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Thursday, March 3, 2016

कोई नहीं था मेरे मुक़ाबिल भी मैं ही था

कोई नहीं था मेरे मुक़ाबिल भी मैं ही था
शायद के अपनी राह में हाइल भी मैं ही था

(मुक़ाबिल = सम्मुख), (हाइल = बीच में आने वाला, आड़ बनने वाला)

अपने ही गिर्द मैं ने किया उम्र भर सफ़र
भटकाया मुझ को जिस ने वो मंज़िल भी मैं ही था

उभरा हूँ जिन से बारहा मुझ में थे सब भँवर
डूबा जहाँ पहुँच के वो साहिल भी मैं ही था

(बारहा = प्रायः, अक्सर), (साहिल = किनारा)

आसाँ नहीं था साज़िशें करना मेरे खिलाफ
जब अपनी आरज़ुओं का क़ातिल भी मैं ही था

शब भर हर इक ख़याल मुख़ातिब मुझी से था
तन्हाइयों में रौनक़-ए-महफिल भी मैं ही था

(शब = रात), (मुख़ातिब = सम्बोधनकर्ता, बोलने वाला)

दुनिया से बेनियाज़ी भी फ़ितरत मेरी ही थी
दुनिया के रंज-ओ-दर्द में शामिल भी मैं ही था

(बेनियाज़ी = बेपरवाही, उपेक्षा)

मुझ को समझ न पाई मेरी ज़िन्दगी कभी
आसानियाँ मुझी से थीं मुश्किल भी मैं ही था

मुझ में था ख़ैर-ओ-शर का अजब इम्तिज़ाज 'शाद'
मैं ख़ुद ही हक़-परस्त था बातिल भी मैं ही था

(इम्तिज़ाज = मिश्रण, मिलावट), (ख़ैर-ओ-शर = भलाई और बुराई), (हक़-परस्त = सत्यनिष्ठ, सत्य का पुजारी, धर्मात्मा), (बातिल = असत्य, झूठ, निकम्मा, निरर्थक)

- ख़ुशबीर सिंह शाद