Saturday, May 30, 2015

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को
ख़ुद से मिलने की भी मिलती नहीं फ़ुर्सत हम को

(आज़ार = दुःख, कष्ट, रोग)

रौशनी का ये मुसाफ़िर है रह-ए-जाँ का नहीं
अपने साए से भी होने लगी वहशत हम को

(रह-ए-जाँ = ज़िन्दगी की राह)

आँख अब किस से तहय्युर का तमाशा माँगे
अपने होने पे भी होती नहीं हैरत हम को

(तहय्युर = अचम्भा, विस्मय, हैरत)

अब के उम्मीद के शोले से भी आँखें न जलीं
जाने किस मोड़ पे ले आई मोहब्बत हम को

कौन सी रुत है ज़माने हमें क्या मालूम
अपने दामन में लिए फिरती है हसरत हम को

ज़ख़्म ये वस्ल के मरहम से भी शायद न भरे
हिज्र में ऐसी मिली अब के मसाफ़त हम को

(वस्ल = मिलन), (हिज्र = जुदाई), (मसाफ़त = फ़ासला, दूरी)

दाग़-ए-इसयाँ तो किसी तौर न छुपते 'अमजद'
ढाँप लेती न अगर चादर-ए-रहमत हम को

(दाग़-ए-इसयाँ = पाप के दाग़), (चादर-ए-रहमत = कृपा की चादर)

-अमजद इस्लाम अमजद

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