख दो 
उजालों से घर भर महकने लगेगा 
हथेली पे रौशन कोई चीज़ रख दो 
गले लगने वालों का दस्तूर भी है 
ज़िन्दगी रोशनी, ज़िन्दगी नूर भी है
-गुलज़ार

Friday, October 7, 2016

राज़ मेरे दिल का अब जो आम है

राज़ मेरे दिल का अब जो आम है
ये यक़ीनन आँसुओं का काम है

चारागर तेरा यहाँ क्या काम है
यार की तस्वीर से आराम है

(चारागर = चिकित्सक)

अश्क तो ख़ुशियों की चाहत ने दिये
ग़म बेचारा मुफ़्त में बदनाम है

(अश्क = आँसू)

बोझ बन जाती है दिल पर हर उमीद
ना-उमीदी में बड़ा आराम है

आज इधर का रुख़ किया क्यों ज़िंदगी !
मुझसे ऐसा क्या ज़रूरी काम है

अब तो अख़बारों में पढ़ लेता हूँ मैं
आज मुझ पर कौन सा इल्ज़ाम है

- राजेश रेड्डी

Friday, June 3, 2016

पारा-पारा हुआ पैराहन-ए-जाँ

पारा-पारा हुआ पैराहन-ए-जाँ
फिर मुझे छोड़ गये चारागराँ

(पारा-पारा = टुकड़े-टुकड़े), (पैराहन-ए-जाँ = प्राणों का लिबास, शरीर), (चारागराँ = चिकित्सक)

कोई आहट, न इशारा, न सराब
कैसा वीराँ है ये दश्त-ए-इम्काँ

(सराब = मृगतृष्णा), (वीराँ = वीरान), (दश्त-ए-इम्काँ = संभावनाओं का जंगल, सम्भावना क्षेत्र, संसार)

चारसू ख़ाक़ उड़ाती है हवा,
अज़कराँ ताबाकराँ रेग-ए-रवाँ

(चारसू = चारों ओर, हर समय), (अज़कराँ = प्रभुत्व स्थापित करना), (ताबाकराँ = चमकदार), (रेग-ए-रवाँ = उड़ता हुआ बालू या रेत)

वक़्त के सोग में लम्हों का जुलूस
जैसे इक क़ाफ़िला-ए-नौहागराँ

(सोग = शोक), (क़ाफ़िला-ए-नौहागराँ = शोक मनाने वालों का कारवां)

मर्ग-ए-उम्मीद के वीराँ शब-ओ-रोज़
मौसम-ए-दहर, बहार और न ख़िज़ाँ

(मर्ग-ए-उम्मीद = आशाओं की मौत), (वीराँ = वीरान), (शब-ओ-रोज़ = रात और दिन), (मौसम-ए-दहर = दुनिया का मौसम), (ख़िज़ाँ = पतझड़)

कैसे घबराये हुए फिरते हैं
तेरे मोहताज़ तेरे दिल-ज़दगाँ

(दिल-ज़दगाँ = दिल की चोट खाये हुए)

-सय्यद रज़ी तिरमिज़ी


Ghulam Ali/ ग़ुलाम अली
https://youtu.be/p7_zp7NdQOA




Wednesday, February 24, 2016

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चिराग़ तो जलता हुआ नज़र आया

दुखों ने राब्ते मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया

(राब्ते = मेल-जोल, संबंध)

ये प्यास मुझको ज़मीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा उबलता हुआ नज़र आया

(चश्मा = पानी का सोता)

वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया

नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया

तवक़्क़आत ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया

(तवक़्क़आत = उम्मीदें, आशाएं)

शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया।

- आलम खुर्शीद

नींद पलकों में धरी रहती थी

नींद पलकों में धरी रहती थी
जब ख़यालों में परी रहती थी

ख़्वाब जब तक थे मेरी आंखों में
शाख़े- उम्मीद हरी रहती थी

एक दरिया था तेरी यादों का
दिल के सेहरा में तरी रहती थी

कोई चिड़िया थी मेरे अंदर भी
जो हर इक ग़म से बरी रहती थी

हैरती अब हैं सभी पैमाने
ये सुराही तो भरी रहती थी

(हैरती = आश्चर्य में, चकित, निस्तब्ध)

कितने पैबन्द नज़र आते हैं
जिन लिबासों में ज़री रहती थी

एक आलम था मेरे क़दमों में
पास जादू की दरी रहती थी

(आलम = जगत, संसार, दुनिया)

-आलम खुर्शीद

थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं

थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं
वो ख़्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं

उम्मीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं
दरीचे शम्मा जलाते-बुझाते रहते हैं

(दरीचे = खिड़कियां, झरोखे)

न जाने किस का हमें इन्तिज़ार रहता है
कि बाम-ओ-दर को हमेशा सजाते रहते हैं

(बाम-ओ-दर = छत और दरवाज़ा)

किसी को खोजते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख)

वो नक़्श-ए-ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं

(नक़्श-ए-ख़्वाब = स्वप्न की तस्वीर), (मुकम्मल = सम्पूर्ण, पूरा)

उसी का अक्स हर इक रंग में झळकता है
वो एक दर्द जिसे हम छुपाते रहते हैं

(अक्स = प्रतिबिम्ब, छाया, चित्र)

हमें ख़बर है दोबारा कभी न आएंगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं

ये खेल सिर्फ़ तुम्हीं खेलते नहीं 'आलम'
सभी हवा में लकीरें बनाते रहते हैं

- आलम खुर्शीद

Monday, February 8, 2016

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां)

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

(अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

(बीनाई = आँखों की दृष्टि)

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता


-निदा फ़ाज़ली





Sunday, November 15, 2015

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ

मैंने सिर्फ उसूलों के बारे में सोचा भर था
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूँ

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ

मुझमें शायद थोड़ा सा आकाश कहीं पर होगा
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ

इसकी क़ीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूँ

खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूँ

-अशोक रावत

Saturday, May 30, 2015

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को
ख़ुद से मिलने की भी मिलती नहीं फ़ुर्सत हम को

(आज़ार = दुःख, कष्ट, रोग)

रौशनी का ये मुसाफ़िर है रह-ए-जाँ का नहीं
अपने साए से भी होने लगी वहशत हम को

(रह-ए-जाँ = ज़िन्दगी की राह)

आँख अब किस से तहय्युर का तमाशा माँगे
अपने होने पे भी होती नहीं हैरत हम को

(तहय्युर = अचम्भा, विस्मय, हैरत)

अब के उम्मीद के शोले से भी आँखें न जलीं
जाने किस मोड़ पे ले आई मोहब्बत हम को

कौन सी रुत है ज़माने हमें क्या मालूम
अपने दामन में लिए फिरती है हसरत हम को

ज़ख़्म ये वस्ल के मरहम से भी शायद न भरे
हिज्र में ऐसी मिली अब के मसाफ़त हम को

(वस्ल = मिलन), (हिज्र = जुदाई), (मसाफ़त = फ़ासला, दूरी)

दाग़-ए-इसयाँ तो किसी तौर न छुपते 'अमजद'
ढाँप लेती न अगर चादर-ए-रहमत हम को

(दाग़-ए-इसयाँ = पाप के दाग़), (चादर-ए-रहमत = कृपा की चादर)

-अमजद इस्लाम अमजद